बचपन में कठपुतली बनती आज की पीढ़ी


उम्र मासूमियत की, मगर सख्त जंजीरें,
बचपन की कश्ती पर बोझ है तकदीरें।
फूलों की तरह खिलने दो इस उम्र को,
हर रोज़ उसे बंदिशों में मत लपेटो।

यह क्या समय आ गया है कि बचपन, जो कभी कागज की नावों और खुली हवा में दौड़ता-भागता था, अब किताबों के बोझ और प्रतिस्पर्धा की कसौटी पर घिसटने लगा है। शिक्षा के ठेकेदारों ने, जिन्हें बच्चों की मासूमियत की कद्र करनी चाहिए थी, उनके बचपन को दौड़ में तब्दील कर दिया है। स्कूलों के मुखिया और आज के अभिभावक मानो भूल चुके हैं कि हर बच्चा अपने वक्त पर खिलता है—जैसे फूलों में कोई गुलाब, तो कोई सूरजमुखी।

आजकल का बचपन अपने प्राकृतिक रंगों से कहीं दूर जा चुका है। जिन मासूम बच्चों के चेहरों पर पहले खुशी की चमक होती थी, उनकी आँखों में अब एक अनकहा भय छुपा है। बचपन का वास्तविक स्वरूप हम कहीं खोते जा रहे हैं। जिन बच्चों के मासूम चेहरे पर कभी हंसी का उजाला होता था, वहाँ अब तनाव की धुंध छा चुकी है। हमारा समाज, शिक्षा व्यवस्था, और यहाँ तक कि माता-पिता—सभी ने मिलकर बचपन को कठपुतली में बदल दिया है। एक ऐसी कठपुतली, जिसके हर अंग को कोई न कोई अपनी डोर से खींच रहा है।

शुरुआत माता-पिता से ही कर लेते हैं। आज के दौर में बच्चा अभी अपने कदमों पर ढंग से खड़ा भी नहीं हो पाता कि उसके भविष्य की पटकथा तैयार हो जाती है। "मेरा बच्चा आईआईटी में जाएगा" या "मेरी बेटी डॉक्टर बनेगी"—यह सोच उसके जन्म से ही उसके ऊपर थोप दी जाती है। खेल-कूद, मौज-मस्ती, और मासूमियत के दिन अब बीते जमाने की बात हो गए हैं। 

फिर आते हैं शिक्षा के कर्णधार, जो पाठ्यक्रम को ऐसे कठिन बना देते हैं कि बच्चा सीखने की बजाय हताश होकर डरने लगता है। किताबों का भारी बोझ, और उसके बाद हर विषय में एक्स्ट्रा कोचिंग का दौर। स्कूल के बाद ट्यूशन, और फिर घर पर पेरेंट्स की कड़ी निगरानी। इन सभी डोरों से बंधा हुआ मासूम बच्चा उस कठपुतली की तरह हो जाता है, जिसे सब अपनी मर्ज़ी से नचाना चाहते हैं। 

स्कूल की दीवारों पर बड़े-बड़े आदर्श वाक्य लिखे होते हैं—“शिक्षा बच्चों का अधिकार है,” “ज्ञान सबसे बड़ा धन है।” मगर हकीकत की परतों को हटाकर देखें, तो वहाँ ज्ञान का नामोनिशान नहीं, केवल अंक और ग्रेड का बाजार लगा हुआ है। जो बच्चा इसमें पीछे रह जाता है, उसे "कमजोर" का तमगा दे दिया जाता है। 

बच्चों के पीछे सबसे बड़ी ताकत होती है—माता-पिता। इन्हें अपना बच्चा हर क्षेत्र में अव्वल चाहिए। माता-पिता को ये समझ नहीं आता कि बच्चों की दौड़ उनके अंदर की मासूमियत को खत्म कर रही है। वे ये भूल जाते हैं कि हर बच्चा अलग होता है, और उसका विकास भी उसी अनुपात में होना चाहिए।  हर माता-पिता अपने बच्चे को दूसरे बच्चों से श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य ये बन गया है कि उनका बच्चा हर प्रतियोगिता में अव्वल आए, भले ही वो खेल में हो या पढ़ाई में। माँ-बाप और ट्यूटर को तो जैसे एक कंसल्टिंग एजेंसी बना दिया गया है, जो बच्चों के भविष्य की प्लानिंग में हमेशा जुटी रहती है।

अब बच्चों से केवल दौड़ने की उम्मीद की जाती है—कभी अंक की दौड़ में, कभी विषयों की दौड़ में, और कभी स्कूल की विभिन्न परीक्षाओं में। ऐसी व्यवस्था में तो बच्चों के लिए मासूमियत का कोई स्थान ही नहीं बचा! किसे परवाह है कि कुछ बच्चों का दिल किताबों में नहीं, बल्कि कला, संगीत, या खेल में बसता है? क्या हम यह भूल ही गए हैं कि सबसे मूल्यवान शिक्षा केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं होती?

हमारी शिक्षा प्रणाली का मौजूदा ढांचा भी बच्चों को मानसिक रूप से थका देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। पाठ्यक्रम का भार ऐसा है कि बच्चा खुद को दौड़ में बनाए रखने के लिए जान लगाने पर मजबूर है।  आज की शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों के प्राकृतिक विकास की अवधारणा को पूरी तरह नकार दिया है। इसे और अधिक बेरहम बनाते हैं वो 'आदर्श शिक्षक' जो खुद भी इस प्रक्रिया का हिस्सा बन चुके हैं।   समय आ चुका है कि बचपन के इस 'कठपुतली शो' को रोकने की जरूरत है। अगर हम वाकई बच्चों के हित में काम करना चाहते हैं, तो उनकी मासूमियत, उनके खेल, और उनके प्राकृतिक विकास को हमें प्राथमिकता देनी होगी।


✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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