शिक्षाविदों के बीच अक्सर फिनलैंड की शिक्षा की गुणवत्ता, श्रेष्ठता, सर्वसुलभ उपलब्धता और उत्तम प्रबंधन की चर्चा होती रहती है। यह भी वे सब जानते हैं कि जो रणनीतियां फिनलैंड में सफल हुई हैं उन्हें उधार लेकर भारत में लागू करना न उचित होगा और न ही कोई भी राज्य उन्हें लागू कर पाने की स्थिति में है। यह भी आवश्यक नहीं है कि वहां की नीतियां भारत के लिए भी उपयुक्त हों। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की भरमार है कि जब भी किसी देश ने शिक्षा को सही ढंग से सभी को उपलब्ध कराया, उसकी प्रगति तथा विकास की गति तेजी से बढ़ी। विचारकों में कितने ही मनीषियों के नाम लिए जा सकते हैं जिन्हें आगे का परिदृश्य स्पष्ट दिखाई दिया और उन्होंने इसे देशवासियों के समक्ष जोर देकर रखा भी। शिक्षा की महत्ता के बारे में 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में विस्तार से लिखा था। इसके पहले स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर ही जोर होगा। महात्मा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर ने इसे पहचाना कि इस देश में यदि प्रगति के लाभ प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने हैं तो निश्चित रूप से हर व्यक्ति तक शिक्षा को ले जाना सबसे पहली प्राथमिकता होगी। इस सोच का परिणाम था कि भारत के संविधान में यह प्रावधान किया गया कि 14 वर्ष तक के हर बच्चे को अनिवार्य तथा निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था राज्य करेगा। राज्य ने अपनी इस जिम्मेदारी को इस निष्ठा तथा कर्मठता से कभी नहीं निभाया जो इस प्रावधान की आत्मा में अंतर्निहित थी। यदि ऐसा होता तो आज सरकारी स्कूलों की साख तिरोहित नहीं हो गई होती, हर व्यक्ति पेट काट कर निजी स्कूलों में बच्चों को भेजने की दौड़ में शामिल न होता। जो इसमें परिवर्तन ला सकते थे, केवल शब्दों से खेलते रहे और प्रगति के नाम पर आंकड़े परोसते रहे। नेतृत्व जातिवाद, क्षेत्रीयता, अल्पसंख्यकवाद, परिवारवाद तथा स्वार्थ और संग्रहण में ही उलझा रहा। उसका ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि शिक्षा ही सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवर्तन का ठोस आधार गढ़ती है। उसी पर सामाजिक सद्भाव तथा पंथिक एकता मजबूती पाती है जो भारत जैसे विविधता संपन्न राष्ट्र के विकास की पहली सीढ़ी है। भारत और फिनलैंड के अंतर को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि की गहरी समझ आवश्यक है। फिनलैंड एक छोटा देश है जिसे एक समृद्ध और संबलपूर्ण आर्थिक स्थिति मिली हुई है। उसने शिक्षा की महत्ता को समझा और इसे प्राथमिकता के आधार पर सब तक पहुंचाया। वहां स्कूल स्तर पर कुछ अपवाद छोड़कर-सभी स्कूल सरकारी खर्चे से चलते हैं, जहां पर बच्चों को हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध होती है। वहां स्कूलों में ऐसा नहीं है कि पीने का पानी न हो, शौचालय न हो, मध्यान्ह भोजन में हेराफेरी होती हो या बारिश और बर्फ पड़ने पर छत टपकती हो। फिनलैंड उन देशों में अग्रणी है जहां ऐसा भी कोई स्कूल नहीं है जिसमें पढ़ने की और पढ़ाने की सारी सामग्री समय से सभी बच्चों तथा अध्यापक को उपलब्ध न हो पाती हो। वहां के सभी स्कूल सभी बच्चों के लिए खुले होते हैं, आर्थिक स्थिति उसमें आड़े नहीं आती है। 

