अगर हम चाहते हैं कि शिक्षक अपने छात्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ दे सकें, तो हमें भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ देना होगा—समय, सम्मान और मानसिक शांति


"थकान में डूबे हैं पर मुस्कान अभी बाकी है,
शिक्षा के समंदर में मल्लाह की जान अभी बाकी है।
"

आजकल के शिक्षक, जिन्हें कभी आदर्श और मार्गदर्शक माना जाता था, अब एक नई भूमिका निभा रहे हैं – "पार्ट-टाइम ब्योरोक्रेट" और "फुल-टाइम बोझ-ढोने वाले"! शिक्षण तो जैसे अब उनका 'साइड जॉब' बन गया है, असली काम तो सरकारी योजनाओं का आंकड़ा संकलन करना और प्रशासनिक मसलों का निपटारा करना है। क्या कहें, अब ये शिक्षा नहीं, बल्कि शिक्षा-शासकीय-प्रबंधन' का खेल हो गया है!

कॉरपोरेट जगत का काम का दबाव अब क्लासरूम की दीवारों को तोड़कर स्कूलों तक पहुंच गया है। किसी जमाने में कंपनियों के कर्मचारियों पर "अधिक उत्पादन" का दबाव होता था, पर अब शिक्षा विभाग भी वही नीति अपनाने में जुटा है। शिक्षक, जो कभी छात्रों के भविष्य निर्माण में व्यस्त रहते थे, अब आंकड़ों की दौड़ में ही उलझे पड़े हैं। परिणाम? एक तरफ शिक्षक खुद 'कंट्रोल+C, कंट्रोल+V' मोड में आ गए हैं, और दूसरी तरफ शिक्षा की गुणवत्ता भी जैसे "लोडिंग..." पर अटकी हुई है।


आज के समय में शिक्षक एक ऐसे पेशे से जुड़े हुए हैं, जो समाज की नींव तैयार करने का काम करता है। लेकिन दुखद बात यह है कि आज वही शिक्षक कार्य-जीवन असंतुलन से जूझ रहे हैं। यह स्थिति पहले केवल कॉरपोरेट जगत में देखी जाती थी, लेकिन अब शिक्षा के क्षेत्र में भी यही समस्या उत्पन्न हो रही है। शिक्षकों पर केवल शिक्षण का ही नहीं, बल्कि तमाम तरह के प्रशासनिक कार्यों और सरकारी योजनाओं का बोझ भी डाला जा रहा है। इस बोझ ने शिक्षकों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को गहरा आघात पहुंचाया है, और उनके व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित किया है। 

कॉरपोरेट जगत में कर्मचारियों पर अधिक उत्पादन का दबाव होता है। इसी तर्ज पर शिक्षा विभाग भी शिक्षकों पर परिणामों को प्राथमिकता दे रहा है, जिससे उनके ऊपर अतिरिक्त दबाव और काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। शिक्षकों से पाठ्यक्रम के अलावा विभिन्न सर्वेक्षणों और योजनाओं के आंकड़े जुटाने जैसे कार्य भी कराए जा रहे हैं, जो उनके तनाव का प्रमुख कारण बनते जा रहे हैं। 


सामाजिक अलगाव और मानसिक तनाव

जब एक शिक्षक अपनी क्लास खत्म करता है, तो सोचा जाता है कि अब उसे राहत मिलेगी, लेकिन नहीं! सोशल मीडिया पर ‘ऑलवेज ऑन’ की संस्कृति ने जैसे शिक्षकों को "हर वक्त काम पर रहो" की मानसिकता में ढकेल दिया है। ऐसे में बेचारे शिक्षक, छुट्टी के दिन भी सोचते हैं, "कहीं अब कोई रिपोर्ट जमा करनी तो नहीं?"। सामाजिक जीवन? हाँ, वो भी है, पर केवल 'नियमों और सूचनाओं' से भरा हुआ!

