आज की शिक्षा व्यवस्था में डिजिटलीकरण के नाम मोबाइल पर आश्रित होता समाज और शासन


"तकनीक ने छीनी बचपन की मिठास,
किताबों से दूर और मोबाइल की आस।"


आज की शिक्षा व्यवस्था में मोबाइल का बढ़ता प्रभाव चिंता का विषय बन चुका है, विशेषकर देश के निजी स्कूलों में। एक समय था जब होमवर्क और सूचनाएं बच्चों की डायरी में लिखी जाती थीं, जिससे वे न केवल पढ़ाई की जिम्मेदारी समझते थे बल्कि डायरी में नोट किए गए कार्य उनके लिए एक नियमित प्रक्रिया थी। लेकिन अब वह दौर बदल चुका है। प्राइवेट स्कूलों ने डायरी की जगह मोबाइल और व्हाट्सऐप ग्रुप्स को दे दी है, जिसके परिणामस्वरूप बच्चों की शिक्षा का स्वरूप और उनकी मानसिक व शारीरिक स्थिति बदल रही है।

आज अधिकतर प्राइवेट स्कूलों में हर कक्षा के लिए व्हाट्सऐप ग्रुप बनाए गए हैं, जिनमें एक क्लिक में होमवर्क, असाइनमेंट और अन्य सूचनाएं भेज दी जाती हैं। यह प्रक्रिया भले ही स्कूल प्रशासन और शिक्षकों के लिए आसान हो गई हो, लेकिन इसका बोझ अभिभावकों पर पड़ रहा है। उन्हें अपने बच्चों को मजबूरी में मोबाइल थमाना पड़ता है, क्योंकि हर जानकारी अब मोबाइल पर ही उपलब्ध होती है। इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा नकारात्मक असर बच्चों की सेहत और मानसिक विकास पर हो रहा है।


मोबाइल के प्रयोग से बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर

शिक्षा का माध्यम तेजी से बदल रहा है। डिजिटल युग में अब बच्चों के होमवर्क, असाइनमेंट और सूचनाएं मोबाइल फोन के जरिए दी जा रही हैं। देश के निजी स्कूलों में डायरी की जगह मोबाइल ने ले ली है, जो एक बड़ी चिंता का विषय है। अब अभिभावकों और बच्चों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

बच्चों को मोबाइल थमाने की मजबूरी केवल तकनीकी सुविधा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी मानसिक और शारीरिक सेहत पर भी हो रहा है। स्कूलों के इस कदम ने अभिभावकों को विवश कर दिया है कि वे अपने बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल करने दें, जिससे उनकी सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

अभिभावकों के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे अपने बच्चों में होने वाले स्वास्थ्य परिवर्तन को पहचान नहीं पा रहे हैं। मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार, बढ़ते स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों की एकाग्रता क्षमता घट रही है, जिससे उनकी पढ़ाई पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। पहले जहां बच्चे डायरी में लिखे हुए को आसानी से याद कर लेते थे, अब मोबाइल पर दी गई जानकारी के कारण वे याद करने में असमर्थ हो रहे हैं। यह समस्या 3 से 17 साल तक के बच्चों में देखी जा रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, स्क्रीन पर अधिक समय बिताने से बच्चों के बर्ताव और संवाद में भी बदलाव आ रहा है। 

6 से 12 साल की उम्र के बच्चे अब एडिक्टिंग बिहेवियर का शिकार हो रहे हैं, जिसमें वे सोशल मीडिया या वीडियो देखने के बिना नहीं रह पाते। इसके अलावा, 12 साल से अधिक उम्र के बच्चों में पहचान संकट शुरू हो रहा है, जिससे वे अवसाद और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो रहे हैं। यह समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि कुछ बच्चे डिप्रेशन में भी जा रहे हैं।



अभिभावकों की मजबूरी और स्कूलों की लापरवाही

"दीवारें बना रही हैं स्क्रीन की धुंध,
बचपन को लौटा दो कागज की सुगंध।"

अभिभावक भी इस स्थिति से जूझ रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे डिजिटल युग में पीछे न रहें, लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यही तकनीक उनके बच्चों के भविष्य को प्रभावित कर रही है। उन्हें न चाहते हुए भी बच्चों को मोबाइल देना पड़ रहा है, जिससे स्क्रीन टाइम बढ़ता जा रहा है।

स्कूलों की लापरवाही यह है कि वे बच्चों के विकास को नजरअंदाज कर रहे हैं। कुछ स्कूल प्रशासन इसे समय और श्रम की बचत का जरिया मानते हैं, लेकिन असल में यह बच्चों के भविष्य को दांव पर लगा रहा है।


स्कूलों और अभिभावकों की जिम्मेदारी

स्कूलों द्वारा मोबाइल पर होमवर्क भेजना शिक्षकों के लिए भले ही सुविधाजनक हो, लेकिन इससे बच्चों की शारीरिक और मानसिक सेहत पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में यह स्कूलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे डिजिटल माध्यमों का उपयोग कम करें और अभिभावकों को यह सुनिश्चित करने के लिए जागरूक करें कि वे मोबाइल की बजाय प्रिंटेड सामग्री का उपयोग करें। 

अभिभावकों को भी चाहिए कि वे मोबाइल पर मिलने वाले असाइनमेंट्स का प्रिंट निकालकर बच्चों को दें ताकि बच्चे कम से कम स्क्रीन का उपयोग करें। मोबाइल का बढ़ता उपयोग बच्चों को सीखने से ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। यह अभिभावकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों के स्क्रीन टाइम को नियंत्रित करें और उन्हें ज्यादा से ज्यादा बाहरी गतिविधियों में शामिल करें।


निष्कर्ष

देश के निजी स्कूलों में मोबाइल के बढ़ते उपयोग पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह सही है कि डिजिटल युग में तकनीक का उपयोग अपरिहार्य है, लेकिन इसका सही और सीमित उपयोग ही बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उचित होगा। स्कूलों को मोबाइल का प्रयोग कम करना चाहिए और पारंपरिक शिक्षण विधियों की ओर लौटना चाहिए। अभिभावकों को भी अपने बच्चों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उन्हें ज्यादा समय स्क्रीन के बजाय किताबों और खेलों में बिताने के लिए प्रेरित करना चाहिए। केवल इसी तरह हम अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं और उन्हें बीमारियों और मानसिक तनाव से दूर कर सकते हैं।

इल्म तो जरूरी है पर सेहत का भी ख्याल रखना,  
मशीनें कहां सिखाएंगी दिल और दिमाग का हाल रखना?



✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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