क्या चुनिंदा स्कूलों को आदर्श घोषित करने, गोद लेने या अधिक सुविधाओं से लैस करने से बदलेंगे सभी स्कूलों के हालात?
"हर बच्चे के सपनों का हक़ बराबर है,
क्यों कुछ ही स्कूलों का तक़दीर में हिस्सा हो?"
क्यों कुछ ही स्कूलों का तक़दीर में हिस्सा हो?"
भारत की शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए कई नवाचारी प्रयास समय-समय पर किए जाते रहे हैं। इनमें से एक प्रमुख विचारधारा यह है कि चुनिंदा स्कूलों को आदर्श घोषित करके या कुछ स्कूलों को गोद लेकर शिक्षा के स्तर में सुधार किया जा सकता है। यह सोच इस पर आधारित है कि अगर कुछ विशेष स्कूलों को आधुनिक सुविधाएं दी जाएं और उन्हें उन्नत शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित किया जाए, तो वे अन्य स्कूलों के लिए उदाहरण बनेंगे और उनके माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा। लेकिन क्या यह वाकई सभी स्कूलों और छात्रों की जरूरतों को पूरा करने का रास्ता है?
सबसे पहले, यह दृष्टिकोण असमानता की भावना को जन्म देता है। जब केवल कुछ स्कूलों को विशेष ध्यान दिया जाता है, तो शेष स्कूलों और वहां पढ़ने वाले बच्चों को अनदेखा कर दिया जाता है। इससे एक प्रकार का भेदभाव उत्पन्न होता है, जहां कुछ स्कूलों को बेहतर सुविधाएं और संसाधन मिलते हैं, जबकि अन्य स्कूल इनसे वंचित रह जाते हैं। क्या यह तरीका वास्तव में समान अवसरों की दिशा में काम करता है? नहीं, बल्कि यह असमानता को और गहरा करता है।
भारत जैसे विशाल देश में शिक्षा सुधार के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है। केवल चुनिंदा स्कूलों को आदर्श घोषित करने से समग्र शिक्षा प्रणाली में सुधार नहीं हो सकता। देश के अधिकतर स्कूल आज भी बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। चाहे वह पीने के पानी की व्यवस्था हो, पर्याप्त शिक्षक हों या बुनियादी शिक्षण संसाधन, इन समस्याओं का सामना सभी स्कूलों को करना पड़ता है। ऐसे में कुछ विशेष स्कूलों को गोद लेना या उन्हें सुविधाओं से सुसज्जित करना बाकी स्कूलों की वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज करने के समान है।
अगर सचमुच में शिक्षा में सुधार करना है, तो सरकार और नीति-निर्माताओं को एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, जो हर स्कूल तक पहुंचे। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत सभी बच्चों को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का अधिकार है। यह केवल चुनिंदा स्कूलों पर ध्यान केंद्रित करके नहीं किया जा सकता। बल्कि, सभी स्कूलों को समान सुविधाएं और संसाधन उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। तभी जाकर सभी बच्चों को समान अवसर मिलेंगे और शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार होगा।
नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि वे उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान कर सकें। लेकिन इतने सालों के बाद भी इन स्कूलों की सुविधाएं बाकी सरकारी स्कूलों तक नहीं पहुंच पाई हैं। इससे साफ होता है कि समस्या बजट की कमी नहीं, बल्कि नीतिगत सोच की कमी है। अगर सरकार चाहे तो चरणबद्ध तरीके से सभी स्कूलों को समान सुविधाएं दे सकती है, लेकिन इसके लिए एक ठोस राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।
चुनिंदा स्कूलों को आदर्श घोषित करना या गोद लेना केवल समस्या की जड़ को नजरअंदाज करने का एक तरीका है। असली समस्या यह है कि देश के अधिकांश स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है, और इस पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है। हमें एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है, जहां हर बच्चा समान अवसरों के साथ शिक्षा प्राप्त कर सके, चाहे वह किसी भी स्कूल में पढ़ता हो।
इसलिए, चुनिंदा स्कूलों को आदर्श घोषित करने या गोद लेने से शिक्षा के समग्र स्तर में कोई वास्तविक सुधार नहीं हो सकता। इसके बजाय, हमें हर स्कूल को एक आदर्श स्कूल बनाने के लिए काम करना चाहिए। जब तक हर बच्चा समान सुविधाओं और अवसरों के साथ शिक्षा प्राप्त नहीं करेगा, तब तक शिक्षा का असली उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
"सभी स्कूल हों एक से, हो यही हमारा मान,
तभी बनेगी शिक्षा में सही सुधार की पहचान।"
तभी बनेगी शिक्षा में सही सुधार की पहचान।"
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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