शिक्षकों को लगातार काम के दबाव के चलते सामाजिक अलगाव का सामना करना पड़ रहा है। यह स्थिति न केवल उनके सहकर्मियों से संवाद में बाधा उत्पन्न करती है, बल्कि छात्रों के साथ भी उनके संबंधों को प्रभावित कर रही है। अपने काम को समय पर पूरा करने के प्रयास में, वे सहकर्मियों से दूर हो जाते हैं, जिससे उनमें मानसिक थकान और भावनात्मक असंतुलन बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप, शिक्षक न केवल अपनी पेशेवर जिम्मेदारियों से जूझते हैं, बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी तनाव का सामना करते हैं।

इस प्रकार की स्थिति में, शिक्षकों की कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है। वे अपने काम में सृजनात्मकता और आनंद की जगह बोझ महसूस करते हैं। भावनात्मक और सामाजिक समर्थन की कमी से उनका मानसिक स्वास्थ्य कमजोर हो जाता है, और यह असंतुलन धीरे-धीरे उनके पेशेवर जीवन के साथ-साथ उनके निजी जीवन पर भी नकारात्मक असर डालता है।


काम के घंटों की धुंधली सीमाएं

कभी 9 से 5 तक की नौकरी का सपना देखने वाले शिक्षक अब "9 से 9 और कभी भी" की जिंदगी जी रहे हैं। दिन में स्कूल, रात में रिपोर्ट और फिर व्हाट्सएप की घंटी जैसे जीवन का नया संगीत बन गया है। हफ्ते भर की थकान के बाद वीकेंड पर आराम करना भी अब शिक्षक के लिए किसी 'लग्जरी' से कम नहीं। 

सोचिए, जब शिक्षकों को हर वक्त रिपोर्ट्स, प्लानिंग और आंकड़े संकलित करने में लगाया जाएगा, तो छात्रों के भविष्य का क्या होगा? असल में, आजकल का शिक्षक अपने निजी जीवन को स्कूल के बाहर कहीं भूल सा आया है। जैसे ही छुट्टी की घंटी बजती है, उनके दिमाग में कोई न कोई प्रशासनिक टास्क आ धमकता है।

आज के डिजिटल युग में, तकनीक और ऑनलाइन माध्यमों ने कार्य-जीवन संतुलन को और अधिक धुंधला कर दिया है। पहले शिक्षकों का काम कक्षा तक सीमित होता था, लेकिन अब उन्हें कक्षा के बाहर भी काम करने की जरूरत होती है। ऑनलाइन रिपोर्टिंग, सरकारी योजनाओं का डेटा संकलन, और अन्य प्रशासनिक कामों ने उनकी दिनचर्या को इतना व्यस्त कर दिया है कि उनके पास अपने लिए समय नहीं बचता। 

शिक्षकों को सप्ताहांत पर या अवकाश के दिनों में भी काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। इस स्थिति में उनके निजी समय का सम्मान नहीं किया जाता, जिससे उनके जीवन में असंतुलन बढ़ जाता है। उन्हें न केवल शिक्षण, बल्कि प्रशासनिक कामों और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों का भी बोझ उठाना पड़ता है। 


मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी

स्कूलों और विभागों में तनाव को लेकर चर्चा करना जैसे 'गुनाह' हो गया है। कोई मंच नहीं है, कोई सहयोग नहीं है, और सबसे बड़ी बात, कोई समझने वाला नहीं है। ऐसे में शिक्षक किससे कहें कि वे मानसिक थकान से गुजर रहे हैं? तनाव और बर्नआउट की समस्या अब इतनी आम हो गई है कि इसे नॉर्मल समझ लिया गया है। स्कूलों की ये हालत है कि अगर शिक्षक कहे, "मुझे मदद की जरूरत है", तो जवाब मिलता है, "हमें भी!"

