भारत में बच्चों को 'लग्जरी लाइफ' देना बेहतर परवरिश का पैमाना माना जाने लगा है, जबकि सच्चाई उलट है।


बच्चों की परवरिश हमारे समाज में किस तरह उपेक्षा का शिकार बनती जा रही है, इसका अंदाजा ‘इप्सॉस मोरी ग्लोबल ट्रेंड सर्वे’ के नए अध्ययन से लगाया जा सकता है। इस सर्वे ने पाया है कि करीब 77 प्रतिशत भारतीय अभिभावक अपने बच्चों के व्यवहार के बारे में कोई जिम्मेदारी लेने से बचते हैं। जाहिर है, इस तथ्य को नकारते हुए दलील दी जाएगी कि ऐसा संभव ही नहीं, क्योंकि अभिभावक दिन-रात अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए जुटे रहते हैं। अपने बच्चों को दुनिया भर की सुविधाएं मुहैया करवाना व उनके व्यवहार की जिम्मेदारी लेना, दो अलग बातें हैं। ‘छोटी-छोटी बातों पर बच्चों का एक-दूसरे को धक्का दे देना, चीजों पर गुस्सा उतारना, भाई-बहन, सहपाठी या फिर टीचर को ऊंची आवाज में जवाब देना’, माता-पिता इसे दोस्तों की संगत, काटरून पात्रों के प्रभाव और समाज के बदलते माहौल से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के र्दुव्‍यवहार को लेकर किए गए कारणों की गिनती में वे स्वयं को किसी भी रूप में नहीं गिनते, परंतु बच्चों के नकारात्मक व्यवहार का उत्तरदायित्व माता-पिता का है और उसका विश्लेषण करना उनके लिए आवश्यक है। एम्स के बाल चिकित्सा विभाग के शोध से पता चलता है कि पिछले वर्षो में गुस्सैल बच्चों की तादाद में 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। ये वे बच्चे हैं, जो छोटी सी बात पर आक्रामक प्रतिक्रिया देते हैं और ऐसे बच्चों की उम्र तीन से सात वर्ष के बीच है। ‘अटेंशन डेफिशिएंसी हाइपर एक्टिव डिजॉर्डर यानी एडीएचडी’ के शिकार ये वे बच्चे हैं, जिन्हें अपने माता-पिता के साथ समय बिताने का मौका कम मिलता है। यह समस्या उच्च आय वर्ग के हर 10वें बच्चे में देखी जा रही है। अध्ययन बताता है कि पांच वर्ष तक की उम्र के 65 प्रतिशत बच्चों के रोल मॉडल काटरून पात्र हैं और इन पात्रों की हरकतें देखकर भी बच्चों में गुस्से की प्रवृत्ति बढ़ी है। माता-पिता की इस संबंध में प्रतिक्रिया यही होती है कि उनके बच्चों के नकारात्मक व्यवहार की जिम्मेदारी टीवी पर है। प्रश्न यह है कि बच्चे अपना अधिकतर समय इन माध्यमों के साथ गुजारते क्यों हैं? 

भारतीय परिवारों में अपने बच्चों को ‘लग्जरी लाइफ’ यानी विलासी जीवन देना बेहतर परवरिश का पैमाना बन चुका है। अपने काम में व्यस्त ज्यादातर अभिभावक यही सोचते हैं कि वे अपने बच्चों को महंगे तोहफे देकर उन्हें खुश रख सकते हैं, लेकिन वास्तविकता ठीक इसके उलट है। यूनीसेफ द्वारा किए गए एक शोध में चेतावनी दी गई है कि अभिभावक भौतिकवाद के चक्कर में फंसकर अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताने से बचते हैं, जो कि बच्चों के लिए किसी रूप में हितकारी नहीं है। यूनीसेफ ने अपनी 2011 की ही एक रिपोर्ट में बच्चों के उग्र होते स्वभाव का कारण अभिभावकों का अपने दायित्वों से बचना बताया था। एक के बाद दूसरे शोध लगातार यह बता रहे हैं कि माता-पिता अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण बहुत कम समय बिता रहे हैं। 

तीन साल के बच्चों के हाथ में भी अभिभावक स्मार्टफोन देने से नहीं हिचकते, क्योंकि यह एक ऐसा माध्यम है, जिसमें गेम्स खेलते हुए वे इस कदर उलझ जाते हैं कि माता-पिता को तथाकथित रूप से परेशान नहीं करते। लेकिन अभिभावकों की खुद को इस परेशानी, जिसे ‘दायित्व’ कहने में वे हिचकते हैं, बचने की जुगत, बच्चों को विध्वंसक और अवसादग्रस्त बना रही है। मैकएफी का एक सर्वे बताता है कि ऐसी वेबसाइटों पर, जिन्हें बच्चों को नहीं देखनी चाहिए, जाने वाले भारतीय बच्चों की संख्या अमेरिकी और ब्रिटिश बच्चों के मुकाबले ज्यादा है। इंटरनेट पर सहज उपलब्ध होने वाली ये सामग्रियां बच्चों को उम्र से पहले परिपक्व बना रही है। एनसीआरबी के ताजा आंकड़े बताते हैं कि दुष्कर्म के अपराध में शामिल किशोरों की तादाद में 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह एक चेतावनी है उन अभिभावकों के लिए, जो अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने में अपने बच्चों को अंधेरे में धकेल रहे हैं। इसका दोष वह किसी और पर नहीं मढ़ सकते। यूनीसेफ ने अपने अध्ययन में पाया है कि स्पेन व स्वीडन के बच्चे कहीं ज्यादा खुश हैं, क्योंकि उन्हें भौतिक संसाधनों की अपेक्षा अभिभावकों का साथ अधिक मिलता है। मां-बाप बच्चों की परवरिश का पूरा दायित्व लें, चाहें इसके लिए उन्हें कम काम क्यों न करना पड़े।

लेखिका  
ऋतु सारस्वत
समाजशास्त्री
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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