अपने ही वेतन के लिए कोर्ट कचहरी में सालों दौड़ते शिक्षकों का दर्द समझने की जरूरत
मगर मेहनत की कीमत भी मिलनी लाज़मी है!"
शिक्षक, समाज का वह स्तंभ है जो अपने कंधों पर ज्ञान की नींव रखता है, लेकिन जब उसी शिक्षक को अपने अधिकार के लिए सालों तक लड़ाई लड़नी पड़े, तो यह व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठाता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक शिक्षक की कहानी सामने आई जिसने 26 वर्षों तक अपने बकाया वेतन के लिए संघर्ष किया। यह मामला सिर्फ किसी एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि उन तमाम शिक्षकों की व्यथा है, जो अधिकारियों की लापरवाही और नौकरशाही के तंत्र में फंसकर अपने अधिकारों से वंचित होते रहे हैं।
अभी हाल ही में, एक शिक्षक को हाईकोर्ट द्वारा उसके बकाया वेतन के साथ-साथ 88 लाख रुपये का ब्याज भी देने का आदेश हुआ। यह आदेश उन अधिकारियों के लिए एक चेतावनी है जो सरकारी तंत्र में देरी और लापरवाही का शिकार बनाते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सरकार की वित्तीय स्थिति चाहे जो हो, कानून की व्याख्या सरकार की सुविधा अनुसार नहीं की जा सकती।
सोचिए, एक शिक्षक जिसने पूरी निष्ठा और समर्पण से अपनी सेवा दी, उसे अपने अधिकार के लिए 26 साल तक इंतजार करना पड़ा। न्यायालय ने इस शिक्षक को राहत देते हुए यह संदेश दिया कि सरकार को अपने कर्तव्यों से भागने का कोई अधिकार नहीं है। एक साधारण इंसान, जो समाज के लिए अटूट सेवा करता है, उसे इस प्रकार की प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है, यह बेहद दुखद है।
ऐसा नहीं है कि यह मामला पहली बार हुआ है। 2022 में भी चार शिक्षकों को 31 साल बाद अपना बकाया वेतन मिला, जिसमें उच्च न्यायालय ने अधिकारियों की लापरवाही पर 5 लाख का जुर्माना भी लगाया। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि सरकारी तंत्र में बैठे जिम्मेदार अधिकारी अपने कार्यों के प्रति कितने लापरवाह हो सकते हैं।
शिक्षक, जो समाज के बच्चों का भविष्य संवारने में दिन-रात मेहनत करता है, उसे अगर इस तरह से मानसिक और आर्थिक यातनाओं से गुजरना पड़े, तो यह किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है। यह घटना हमें बताती है कि व्यवस्था में सुधार की कितनी सख्त जरूरत है।
हर शिक्षक अपनी मेहनत और परिश्रम के बदले न केवल वेतन की उम्मीद करता है, बल्कि सम्मान की भी अपेक्षा रखता है। जब उन शिक्षकों को सालों तक उनका हक नहीं मिलता, तो यह सिर्फ आर्थिक नुकसान नहीं होता, बल्कि उनके आत्म-सम्मान को भी ठेस पहुँचती है। इस दौरान शिक्षक मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी संघर्ष करते हैं। यह पीड़ा उनकी सेवा की गरिमा को कम करती है।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसे मामलों में सिर्फ शिक्षक ही नहीं, उनके परिवार वाले भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। बच्चे की शिक्षा, परिवार की जरूरतें, और सामाजिक दायित्व – ये सभी उस शिक्षक के ऊपर भारी बोझ बनकर गिरते हैं।
हाईकोर्ट के इस आदेश से एक उम्मीद की किरण जरूर जगी है कि शिक्षक अब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए अकेले नहीं हैं। यह फैसला उन तमाम शिक्षकों के लिए एक मिसाल है जो इसी तरह के मामलों में पीड़ित हैं। लेकिन यह भी आवश्यक है कि ऐसे आदेशों का तत्काल और सख्ती से पालन किया जाए।
यह समय है कि सरकार और उसके अधिकारी इस तरह की देरी और लापरवाही को समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाएं। शिक्षकों को केवल वेतन नहीं, बल्कि उनका सम्मान भी लौटाने की आवश्यकता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो यह हमारे शिक्षा तंत्र पर गंभीर असर डालेगा और भविष्य में कई और शिक्षक अपने अधिकारों से वंचित रहेंगे।
अंततः, यह जिम्मेदारी सिर्फ अदालतों की नहीं, बल्कि सरकार और समाज की भी है कि वे शिक्षकों को उनका हक और सम्मान दिलाने में अपनी भूमिका निभाएं। शिक्षक केवल वेतन पाने का हक नहीं रखते, बल्कि वे उस आदर और कृतज्ञता के भी पात्र हैं, जो वे समाज को अपने सेवा से लौटाते हैं।
"शिक्षक का मान है शिक्षा का सम्मान,
वेतन हो या न्याय, हो उसका सम्मान।"
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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