हिंसा के महिमामंडन वाले समाज में अगर बच्चे इन आदतों को अपना रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
वे तीनों एक ही उम्र के थे, लगभग 14 साल। एक ही मोहल्ले में रहते थे। एक
ही स्कूल में पढ़ते भी थे। साथ आते-जाते, खेलते-कूदते। एक दिन कुछ
राहगीरों ने पास के नाले से चीखें सुनीं। लोगों ने पास जाकर देखा, तो दो
लड़के एक लड़के को पीट रहे थे। वह लहूलुहान था और बचने के लिए चिल्ला रहा
था। तीनों ही स्कूल ड्रेस में थे। यानी वे स्कूल से वहां आए थे। लोगों को
आया देखकर हमलावर लड़के भाग गए। पुलिस ने घायल लड़के को अस्पताल पहुंचाया,
मगर वह बच नहीं सका। बाद में पुलिस ने बताया कि घायल लड़के पर ज्योमेट्री
बॉक्स में पाए जाने वाले कम्पास से हमला किया गया था। डॉक्टरों ने भी
कम्पास से जानलेवा हमले की बात कही, जो उसकी मृत्यु का कारण बना। यह भी पता
चला कि कुछ दिन पहले भी इस लड़के की इन दोनों लड़कों से लड़ाई हुई थी।
हमलावर दोनों लड़के एक लड़की से दोस्ती को लेकर इस लड़के से नाराज थे। छठी
क्लास में पढ़ने वाले इन बच्चों में किसी लड़की को लेकर इतनी ‘पजेसिवनेस’
कैसे आ गई कि वे अपने ही सहपाठी की जान ले बैठे? किसी लड़की को लेकर
अधिकार की इतनी भावना, वह भी मात्र 14 साल के बच्चों में? क्या लड़कियों के
बारे में सोच जरा भी नहीं बदली? आखिर वह इसकी या उसकी संपत्ति जैसी क्यों
है कि जिसे पसंद आ गई, बस उसके अलावा उसकी तरफ कोई आंख उठाकर नहीं देख
सकता? यह भी संभव है कि जिस लड़की के कारण एक किशोर की जान चली
गई, उस लड़की को इस बारे में कुछ पता ही न हो। अक्सर ऐसा होता
है।वैसे भी, साथ पढ़ने वालों, साथ-साथ रहने वालों द्वारा पढ़ाई के ही एक
औजार- कम्पास से हत्या! ऐसा लगा कि अगर किसी से बदला लेना हो, किसी की जान
लेनी हो, तो बाहर से हथियार लाने की तो कोई जरूरत ही नहीं। कोई क्रिकेट के
बल्ले से अपने ही साथी को मार देता है, कोई ईंट से सिर कुचल देता है, तो
कोई पेंसिल से ही आंखों की रोशनी छीन लेता है।
अमेरिकी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वहां जूनियर कक्षाओं के बच्चे भी अपने बस्ते में हथियार लेकर जाते हैं, लेकिन अपने यहां बच्चों को हिंसा के लिए किसी बाहरी हथियार की जरूरत ही नहीं। वे तो रोजमर्रा के काम में आने वाली चीजों को ही हथियार बना रहे हैं, जैसे कम्पास या क्रिकेट का बल्ला या पेंसिल। मासूम उम्र की इस दरिंदगी को कैसे परिभाषित किया जा सकता है।
वयस्क होने की उम्र 18 साल है। 18 वर्ष से कम उम्र के किशोर माने जाते
हैं। पिछले दिनों सरकार ने जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट में बदलाव भी इसीलिए किए
कि किशोरों में अपराध बढ़ रहे हैं। 18 से कम उम्र का लाभ उठाकर वे बड़े से
बड़ा अपराध करके भी छूट जाते हैं। कई बार वे खुद अपराध करते हैं, तो कई बार
अपराधी गिरोह उनकी उम्र का लाभ उठाकर उनसे अपराध करवाते हैं। नए कानूनी
प्रावधान के अनुसार, 16 से 18 वर्ष तक की उम्र के किसी किशोर ने यदि बड़ों
जैसा अपराध किया है, तो उसे सजा भी बड़ों जैसी ही मिलेगी। बहुत से देशों
में ऐसे कानून हैं, जहां अपराधी की उम्र के मुकाबले अपराध की गंभीरता देखी
जाती है। बच्चों और किशोरों में बढ़ती हिंसा और बढ़ते अपराधों के प्रति
विद्वान लोग अक्सर चिंता प्रकट करते हैं। सलाह-मशविरे दिए जाते हैं। बहसें
होती हैं। शिकायतें भेजी जाती हैं, लेकिन बच्चों के अपराधों के आंकड़े
बढ़ते ही जाते हैं। कोई किशोरों और बच्चों के अकेलेपन को इसके लिए
जिम्मेदार मानता है। कोई संयुक्त परिवार के न रहने और लगातार बच्चों के
अकेले होते जाने, उनके लिए किसी के पास समय न बचने को इसका दोषी ठहराता है।
यह भी राय है कि मोबाइल और इंटरनेट पर लंबा समय बिताने के कारण बच्चों को
अपराध की दुनिया बहुत एडवेंचर भरी लगती है। अक्सर फिल्मों या धारावाहिकों
में अपराधियों को काफी ग्लोरीफाई किया जाता है। कानून के मुकाबले अपराधी के
प्रति लोगों की सहानुभूति भी ज्यादा दिखाई देती है। उसे ‘हीरोज वेलकम’
मिलता है। इसलिए वे बच्चे या किशोर, जो अभी-अभी दुनिया देखने निकले हैं,
उनसे सीख ले रहे हैं, तो इसमें आश्चर्य कैसा? लेकिन स्कूलों और उनके आस-पास
इस प्रकार बढ़ती हिंसा बाकी बच्चों की जिंदगी भी खतरे में डालती है।
लेखिका
क्षमा शर्मा
(ये
लेखिका के अपने विचार हैं)
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