भारत के स्कूल बच्चों के बीच भेदभाव पैदा करने का काम कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों की स्थिति भी लगातार नीचे जा रही है। सरकारों ने कभी इस बात के महत्व को नहीं जाना कि यदि स्कूल में सभी वर्गो के विद्यार्थी एक साथ बैठकर पढ़ें, खेलें और बचपन का आनंद लें तो इससे सामजिक सद्भाव मजबूत होगा। आज कुछ अपवादों को छोड़कर जितने भी बड़े नाम वाले निजी स्कूल हैं वे सभी धनार्जन में व्यस्त हैं। लोगों को ये अपनी चमक-दमक से प्रभावित करते हैं, अध्यापकों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं और सारा ध्यान बोर्ड परीक्षा के अंकों पर केंद्रित कर देते हैं। दूसरी तरफ भारत में आज भी 1.06 लाख स्कूल ऐसे हैं जहां पर केवल एक अध्यापक है। 

 राजधानी दिल्ली, जहां की सरकार फिनलैंड में अधिक रुचि ले रही है, में भी ऐसे तेरह स्कूल हैं। वैसे मध्य प्रदेश इसमें सबसे आगे है, वहां ऐसे 17874 स्कूल हैं। जब राज्य अपनी भावी पीढ़ी को सबसे महत्वपूर्ण नागरिक मानकर नीतियां निर्धारित करता है तब वह शिक्षा के साथ स्वास्थ्य, पोषण, खेलकूद, प्रशिक्षित अध्यापकों में कोई कमी नहीं होने देता है। फिनलैंड में हर स्कूल में न केवल सही अनुपात में अध्यापक नियुक्त होते हैं, बल्कि उन बच्चों के लिए जिन्हें शिक्षा में अधिक सहायता की आवश्यकता होती है अलग से अध्यापक देने का प्रावधान भी किया जाता है। भारत में 43 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। अधिकांश को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। स्वास्थ्य पर सबसे ताजा वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत 188 देशों में 143वें स्थान पर है। फिनलैंड इसमें छठे स्थान पर है। वहां 1971 में अध्यापक और शिक्षक का अनुपात 1:16.2 था, जो 2013 में और अच्छा होकर 1:13.2 हो गया। भारत में यह 1971 में 1:40.6 और 2011 में अंतर और बढ़ा तथा यह 1:42.9 हो गया। किस राज्य सरकार में इसे सही करने या सुधारने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है? 1अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों में सीखने की क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए एक कार्यक्रम 2001-02 में प्रारंभ हुआ। इसे पीसा (प्रोग्राम ऑफ इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट) के संबोधन से जाना जाता है। भारत ने इसमें भाग लिया था और उसकी दयनीय स्थिति उजागर हुई थी। 73 देशों में भारत 72वें स्थान पर था। बाद के चक्रों में भारत ने भाग ही नहीं लिया, वह पीछे हट गया। यह कहा जा सकता है कि बड़े लक्ष्य रखना सराहनीय हो सकता है, परंतु अपनी वास्तविक स्थिति और क्षमता का ध्यान रखना भी सदा ही लाभकारी होता है। यह उपलब्धियों की संभावना को बढ़ा देता है। भारत की विशालता, उसकी विविधता तथा उसकी सशक्त ज्ञानार्जन परंपरा में आज भी वे तत्व देखे जा सकते हैं जो देश की शिक्षा व्यवस्था को नया जीवन प्रदान कर सकते हैं। क्या टैगोर, विवेकानंद, महात्मा फुले, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, श्री अरबिंद तथा अन्य मनीषियों ने जो शैक्षिक दर्शन देश के समक्ष रखा है उसका अध्ययन हमें सही रास्ता नहीं दिखा सकता है? प्रश्न हमारी मानसिकता का है जिसे श्रेष्ठता केवल विदेशों में ही दिखाई देती है। इससे निकलना कठिन भले ही हो, अन्य कोई विकल्प है ही नहीं।

लेखक
जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक एनसीइआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
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