बीते तीन साल में शिक्षा के मोर्चे पर बहुत कुछ हुआ है तो बहुत कुछ शेष भी है

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने 1919 में लिखा था कि विश्वविद्यालयों का मुख्य कार्य शिक्षा का वातावरण निर्मित करना होता है। शिक्षा देना तो उसके बाद का सामान्य छोटा भाग है। उन्होंने यह भी कहा था कि शिक्षा में सभी तत्वों का समन्वय करना होगा। उसमें वेद-पुराण भी शामिल हों और समग्र चिंतन को सशक्त बनाने के लिए छात्रों को इससे भी परिचित कराना होगा कि बौद्ध, जैन, इस्लाम की विचाधाराओं ने भारतीय चिंतन को कैसे प्रभावित किया? उन्होंने इसे सभी विचारों को साथ लाने के लिए आवश्यक माना था। यदि शिक्षा सुधारों को 1950 से ही सही परिप्रेक्ष्य में समझा गया होता और शिक्षा नीतियों का आधार बनाया गया होता तो भारत की शिक्षा का स्वरुप बदल गया होता। 2004-14 तक शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण को जो खुली छूट मिली उससे निजी स्कूल, मानद विश्वविद्यालय और निजी महाविद्यालय तो खुले, लेकिन इसके साथ ही शिक्षा में सरकारी भागीदारी की साख नीचे आई। इस पृष्ठभूमि में तीन साल पहले मोदी सरकार के सत्ता में आने से शिक्षा में सुधार के प्रति लोगों में नई आशा जगी। यह वह दौर था जब शिक्षा जगत में हताशा और शिथिलता नजर आती थी। केवल वही निश्चिंत थे जो शिक्षा को व्यापार समझ रहे थे। नई सरकार से अपेक्षाओं की बाढ़ आ गई थी। देश में नया जोश और संभावनाएं दिखाई दे रहीं थीं। सामान्य चर्चा में यही उभरता था कि सरकारी स्कूलों की साख वापस होनी चाहिए, शिक्षा रोजगारपरक होनी चाहिए, बच्चों पर बस्ते का बोझ कम होना चाहिए और सरकारी विश्वविद्यालयों एवं व्यवसायिक संस्थानों की संख्या बढ़नी चाहिए। इसके अतिरिक्त शिक्षा से व्यापारीकरण दूर होने और निजी संस्थानों की मनमानी पर अंकुश लगने एवं सरकारी संस्थानों को साधनों में कमी न होने की उम्मीद जगी थी। बच्चों को समयानुकूल कौशल सिखाने और कार्य संस्कृति को गतिशील बनाने की जरूरत भी महसूस की गई थी। चूंकि कोठारी कमीशन (1964-66) के बाद कोई राष्ट्रीय शिक्षा आयोग नहीं बना इसलिए उसे बनाने के साथ नई शिक्षा नीति की आवश्यकता शिक्षाविदों ने जताई थी। बेहतर हो कि चुनाव आयोग की तर्ज पर एक संवैधानिक स्वायत्त संस्था बने और वह शिक्षा को समयानुकूल परिवर्तित एवं संशोधित करती रहे। शिक्षाविदों की एक अन्य अपेक्षा यह थी कि नए विषय और नए पाठ्यक्रम बनाने चाहिए तथा सरकार को जीडीपी का छह फीसद शिक्षा को आवंटित करना चाहिए। बीते तीन वर्ष में सरकार ने लगभग हर क्षेत्र में नई परियोजननाएं लागू की हैं और गुणवत्ता के विकास की आवश्यकता को पहचानने के साथ यह भी स्वीकार किया है कि स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की स्थिति में सुधार की त्वरित आवश्यकता है। इसी कारण अध्यापकों और प्राध्यापकों की नियमित नियुक्तियों पर विशेष ध्यान दिया गया है और अभी भी इन नियुक्तियों को समय से पहले और पारदर्शी ढंग से करने की दिशा में अनेक सार्थक कदम उठाए जा रहे हैं। सामान्य रूप से प्रचलित निष्कर्ष यही है कि लगभग हर क्षेत्र में समस्या को पहचानने का काम हुआ है और समाधान के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। बीते तीन साल में आईआईटी, आईआईएम, नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय और अन्य अनेक नए संस्थान खोले गए हैं। इसके अलावा विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की रैंकिंग के लिए नई व्यवस्था बनाई गई है। बालिकाओं की शिक्षा और सुरक्षा के लिए बड़े पैमाने पर विशेष प्रयास करने के साथ अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों के लिए छात्रवृत्ति एवं शैक्षिक कर्ज के प्रावधान और विस्तारित किए गए हैं। कौशल विकास और उद्यमिता को प्रोत्साहन देने के लिए अलग मंत्रलय को स्थापना ने भी युवाओं में नई आशा जगाई है। शिक्षा जगत में अपेक्षा थी कि नई शिक्षा नीति बनाने में पहले ही बहुत देर हो चुकी है। उस पर कार्य होना चाहिए। सरकार ने इस दिशा में पहल की और राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श की प्रक्रिया प्रारंभ की। हर संस्था, हर व्यक्ति को अपनी बात पहुंचाने का अवसर मिला। इसके बाद पांच सदस्यीय समिति ने एक नीति प्रारूप तैयार कर मई 2016 को मंत्रलय को दिया। इसी बीच अनेक लोगों ने विचार-विमर्श को और आगे बढ़ाने की जरूरत जताई और उसके चलते मंत्रलय ने नई शिक्षा नीति को अंतिम रूप नहीं दिया। आशा है कि इस वर्ष के अंत तक नई शिक्षा नीति आ जाएगी और उसमें बदलाव के अनुरूप आवश्यक शिक्षा और कौशल विकास करने की रणनीति को समग्र रूप में स्पष्ट किया जाएगा। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि स्कूली शिक्षा का पाठ्यक्रम किस प्रकार और कितने समय बाद परिवर्तित हो? 

