
दरअसल, पिछले कुछ दशकों से इस बात को बहुत ही सुनियोजित तरीके से स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि सरकारी स्कूल तो नाकारा हैं। अगर अच्छी शिक्षा लेनी है तो प्राइवेट की तरफ जाना होगा। अब जबकि सरकारी स्कूल को मजबूरी के विकल्प बना दिए गए हैं, उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा गया है कि वे उभरते भारत की शैक्षणिक जरूरतों को पूरा कर सकें। इन परिस्थितियों ने भारत में स्कूल खोलने और चलाने को एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित किया है और इसका लगातार विस्तार हो रहा है।
इसलिए हम
देखते हैं कि एक तरफ तो गांव-गली में एक और दो कमरों में चलने वाले स्कूल
खुल रहे हैं तो दूसरी तरफ इंटरनेशल स्कूलों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है।
एक अनुमान के मुताबिक, आज हमारे देश में 600 से ज्यादा इंटरनेशनल स्कूल चल
रहे हैं। हमारे देश का नवधनाढय तबका इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने
के लिए मुंहमांगी फीस देने को तैयार है। यह चलन हमारे देश में पहले से ही
शिक्षा की खाई को और चौड़ा कर रहा है। बहुत ही बारीकी से शिक्षा जैसे
बुनियादी जरूरत को एक कमोडिटी बना दिया गया है, जहां आप अपने सामर्थ्य के
अनुसार बच्चों के लिए शिक्षा खरीद सकते हैं, यह विकल्प हजारों से लेकर
लाखों रुपए तक का है।
सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और प्राइवेट स्कूलों की लगातार बढ़ती फीस ने अभिभावकों के लिए इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। आज किसी साधारण माता-पिता के लिए अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। व्यापारिक संगठन एसोचैम द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार, बीते दस वषोंर् के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। आज लखनऊ, भोपाल, पटना, रायपुर जैसे मझोले शहरों में किसी ठीक-ठाक प्राइवेट स्कूल की प्राथमिक कक्षाओं की औसत फीस एक हजार से लेकर 6 हजार रुपए प्रति माह है। इसके अलावा अभिभावकों को प्रवेश शुल्क परीक्षा/टेस्ट शुल्क, गतिविधि शुल्क, प्रोसेसिंग फीस, रजिस्ट्रेशन फीस, एलुमिनि फंड, कंप्यूटर फीस, बिल्डिंग फंड, कॉशन मनी, एनुअल तथा बस फीस जैसे कई तरह के शुल्क हैं, जो वसूले जाते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक, मासिक फीस
के अलावा तमाम तरह के शुल्क के नाम पर अभिभावकों को 30 हजार से लेकर सवा
लाख रुपए तक चुकाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त बच्चों की ड्रेस, किताब-कापियां
और स्टेशनरी पर भी अच्छा-खासा खर्च करना होता है। निजी स्कूल की मनमानी इस
हद तक है कि एडमिशन के समय अभिभावकों को बुक स्टोर्स और यूनिफार्म की
दुकान का विजिटिंग कार्ड देकर वहीं से किताबें, यूनिफार्म और स्टेशनरी
खरीदने को मजबूर किया जाता है। स्कूलों की इन दुकानों से कमीशन सेटिंग होती
है। ये दुकानें अभिभावकों से मनमाना दाम वसूलती हैं। इसी तरह से सिलेबस को
लेकर भी गोरखधंधा चलता है। कई स्कूल संचालक एक ही क्लास की किताब हर साल
बदलते हैं, हालांकि सेलेबस वही रहता है, लेकिन इस काम में उनकी और
प्रकाशकों की मिलीभगत होती है, इसलिए एक प्रकाशक किताब में जो चैप्टर आगे
रहता है, दूसरा उसे बीच में कर देता है। इन सबके बावजूद ज्यादातर सूबों में
निजी स्कूलों में फीस के निर्धारण के लिए फीस नियामक नहीं बने हैं या
सिर्फ कागजों में हैं। निजी स्कूलों में कितनी फीस वृद्धि हो या कितनी फीस
रखी जाए, इस संबंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं और जहां हैं,
वहां भी इसका पालन नहीं किया जा रहा है। इसलिए कई स्कूल से हर साल अपने फीस
में 10 से 20 फीसदी तक की वृद्धि कर देते हैं।लंबे-चौड़े दावों के बावजूद
ज्यादातर निजी स्कूल शिक्षा प्रणाली के मानक नियमों को ताख पर रखकर चलाए जा
रहे हैं। अधिकतर निजी स्कूल ऐसे हैं, जो एक या दो कमरों में संचालित हैं,
यहां पढ़ाने वाले शिक्षक पर्याप्त योग्यता नहीं रखते हैं। शिक्षा का अधिकार
यानी आरटीई कानून प्राइवेट स्कूलों को अपने यहां 25 प्रतिशत गरीब बच्चों
को दाखिला देने के लिए बाध्य करता है, साथ ही यह शर्त रखता है कि अगर आपको
स्कूल खोलना है तो अधोसंरचना आदि को लेकर कुछ न्यूनतम शर्तों को पूरा करना
होगा, जैसे प्राइमरी स्कूल खोलने के लिए 800 मीटर और मिडिल स्कूल के लिए
1000 मीटर जमीन की अनिवार्यता रखी गई है। यह नियम ज्यादातर प्राइवेट
स्कूलों को भारी पड़ रहा है और अगर इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाए तो
लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल बंद होने के कगार पर पहुंच जाएंगे।
इसलिए सेंटर फॉर सिविल सोसायटी जैसे पूंजीवाद के पैरोकार समूहों द्वारा
आरटीई के नियमों में ढील देने की मांग को लेकर अभियान चलाया जा रहा है।
भारत में शिक्षा व्यवस्था गंभीर रूप से बीमार है, इसकी जड़ में हितों का
टकराव ही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक पढ़ाई के अवसर सीमित
और अत्यधिक महंगे होने के कारण आम आदमी की पहुंच से लगभग दूर होते जा रहे
हैं। शिक्षा के इस माफिया तंत्र से निपटने के लिए साहसिक फैसले लेने की
जरूरत है। हालत अभी भी नियंत्रण से बाहर नहीं हुए हैं और इसमें सुधार संभव
है। करना बस इतना है कि सरकारें सरकारी स्कूलों के प्रति अपना रवैया सुधार
लें, वहां बुनियादी सुविधाएं और पर्याप्त योग्य शिक्षक उपलब्ध करा दें,
जिनका मूल काम पढ़ाने का ही हो तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अछूतों जैसी
नहीं रह जाएगी और वे पहले से बेहतर नजर आएंगे, जहां बच्चों को
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकेगी और समुदाय का विश्वास भी बनेगा। अगर सरकारी
स्कूलों में सुधार होता है तो इससे शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया में
कमी आएगी। इसी तरह से बेलगाम व नियंत्रण से बाहर प्राइवेट स्कूलों पर भी
कड़े नियंत्रण की जरूरत है, जिस तरह से वे हैं और लगातार अपनी फीस बढ़ाते जा
रहे हैं, उससे इस बात का डर है कि कहीं शिक्षा आम लोगों की पहुंच से बाहर न
चली जाए। हालत पर काबू पाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम
उठाने की जरूरत है। लेकिन समस्या यह है कि राजनेता और प्रभावशाली वर्ग
शिक्षा के इस व्यवसाय में संलिप्त हैं, ऐसे में उनसे किसी बड़े कदम की
उम्मीद कैसे की जाए।
लेखक
जावेद अनीस
javed4media@gmail.com
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