भारतीय भाषा यानी गैर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दो वर्ग बनाते हैं। फिर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की दूसरी कोटि बनती है। इनके कई उपभेद भी है। समानता और समता का माध्यम बनने वाली शिक्षा विषमता की डगर पर चल रही है
भारत में जाति की सोच आज भी न केवल बरकरार है बल्कि फल-फूल रही है और अपने नए-नए अवतारों में दिन-प्रतिदिन दृढ़तर होती जा रही है। राजनीति के लिए तो जाति बैसाखी बन ही चुकी है, अब वह शिक्षा के क्षेत्र में घर जमा रही है। वह शिक्षा ही थी, जिसके सहारे हम सब ने समाज के मन को बदलने की कोशिश शुरू की थी और तमाम तरह की कमजोरियों से उसे मुक्ति दिलाना चाहते थे। पर शिक्षा का आयोजन और सम्पादन स्वयं ही उसी बीमारी से ग्रस्त हुआ जा रहा है। ताजा जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अभी आठ करोड़ स्कूली आयु के भारतीय बच्चे स्कूल नहीं पहुंच पा रहे हैं।दूसरे शब्दों में स्कूली जाति व्यवस्था की दृष्टि से ये बच्चे ‘‘जाति बहिष्कृत’ यानी अछूत बने हुए हैं। 

पिछले सालों में चलाया गया ‘‘सर्व शिक्षा अभियान’ पूरी तरह कामयाब नहीं हो सका है। स्कूलों में नामांकन में वृद्धि हुई है पर सामाजिक-आर्थिक रूप से दुर्बल पृष्ठभूमि के जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं, उनमें ज्यादातर बच्चे आगे पढ़ाई जारी नहीं रखते और स्कूल छोड़ बाहर चले जाते हैं। उनके ज्ञान का स्तर या शैक्षिक उपलब्धि भी बड़ी कमजोर पाई गई है। स्कूल और घर की भाषा और संस्कृति में अंतर और स्कूली शिक्षा में इस भिन्नता के प्रति संवेदना का अभाव उनकी भिन्नता को दुर्बलता में बदल देता है। स्कूलों के क्षेत्र में शिक्षा देने की पूरी व्यवस्था में सामाजिक-आर्थिक भेद बने हुए हैं और उनमें पढ़ते हुए सम्पन्नता/गरीबी का सांस्कृतिक भेद पुनरुत्पादित होता रहता है । स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपर्याप्त संख्या, अध्यापकों की कमी और आवश्यक सुविधाओं के अभाव से बुरी तरह से जूझ रही हमारी शिक्षा व्यवस्था पटरी पर नहीं आ पा रही है। 

पर शैक्षिक परिदृश्य का एक दूसरा पहलू यह है कि आज देश में कई तरह की शिक्षा संस्थाएं चल रही हैं और वे जबरदस्त किस्म के वर्गभेद और जातिभेद से ग्रस्त हो रही हैं और वे नए ढंग से जातिवाद का जहर फैला रही हैं। सच कहें तो स्कूलों की अलग-अलग जातियां बन गई हैं और उनमें भी संस्कृतीकरण और पश्चिमीकरण की प्रवृत्तियां उभर रही हैं। भारतीय भाषा यानी गैर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल दो वर्ग बनाते हैं। फिर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की दूसरी कोटि बनती है। इनके कई उपभेद भी है। समानता और समता का माध्यम बनने वाली शिक्षा विषमता की डगर पर चल रही है । अब अंतरराष्ट्रीय मानक वाले संस्थान खोलने के आकर्षण में शिक्षा संस्थाओं की ‘‘वर्ल्ड क्लास’ की एक अतिविशिष्ट श्रेणी भी बनने लगी है। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक फैली शिक्षा संस्थानों की जातियां उनकी फीस उगाही, परिसर में दी जाने वाली सुविधा, शिक्षा का माध्यम और छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में झलकती है। कई शिक्षा संस्थान आवासीय हैं और उनमें बोर्डिंग की सुविधा है, जिनमें छात्र परिसर में ही रहते हैं और अपनी जातीय/वर्गीय शिक्षा के ढांचे में दीक्षित हो रहे हैं। ऊंची जाति की संस्थाओं में पढ़ने वाले ऊंचे तबके के बच्चे अपनी जाति के स्तर के अनुरूप सोहबत के लिए अपनी मित्र मंडली चुनते हैं और शौक पालते हैं। कहना न होगा कि उनकी स्कूली जीवन शैली में कई अवांछित तत्व भी शामिल होते जा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि शिक्षा का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण हो चुका है और बहुत से पैसे वाले लोग इसी रूप में शिक्षा के केंद्र बना रहे हैं कि सम्मानपूर्वक और सरलता से धन सम्पत्ति का अर्जन किया जा सके। अच्छे मुखौटे लगा कर ये संस्थाएं बड़े-बड़े दावे करती हैं और विज्ञापन के जरिए आम जन की सोच को प्रभावित करती हैं। प्राइमरी कौन कहे नर्सरी में छोटे छोटे शहरों में भी तथाकथित अच्छे स्कूलों में बच्चे के प्रवेश के लिए लगभग लाख रुपये तक की भेंट चढ़ानी अनिवार्य हो गई है। आज स्कूलों को देख कर हमारे सामने कई सवाल उठते हैं। यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या जन आकांक्षाएं और स्कूल एक दूसरे के पूरक बन पा रहे हैं? क्या पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि और उनके विकास की जरूरत के अनुरूप हैं? यह सोचना जरूरी हो गया है कि क्या स्कूल द्वारा ही समाज के लिए शिक्षा की संभव है? दूसरे शब्दों में क्या सभी लोगों को शिक्षा देने के लिए स्कूल की संस्था जरूरी है, खास तौर पर जब हम यह पाते हैं कि विश्व के बहुत से मेधावी और प्रतिभाशाली लोग स्कूल में असफल छात्र थे। औपचारिक शिक्षा जिस रूप में है, ऐसे में यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि किस तरह हम स्कूल का विकल्प ढूंढ़ सकेंगे ।

लेखक
गिरीश्वर मिश्र

  

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