क्या बच्चों की शिक्षा केवल स्कूल की चारदीवारी तक सीमित हो सकती है?
"मुझे डर है कि यह समाज सभ्यता खो न दे,
बच्चों को किताबों में बंद कर शिक्षा जो दे रहा।"
भारत एक ऐसा देश है जहां हर कोने में विविधता है। यहां की संस्कृति, परंपराएं, और त्योहार हमारे जीवन के मूल स्तंभ हैं। ये त्योहार केवल धार्मिक उत्सव नहीं हैं, बल्कि समाज की शिक्षा के स्त्रोत भी हैं। इस बहुसांस्कृतिक परिदृश्य में बच्चों का विकास केवल स्कूल के पाठ्यक्रम से नहीं होता, बल्कि सामाजिक घटनाओं और पारंपरिक उत्सवों से भी होता है। खासकर नागपंचमी और गुड़िया जैसे त्योहार, जो बच्चों के जीवन में एक गहरा प्रभाव छोड़ते हैं, उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक समझ को विकसित करते हैं।
सवाल यह उठता है कि अगर हम ऐसे त्योहारों के दिन स्कूल खोलते हैं तो क्या हम बच्चों के सीखने के अवसरों को संकीर्ण कर रहे हैं? यह एक गंभीर प्रश्न है क्योंकि स्कूलों को खोलने के पीछे एक विचार यह है कि बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, लेकिन क्या त्योहारों और अपने परिवेश से दूर रहकर बच्चों की वास्तविक शिक्षा हो सकती है?
हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस धारणा पर ध्यान नहीं दिया जाता कि बच्चे न केवल कक्षा में बल्कि समाज से भी सीखते हैं। त्योहारों के दौरान बच्चे अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों, और सांस्कृतिक धरोहरों से जुड़ते हैं। वे अपने परिवार और समाज के साथ मिलकर इन उत्सवों को जीते हैं, जिससे वे समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व और भावनाओं को समझते हैं। नागपंचमी और गुड़िया जैसे त्योहार इसी सांस्कृतिक धारा का हिस्सा हैं, जो बच्चों को परिवार और समाज से जुड़ने का अवसर देते हैं।
जब ऐसे दिनों में स्कूल खुले रहते हैं, तो क्या यह बच्चों की सामाजिक शिक्षा पर आघात नहीं है? क्या यह उनका त्योहारों के प्रति जुड़ाव कमजोर नहीं करता?
त्योहारों के दिन स्कूल खोलने का एक परिणाम यह है कि कई बच्चे स्कूल नहीं आते। वे परिवार के साथ इन उत्सवों में भाग लेना पसंद करते हैं। वे घर सजाते हैं, पूजा करते हैं, खेलते हैं और समाज के बाकी लोगों के साथ वक्त बिताते हैं। क्या यह सब उनकी शिक्षा का हिस्सा नहीं होना चाहिए?
शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ किताबें पढ़ाना नहीं है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण करना है जो समाज और संस्कृति के महत्व को समझे। त्योहारों के दिन स्कूलों में न जाकर, बच्चे उस सीख से वंचित हो जाते हैं जो वे समाज से हासिल कर सकते थे। क्या हम बच्चों से उस महत्वपूर्ण शिक्षा को छीन रहे हैं जो उन्हें त्योहारों के माध्यम से मिलती है?
त्योहारों के दिन बच्चों का स्कूल जाना उन्हें एक तरफ त्योहारों की शिक्षा से वंचित करता है, तो दूसरी तरफ उन्हें एक मजबूरी में भी डालता है। वे एक पारंपरिक और सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के बजाय स्कूल की बाध्यता में फंस जाते हैं। क्या यह सही है कि हम बच्चों को स्कूल की जिम्मेदारी से बांधकर समाज से मिलने वाली शिक्षा से दूर कर दें?
स्कूल प्रशासन और सरकारी नीति निर्माता क्या कभी इस पर विचार करते हैं कि त्योहारों के दौरान स्कूल खोलने से बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति नकारात्मकता पैदा हो सकती है? क्या यह शिक्षा व्यवस्था का एक अत्यधिक कठोर पहलू नहीं है जो बच्चों को किताबों में सीमित कर देता है?
समाधान इस बात में है कि स्कूल और त्योहारों के बीच संतुलन बनाया जाए। स्कूलों को त्योहारों के दिन बंद रखकर बच्चों को सामाजिक और सांस्कृतिक शिक्षा लेने का अवसर दिया जाना चाहिए। साथ ही, स्कूल इन त्योहारों के बारे में बच्चों को जानकारी देने के लिए कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं। इन कार्यक्रमों के माध्यम से बच्चों को त्योहारों का महत्व, उनकी परंपराएं और इतिहास के बारे में बताया जा सकता है।
इसके अलावा, त्योहारों पर आधारित प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जा सकती हैं, जहां बच्चे अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन कर सकें। ऐसे प्रयासों से बच्चों का जुड़ाव समाज से और भी गहरा होगा, और वे न केवल स्कूल से, बल्कि समाज से भी सीख सकेंगे।
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या हम बच्चों को केवल किताबों तक सीमित रखकर उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत से दूर कर रहे हैं? जब बच्चे समाज में त्योहारों के माध्यम से अपनी संस्कृति को जीते हैं, तब ही वे एक समग्र शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। स्कूल केवल पाठ्यक्रम की शिक्षा दे सकते हैं, लेकिन त्योहारों के माध्यम से मिलने वाली शिक्षा समाज, परिवार, और हमारी जड़ों से जुड़ी होती है।
इसलिए, क्या यह सही नहीं होगा कि हम बच्चों को त्योहारों के दौरान समाज से जुड़ने का अवसर दें, बजाय इसके कि उन्हें स्कूल के बंधन में बांध दें?
"रिश्ते और परंपराओं की डोर सिखाती है,
बच्चों को वह शिक्षा जो किताबें नहीं दे पाती हैं।"
यह आलेख केवल एक सवाल नहीं है, बल्कि एक चुनौती है शिक्षा नीति निर्माताओं के लिए। क्या हम अपनी अगली पीढ़ी को वास्तविक शिक्षा दे रहे हैं? त्योहारों के दिन स्कूलों को खोलने का निर्णय पुनर्विचार का मांग करता है, ताकि हम बच्चों को उनके समाज से जोड़कर एक समृद्ध और समग्र शिक्षा दे सकें।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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