
भारत के स्कूल बच्चों के बीच भेदभाव पैदा करने का काम कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों की स्थिति भी लगातार नीचे जा रही है। सरकारों ने कभी इस बात के महत्व को नहीं जाना कि यदि स्कूल में सभी वर्गो के विद्यार्थी एक साथ बैठकर पढ़ें, खेलें और बचपन का आनंद लें तो इससे सामजिक सद्भाव मजबूत होगा। आज कुछ अपवादों को छोड़कर जितने भी बड़े नाम वाले निजी स्कूल हैं वे सभी धनार्जन में व्यस्त हैं। लोगों को ये अपनी चमक-दमक से प्रभावित करते हैं, अध्यापकों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं और सारा ध्यान बोर्ड परीक्षा के अंकों पर केंद्रित कर देते हैं। दूसरी तरफ भारत में आज भी 1.06 लाख स्कूल ऐसे हैं जहां पर केवल एक अध्यापक है।
राजधानी दिल्ली, जहां की सरकार फिनलैंड में अधिक रुचि ले रही है, में भी
ऐसे तेरह स्कूल हैं। वैसे मध्य प्रदेश इसमें सबसे आगे है, वहां ऐसे 17874
स्कूल हैं। जब राज्य अपनी भावी पीढ़ी को सबसे महत्वपूर्ण नागरिक मानकर
नीतियां निर्धारित करता है तब वह शिक्षा के साथ स्वास्थ्य, पोषण, खेलकूद,
प्रशिक्षित अध्यापकों में कोई कमी नहीं होने देता है। फिनलैंड में हर स्कूल
में न केवल सही अनुपात में अध्यापक नियुक्त होते हैं, बल्कि उन बच्चों के
लिए जिन्हें शिक्षा में अधिक सहायता की आवश्यकता होती है अलग से अध्यापक
देने का प्रावधान भी किया जाता है। भारत में 43 प्रतिशत से अधिक बच्चे
कुपोषित हैं। अधिकांश को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। स्वास्थ्य
पर सबसे ताजा वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत 188 देशों में 143वें स्थान
पर है। फिनलैंड इसमें छठे स्थान पर है। वहां 1971 में अध्यापक और शिक्षक का
अनुपात 1:16.2 था, जो 2013 में और अच्छा होकर 1:13.2 हो गया। भारत में यह
1971 में 1:40.6 और 2011 में अंतर और बढ़ा तथा यह 1:42.9 हो गया। किस राज्य
सरकार में इसे सही करने या सुधारने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है?
1अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों में सीखने की क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन
करने के लिए एक कार्यक्रम 2001-02 में प्रारंभ हुआ। इसे पीसा (प्रोग्राम ऑफ
इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट) के संबोधन से जाना जाता है। भारत ने इसमें
भाग लिया था और उसकी दयनीय स्थिति उजागर हुई थी। 73 देशों में भारत 72वें
स्थान पर था। बाद के चक्रों में भारत ने भाग ही नहीं लिया, वह पीछे हट गया।
यह कहा जा सकता है कि बड़े लक्ष्य रखना सराहनीय हो सकता है, परंतु अपनी
वास्तविक स्थिति और क्षमता का ध्यान रखना भी सदा ही लाभकारी होता है। यह
उपलब्धियों की संभावना को बढ़ा देता है। भारत की विशालता, उसकी विविधता तथा
उसकी सशक्त ज्ञानार्जन परंपरा में आज भी वे तत्व देखे जा सकते हैं जो देश
की शिक्षा व्यवस्था को नया जीवन प्रदान कर सकते हैं। क्या टैगोर,
विवेकानंद, महात्मा फुले, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, श्री अरबिंद तथा
अन्य मनीषियों ने जो शैक्षिक दर्शन देश के समक्ष रखा है उसका अध्ययन हमें
सही रास्ता नहीं दिखा सकता है? प्रश्न हमारी मानसिकता का है जिसे श्रेष्ठता
केवल विदेशों में ही दिखाई देती है। इससे निकलना कठिन भले ही हो, अन्य कोई
विकल्प है ही नहीं।
लेखक
जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक एनसीइआरटी के पूर्व निदेशक
हैं)
response@jagran.com
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