शिक्षा में एकरूपता बनाम विविधता : एक देश एक पाठ्यक्रम और एक स्कूल का नारा कितना व्यावहारिक? 


"सबको एक राह पर चलाने की जिद है बहुत,
पर मंज़िलें जुदा हैं, ये समझने की बात है।"


आज जब हम एक देश, एक संविधान और एक चुनाव की अवधारणा पर बात करते हैं, तो सवाल उठता है कि क्या हमें "एक देश, एक पाठ्यक्रम" और "एक देश, एक तरह के स्कूल" की आवश्यकता है? शिक्षा से जुड़े होने के नाते अंतिम दो मुद्दों पर समाज और शिक्षा विशेषज्ञों के बीच गंभीर चर्चा होनी चाहिए।  


वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में 'एक देश, एक पाठ्यक्रम' और 'एक तरह के स्कूल' की मांग एक महत्वपूर्ण बहस का मुद्दा बन गया है। भारत जैसे विविधता वाले देश में शिक्षा प्रणाली के क्षेत्र में समानता का विचार स्वागत योग्य है, लेकिन क्या यह व्यावहारिक है या समाज के लिए लाभदायक?

शुरुआत करते हैं ‘एक देश, एक पाठ्यक्रम’ की बात से। विचार के अनुसार, देशभर में सभी स्कूलों के लिए एक ही पाठ्यक्रम लागू किया जाए ताकि बच्चों को समान अवसर मिलें और ज्ञान का स्तर हर जगह एक जैसा हो। यह सुनिश्चित करता है कि चाहे बच्चा किसी भी राज्य या क्षेत्र से हो, उसे समान शिक्षा मिल रही है। इससे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी एक समान स्तर पर हो सकेगी, जिससे अवसरों में भेदभाव कम होगा।

लेकिन क्या यह विविधता के विरुद्ध नहीं जाता? हर राज्य और क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक, भाषाई, और ऐतिहासिक पहचान है, जिसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना आवश्यक है। 'एक देश, एक पाठ्यक्रम' का विचार इन विशिष्टताओं को हटाकर एकरूपता को थोपने जैसा हो सकता है। शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान देना नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति की समझ भी देना है। स्थानीय मुद्दे और सांस्कृतिक विविधताएं भी शिक्षा का हिस्सा होनी चाहिए, ताकि बच्चे अपनी जड़ों को समझ सकें।

हर राज्य और क्षेत्र की अपनी समस्याएं, विशेषताएं और ज़रूरतें होती हैं। यदि हम एक ही पाठ्यक्रम पर जोर देंगे, तो क्या हम उन छात्रों को पीछे नहीं छोड़ देंगे जिनकी स्थानीय समस्याएं और अनुभवों पर आधारित शिक्षा की जरूरत है? पाठ्यक्रम का केंद्रीयकरण छात्रों को स्थानीय समस्याओं और अवसरों से वंचित कर सकता है, जो उनकी वास्तविक जीवन की चुनौतियों का समाधान निकालने में सहायक हो सकता है।

अब बात करते हैं ‘एक तरह के स्कूल’ की। इसका उद्देश्य सभी बच्चों को एक समान शैक्षिक अवसर प्रदान करना है। सरकार द्वारा संचालित और निजी स्कूलों के बीच आज भी भारी अंतर देखा जाता है। निजी स्कूल सुविधाओं और गुणवत्ता में आगे रहते हैं, जबकि सरकारी स्कूल कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। ‘एक तरह के स्कूल’ का उद्देश्य इस असमानता को खत्म करना है। यदि हर बच्चा एक समान संसाधन और अवसरों के साथ शिक्षा ग्रहण करेगा, तो समाज में वर्गभेद भी कम होगा।

निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों के बीच का अंतर शिक्षा के अवसरों में असमानता को दर्शाता है। इस असमानता को खत्म करना आवश्यक है, लेकिन 'एक तरह के स्कूल' की अवधारणा के पीछे छिपी वास्तविकता यह हो सकती है कि यह रचनात्मकता और विविधता को समाप्त कर देगी। क्या हर बच्चा एक ही प्रकार की शिक्षा प्रणाली में फिट बैठ सकता है? क्या छात्रों की अलग-अलग सीखने की शैलियों और रुचियों के लिए कोई जगह होगी?

लेकिन यहां भी व्यावहारिक समस्याएं हैं। पूरे देश में एक जैसी सुविधाओं वाले स्कूल स्थापित करना आसान नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी और शहरी क्षेत्रों में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा इस विचार को लागू करने में बाधा डाल सकती है। इसके अलावा, निजी स्कूलों की भूमिका और उनके योगदान को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।


एकरूपता का पक्ष: समानता का प्रतीक
"एक देश, एक पाठ्यक्रम" की अवधारणा कुछ हद तक समानता की बात करती है। यह सुनिश्चित कर सकता है कि चाहे बच्चा किसी भी राज्य, किसी भी भाषा, या किसी भी क्षेत्र से हो, उसे समान स्तर की शिक्षा मिल सके। इसके समर्थक मानते हैं कि इससे पूरे देश में शिक्षा का स्तर समान होगा और इससे सामाजिक व आर्थिक असमानता को कम करने में मदद मिल सकती है। साथ ही, "एक देश, एक तरह के स्कूल" के माध्यम से सरकारी और निजी स्कूलों के बीच की खाई को भी पाटा जा सकता है। इससे बच्चों को एक समान वातावरण और सुविधाएँ मिलेंगी।


विविधता का पक्ष : स्थानीय ज़रूरतों की अनदेखी
हालांकि, एक ही पाठ्यक्रम पूरे देश के लिए उपयुक्त हो सकता है, यह स्थानीय ज़रूरतों और विभिन्न संस्कृतियों की अनदेखी कर सकता है। हर राज्य, क्षेत्र और समुदाय की अपनी विशिष्ट ज़रूरतें और परंपराएँ होती हैं, जिन्हें एकरूप पाठ्यक्रम से नकारा नहीं जा सकता। विविधता ही हमारे देश की ताकत है, और शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि सोचने और समझने की क्षमता विकसित करना भी है। अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों की आवश्यकता होती है ताकि बच्चों को उनकी पृष्ठभूमि और जरूरतों के अनुसार शिक्षित किया जा सके।  

क्या एकरूपता से समस्या हल होगी?
"एक देश, एक पाठ्यक्रम" या "एक देश, एक स्कूल" की योजना, पहली नजर में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसके दीर्घकालिक परिणाम व्यापक और विविध हो सकते हैं। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को सोचने, सवाल करने, और सृजनात्मक बनने की क्षमता देना है। अगर हम शिक्षा प्रणाली को एकसमान रूप में ढालते हैं, तो क्या हम बच्चों की सृजनशीलता और सोचने की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करेंगे?


निष्कर्ष
समानता आवश्यक है, परंतु विविधता को अनदेखा करना हमारे देश के शैक्षिक और सामाजिक ढांचे को कमजोर कर सकता है। एक ही पाठ्यक्रम या स्कूल प्रणाली शायद कुछ समस्याओं को हल कर सकती है, लेकिन यह सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ समाधान नहीं हो सकता।  'एक देश, एक पाठ्यक्रम' और 'एक तरह के स्कूल' का विचार अच्छा हो सकता है, लेकिन इसे लागू करने से पहले इसकी व्यावहारिकता और प्रभावों पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। देश की सांस्कृतिक विविधता और शैक्षिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए ही कोई भी निर्णय लिया जाना चाहिए।

"समानता का सपना है बहुत खूबसूरत,
पर विविधता में ही असली पहचान होगी।"



✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

Post a Comment

 
Top