अब भला कहां जाएं शिक्षक? मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर तो जैसे पूरे ताले डाल दिए गए हैं, और उस ताले की चाबी कहीं सरकारी योजनाओं के फाइलों में गुम हो गई है।

शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति स्कूलों और शिक्षा विभागों की उदासीनता एक गंभीर समस्या बन चुकी है। तनाव और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर खुलकर चर्चा के लिए कोई मंच नहीं है, जिससे शिक्षक अपने तनाव को खुद तक सीमित रखते हैं। यह स्थिति धीरे-धीरे उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालती है, जिससे बर्नआउट की समस्या उत्पन्न होती है। बर्नआउट की स्थिति में शिक्षक न केवल थके हुए महसूस करते हैं, बल्कि उनके काम की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। 

इस समस्या को हल करने के लिए शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है। उन्हें मानसिक और भावनात्मक समर्थन की जरूरत है, जिससे वे अपने काम के दबाव को बेहतर तरीके से संभाल सकें। 


कार्य-जीवन संतुलन की आवश्यकता

अब यह बात स्पष्ट है कि शिक्षकों को राहत देने का समय आ गया है। सप्ताह में पाँच दिन का कार्य सप्ताह लागू करने का वक्त आ गया है, ताकि शिक्षक अपने लिए भी समय निकाल सकें। और हां, ये 'वीकेंड में काम मत करो' की नीति भी लागू होनी चाहिए, वरना रविवार की छुट्टी केवल एक फैंटेसी बन कर रह जाएगी।

"डिस्कनेक्ट करने का अधिकार"—क्या शानदार विचार है! शिक्षक काम के बाद काम से जुड़े किसी भी संचार से मुक्ति पा सकें, यह भी किसी सपने से कम नहीं होगा।

समाधान के रूप में, कार्य-जीवन संतुलन की नीतियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। जर्मनी और स्वीडन जैसे देशों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। भारत के शिक्षा क्षेत्र में भी इस तरह के मॉडल को अपनाने की जरूरत है, जहां शिक्षकों को उनके निजी समय का सम्मान मिले और उन्हें सप्ताहांत या अवकाश के दिनों में काम करने के लिए बाध्य न किया जाए।

इसके साथ ही, पांच दिन के कार्य सप्ताह की अवधारणा को भी अपनाया जा सकता है, जिससे शिक्षकों को एक निश्चित समयावधि में अपने काम को पूरा करने का अवसर मिले और वे अपने निजी जीवन का भी आनंद ले सकें। यह न केवल उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाएगा, बल्कि उनकी कार्यक्षमता और सृजनात्मकता में भी वृद्धि करेगा।

शिक्षा विभाग को शिक्षकों की लंबी अवधि की भलाई और उत्पादकता को ध्यान में रखते हुए नीतियों में बदलाव करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, "डिस्कनेक्ट करने का अधिकार" जैसा कानून लागू किया जा सकता है, जिससे शिक्षक अपने काम के बाद काम से संबंधित किसी भी प्रकार के संचार से मुक्त रह सकें। 


निष्कर्ष

शिक्षा जगत में काम का बढ़ता दबाव और कार्य-जीवन असंतुलन एक गंभीर समस्या है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। शिक्षकों को भावनात्मक और मानसिक समर्थन के साथ-साथ अपने निजी समय का भी अधिकार मिलना चाहिए। उनके काम के बोझ को कम करने के लिए प्रशासनिक कामों से उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए और पांच दिन के कार्य सप्ताह जैसे उपायों को लागू किया जाना चाहिए। 

यदि हम इन समस्याओं को गंभीरता से लेंगे और समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाएंगे, तो न केवल शिक्षकों की कार्यक्षमता बढ़ेगी, बल्कि वे अपने पेशे में खुशी और संतुष्टि का अनुभव भी करेंगे।

अब वक्त आ गया है कि जिम्मेदार अपनी प्राथमिकताओं को बदलें। शिक्षक केवल काम करने की मशीन नहीं हैं। उन्हें भी अपने जीवन के अन्य पहलुओं का आनंद लेने का हक है। अगर हम चाहते हैं कि शिक्षक अपने छात्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ दे सकें, तो हमें भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ देना होगा—समय, सम्मान और मानसिक शांति।


✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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