शिक्षकों की पक्षधरता आज के समय की मांग 


शिक्षक, जो समाज की नींव गढ़ने वाला अदृश्य शिल्पकार है, आज खुद अस्थिरता और अविश्वास के दौर से गुजर रहा है। उच्च आदर्शों की अपेक्षा के बीच अधिकारहीनता की गहराई में डूबता शिक्षक, अपनी कुर्सी और अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में लगा है। समाज, नीतियों और मीडिया के असहयोग ने उसकी आवाज को कमजोर बना दिया है। ऐसी स्थिति में शिक्षकों की पक्षधरता केवल न्याय की मांग नहीं, बल्कि शिक्षा के भविष्य को बचाने का संघर्ष है। यह आवाज जरूरी है, क्योंकि शिक्षक के बिना समाज का निर्माण अधूरा है।


जब समाज, मीडिया और जिम्मेदार लोग शिक्षकों के साथ खड़े नहीं होते, तो उनकी आवाज दब जाती है। ऐसे में शिक्षकों का पक्ष लेना और उनकी चुनौतियों को सामने लाना आवश्यक हो जाता है। यह पक्षधरता केवल शिक्षकों के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी जरूरी है। यदि शिक्षक अपने कार्य में सशक्त होंगे, तो समाज का भविष्य उज्ज्वल होगा।


शिक्षक समाज के आधारस्तंभ होते हैं। शिक्षा, नैतिकता और समाज की प्रगति में उनका योगदान अनमोल है। लेकिन क्या यह विडंबना नहीं है कि उसी शिक्षक को आज समाज, नीति और व्यवस्था के त्रिकोण में दोषों का पर्याय बना दिया गया है? शिक्षकों के प्रति पक्षधरता का यह सवाल उठाना सही है, और इसकी तह तक जाना अत्यावश्यक।  


समय था जब शिक्षक को समाज में "गुरु" का स्थान प्राप्त था। उनके लिए आदर्श स्थापित किए जाते थे, और राजा से लेकर सामान्य जन तक उनका आदर करते थे। लेकिन बदलते समय में वह सम्मान केवल अपेक्षाओं तक सीमित रह गया। आज का समाज शिक्षकों से आदर्शों की अपेक्षा करता है, लेकिन उनके अधिकारों और सुरक्षा की गारंटी नहीं देता।  
 

यह कहना गलत नहीं होगा कि आज शिक्षक की प्राथमिकता अपनी नौकरी और कुर्सी बचाने तक सीमित हो गई है। वह आदर्श स्थापित करना चाहता है, लेकिन उस पर आरोपों और जिम्मेदारियों का बोझ इतना अधिक है कि वह अपने आदर्शों को निभाने में बाधित हो जाता है।  

 
शिक्षक भी समाज का हिस्सा हैं, और उनकी भी कमियां हो सकती हैं। यह स्वीकार करना आवश्यक है कि उन्हें भी अपग्रेडेशन और प्रशिक्षण की आवश्यकता है। लेकिन क्या यह सही है कि किसी नीति, योजना या व्यवस्था की असफलता का सारा दोष शिक्षकों पर डाल दिया जाए?  


शिक्षा व्यवस्था में कई मुद्दे हैं—अपर्याप्त संसाधन, अनियमित प्रशिक्षण, और ऊपर से लगातार बदलती नीतियां। इन सबका परिणाम यह होता है कि शिक्षक अपने कार्य में पूरी क्षमता से योगदान नहीं कर पाते। समाज और मीडिया अक्सर उनकी आलोचना में आगे रहते हैं, लेकिन जब उनके पक्ष में खड़ा होने का समय आता है, तो चुप्पी छा जाती है।  


आज शिक्षकों के साथ खड़े होना समय की मांग है। यह केवल उनका समर्थन नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने का प्रयास है। जब तक हम शिक्षकों को उनकी गरिमा और अधिकार नहीं देंगे, तब तक शिक्षा नीति में सुधार संभव नहीं। शिक्षक नीति निर्माण के पिरामिड में सबसे नीचे खड़े हैं। लेकिन उनकी समस्याओं, अधिकारों और आवश्यकताओं की अनदेखी करना लंबे समय तक समाज के लिए घातक होगा।  

  
समाज, नीति और मीडिया के जिम्मेदार वर्गों को शिक्षकों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा। शिक्षक केवल आलोचना के पात्र नहीं हैं, बल्कि वे सुधार, प्रोत्साहन और समर्थन के भी अधिकारी हैं। आइए, 2025 में यह संकल्प लें कि हम शिक्षकों के साथ खड़े होंगे, उनके अधिकारों और उनकी समस्याओं की आवाज बनेंगे।  

 
कमियां होंगी, शिक्षक स्वीकार भी करेंगे,
शिक्षा का हर बोझ क्या उन पर ही रखेंगे? 
सुधार कीजिए व्यवस्था की नींव को पहले, 
वरना शिक्षक को दोष कब तक देते रहेंगे? 


 ✍️  लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।


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