ध्यान रहे कि 14 नवंबर 2000 को घोषित पाठ्यक्रम को 2005 में एकाएक बदल दिया गया था। तबसे उसी के आधार पर बनी पाठ्य पुस्तकें आज भी चल रही हैं। हर विकसित देश यह स्वीकार करता है कि पुस्तकें पांच साल के अंदर अवश्य ही बदलनी चाहिए। सरकार ने पुस्तकों के पुनरावलोकन की घोषणा तो की है, मगर इस ओर और अधिक गहनता से ध्यान देने की आवश्यकता है। पिछले तीन साल में कई कारगर फैसले हुए हैं, जिनका सही प्रभाव दिखाई देने लगा है। कक्षा आठ तक बच्चे को बिना सीखने के कौशल का अनुमान लगाए अग्रेषित करते जाना एक राजनीतिक निर्णय था। सरकारी स्कूलों में नामांकन तो बड़ी संख्या में दिखाए गए, मगर बच्चों की उपलब्धियां और शिक्षा की गुणवत्ता लगातार घटती गई। 

इसे बदल कर व्यावहारिक रूप दिया गया है। सीबीएसई ने अंकों की अनावश्यक वृद्धि को समाप्त करने का निर्णय लिया है। इससे शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करने की दौड़ से जो तनाव बच्चों पर बनता था वह कम होगा। निजी स्कूलों की मनमानी, व्यापारीकरण और शोषण पर नियंत्रण की उम्मीद भी बढ़ी है। अब अधिक कमीशन देकर पुस्तकें लगवाना असंभव नहीं तो कठिन हो गया है। स्कूलों में शौचालय, पेयजल और नए कमरे बड़ी संख्या में उपलब्ध कराए गए हैं, लेकिन इस मोर्चे पर अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। देश को प्राथमिकता के आधार पर सरकारी स्कूलों को नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों के स्तर पर लाने की दिशा में बढ़ना है। इसके अलावा गुणात्मक शोध और नवाचारों को बढ़ावा देना है और नई शिक्षा नीति तो लानी ही है। यह पहचाना गया है कि शिक्षा संस्थाओं का हर स्तर पर उद्योग जगत से जुड़ना आवश्यक है। पिछले तीन सालों की उपलब्धियों में महत्वपूर्ण है सभी समस्याओं का सामने आना। ध्यान रहे कि समाधान तभी संभव है जब समस्या की पहचान सामने हो। 

लेखक
जगमोहन सिंह राजपूत 
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
response@jagran.com 

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