शिक्षा या व्यापार: जब फीस बन जाए निजी स्कूलों  में प्रवेश की शर्त, जानिए! सरकारी स्कूल क्यों हैं जरूरी? 


"बन जाएं अगर इल्म का कारोबार,  
वंचितों के हिस्से में आएगा अंधकार।"


शिक्षा, एक ऐसा क्षेत्र जिसे समाज का आधार कहा जाता है, अब निजीकरण और व्यापार की जकड़ में फंसता जा रहा है। निजी स्कूल शिक्षा को एक व्यवसाय की तरह चलाते हैं, जहाँ फीस भुगतान का सीधा संबंध प्रवेश और सुविधाओं से होता है। 


देश की शिक्षा व्यवस्था के भीतर एक गंभीर विडंबना उभर कर सामने आई है, जहाँ फीस न जमा होने पर मासूम बच्चों को स्कूल से बाहर निकाल दिया जाता है। हाल ही में एक दिल दहला देने वाली घटना ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या शिक्षा अब केवल अमीरों के लिए रह गई है? एक निजी स्कूल के प्रबंधन ने फीस जमा न करने पर कई बच्चों को स्कूल के बाहर बिठा दिया, मानो शिक्षा कोई खरीदी जाने वाली वस्तु हो। इन मासूम चेहरों पर निराशा और असहायता साफ झलक रही थी, जैसे उनके सपनों को दबा दिया गया हो।


जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम हर बच्चे को शिक्षा का हक देता है, तो यह असंवेदनशीलता क्यों? क्या निजी स्कूल मुनाफे के लिए बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं? यह घटना सिर्फ फीस का मामला नहीं है, बल्कि उन लाखों गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए एक धक्का है, जो अपने बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस एक घटना ने शिक्षा के निजीकरण की कड़वी सच्चाई उजागर कर दी है, और यह सवाल छोड़ गई है कि अगर यही हाल रहा, तो समाज के कमजोर वर्गों के लिए शिक्षा का सपना कब पूरा होगा?


निजी स्कूलों में बढ़ती फीस और महंगे संसाधनों के कारण गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए अपने बच्चों को शिक्षित करना एक सपने के समान हो गया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) इस बात की गारंटी देता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त होगी, लेकिन निजी स्कूलों का यह व्यवसाय इस अधिनियम का मखौल उड़ा रहा है। शिक्षा का अधिकार केवल कानून तक सीमित हो गया है, क्योंकि जब फीस की बात आती है, तो गरीब बच्चों के लिए इन स्कूलों के दरवाजे बंद हो जाते हैं।


निजी स्कूलों का उदय मुख्यतः गुणवत्ता और सुविधाओं के नाम पर हुआ। ये स्कूल बेहतर शिक्षा का वादा करते हैं, लेकिन उनकी प्राथमिकता मुनाफा है। निजी स्कूलों का मानना है कि जितनी अधिक फीस, उतनी अच्छी शिक्षा। परंतु, यह धारणा केवल उन बच्चों के लिए सही हो सकती है जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से संपन्न हैं। दूसरी ओर, गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए यह शिक्षा दूर की कौड़ी बन जाती है। अमीरों के बच्चों को भले ही अत्याधुनिक तकनीक और सुविधाएं मिल रही हों, लेकिन अगर वे फीस देने में असमर्थ होते हैं, तो उन्हें भी शिक्षा से वंचित होना पड़ता है। इससे स्पष्ट होता है कि यह प्रणाली गरीब और मध्यम वर्ग को बाहर धकेल रही है।


सरकारी विद्यालय, जो समाज के वंचित और गरीब वर्ग के लिए शिक्षा का एकमात्र माध्यम हैं, आज पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। जब समाज के हर बच्चे को समान शिक्षा की बात होती है, तो सरकारी विद्यालय इसका आधार बनते हैं। ये विद्यालय शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसमें फीस का कोई स्थान नहीं होता। गरीब परिवारों के बच्चे यहाँ शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, जो भविष्य में उन्हें बेहतर अवसर प्रदान करने की क्षमता रखती है।


सरकारी विद्यालयों का अस्तित्व न केवल शिक्षा के मौलिक अधिकार की रक्षा करता है, बल्कि यह समाज में समानता और न्याय की भावना को भी बढ़ावा देता है। ये विद्यालय इस विचार को पुष्ट करते हैं कि शिक्षा एक अधिकार है, न कि एक सेवा जिसे खरीदा जा सके।


शिक्षा का अधिकार अधिनियम इस बात पर जोर देता है कि हर बच्चे को समान रूप से शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। परंतु निजी स्कूलों में बढ़ती फीस ने इस अधिनियम की नींव को हिलाकर रख दिया है। अगर सरकारी विद्यालय नहीं होंगे, तो गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं बचेगा। सरकारी विद्यालय इन बच्चों के लिए न केवल शिक्षा का साधन हैं, बल्कि यह एक उम्मीद की किरण भी हैं जो उनके भविष्य को उज्जवल बनाने की दिशा में काम करती है।


जब हम सोचते हैं कि निजी स्कूलों में अमीर बच्चों का यह हाल है, तो हम केवल कल्पना कर सकते हैं कि अगर सरकारी विद्यालय नहीं होंगे, तो गरीब बच्चों का भविष्य कैसा होगा। शिक्षा का अधिकार अधिनियम तब केवल कागजों पर रह जाएगा, और समाज का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा से वंचित रह जाएगा।


शिक्षा, एक मौलिक अधिकार होने के बावजूद, अब व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। निजी स्कूलों की फीस नीति और व्यावसायिक दृष्टिकोण ने गरीबों को शिक्षा से वंचित कर दिया है। ऐसे में सरकारी विद्यालय ही एकमात्र सहारा हैं, जो शिक्षा को सुलभ और न्यायसंगत बना सकते हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जब तक सरकारी विद्यालयों का अस्तित्व मजबूत नहीं होगा। इन विद्यालयों की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है, क्योंकि यह समाज के वंचित और गरीब वर्ग के बच्चों को समान शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है।

"अगर बंद हुए सरकारी स्कूलों के दर,  
तो शिक्षा के आकाश में आएगा अंधेर।"


✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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