एक शिक्षक होने के नाते प्राथमिक स्तर पर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को लेकर मैं हमेशा दुविधा में रहता हूँ क्योंकि छात्र के हिसाब से पढ़ाने में सरकारी आदेश की अवहेलना होती है और बच्चे पाठ्यक्रम से अलग हटकर पढ़ाने में ज्यादा खुश नजर आते हैं। शिक्षा के पूरे काल में एक अध्यापक के लिए प्राथमिक स्तर पर शिक्षण कार्य करना सर्वाधिक कठिन है क्योंकि यहाँ शिक्षा से अधिक जरुरी छात्र से आत्मीय सम्बन्ध बनाना होता है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षक का मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध हर छात्र से पृथक पृथक होना जरुरी है ऐसे में प्रत्येक विषय का नियमित घंटा ,घंटे का निर्धारित पाठ्यक्रम , पाठ को पढ़ाने की निर्धारित शिक्षण विधियाँ और कक्षा कक्ष व्यवस्था सब गैर प्रासंगिक हो जाते हैं। प्राथमिक कक्षाओं में तो पढ़ने वाले छात्र के मनोवैज्ञानिक स्तर तक अध्यापक को स्वयं आना पड़ता है और उस स्तर के साथ छात्र को जोड़ते हुए उसे विषय के स्तर तक लाना ही अधयापक का कौशल और दक्षता है। प्राथमिक स्तर में प्रत्येक छात्र का अधिगम स्तर , उसकी रुचियां , विशेषताएं, कार्य क्षमता, उसके स्वभाव की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसे नजरअंदाज करने से उसके मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
         शिक्षा विभाग की नजर में शिक्षा का अर्थ उसके द्वारा बनाये गए पाठ्यक्रम को उसके द्वारा निर्धारित किये गए तरीके से या दिए गए प्रशिक्षण के अनुसार ,निर्धारित कालांशो में पूरा कर छात्र के दिमाग में इस प्रकार फिट करना भर है जिससे वह निरीक्षणकर्ता को संतुष्ट कर सके । पर मेरी नजर में यह शिक्षण की सर्वाधिक घटिया पद्धति है। शिक्षा तो वह है जो जीवन उपयोगी हो ,जिससे हमारी समस्याओं का निदान हो ,जिससे छात्र के मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर मिलें ,जो उसके भौतिक और सामाजिक परिवेश के नैतिक मूल्यों के अनुरूप हो। पर क्या वास्तव में हम ऐसी शिक्षा पद्धति का विकास कर सके। शायद अभी तक व्यावहारिक रूप से ऐसा देखने को नहीं मिला है। ज्यादातर विद्यालयों में एक कठोर अनुशासन है जहाँ प्रार्थना सभा के समाप्त होते ही हर 30 या 40 मिनट में एक अध्यापक कक्षा में प्रवेश कर निर्धारित पाठ्यक्रम को पढ़ा कर बाहर आ जाता है और नया अध्यापक कक्षा में पहुँच जाता है।
      हमारे पाठ्यक्रम में अत्याधिक नीरसता है। ऐसा जरुरी नहीं है कि सभी बच्चे गणित में रूचि नहीं रखते हों , कुछ छात्रों को तो संस्कृत की किताब में लिखे शब्द ही आज तक समझ नहीं आये पर शिक्षा के लिए इस विषय को पढ़ना और इसमें पास होना जरुरी है। भले ही जीवन में इस विषय का उपयोग का कभी नहीं होता हो। ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी विद्यालय के अधिकांश बच्चे अंग्रेजी से दूर भागते हैं क्योंकि एक भाषा के रूप में उनके परिवेश में यह प्रचलन में नहीं है फिर भी ऐसे सीखना ज्यादा आवश्यक माना जाता है। शिक्षाविदों को लगता है कि किसी कक्षा में बैठे सभी बच्चे एक समान बुद्धिलब्धि के होते हैं और किसी घंटे में पढ़ाये गए सभी तथ्य आसानी से समझ सकते हैं पर व्यवहारिक रूप से यह एक कोरी कल्पना मात्र हैं। वास्तविकता तो यह है कि कई बच्चे किसी विषय वस्तु को कई बार बताने के बावजूद भी नहीं सीख पाते हैं  अधिकांश छात्र कक्षा अपने मनपसंद विषय को ही पढ़ना चाहते है,  उनके अनुसार भाषा का महत्व केवल लिखना और पढ़ना भर है और व्याकरण उन्हें अच्छा नहीं लगता है ,ऐसे में भारी भरकम व्याकरण को प्रारंभिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में रखना औचित्य हीन ही है। पर वर्तमान शिक्षण प्रणाली छात्रों को मनपसंद विषय और विषय में मनपसंद पाठ को पढ़ने और पढ़ाने की अनुमति नहीं देता उनके अनुसार विज्ञान का 10 वा पाठ तो जनवरी माह में ही पढ़ाया जाना तय है। कक्षा के सभी छात्रों की रुचियां अलग अलग हैं और जब उन्हें उनकी रूचि का पढ़ने को नहीं मिलता है तो वह अध्यापक द्वारा पढ़ाये जा रहे गैर रुचिपूर्ण विषयों को अपने दिमाग में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते हैं और अध्यापक को विषयवस्तु उन तक पहुँचाना नामुमकिन हो जाता है।
   वास्तव में राज्य अपने नागिरिकों को शिक्षित करने की बजाय कुशल कामगार तैयार करने में ज्यादा रूचि रखता है इसलिये वह प्रारंभिक कक्षाओं से ही पाठ्यक्रम को ज्यादा बोझिल बनाने पर उतारू है वह छात्र के दिमाग में उन्ही तथ्यों को डालना चाहता है जो सत्ता और समाज के लिए हितकारी हों पर वह यह भूल जाता है कि वह राज्य के नौनिहालों को नवनिर्माण की कल्पनाओं से बंचित कर रहा है। सिस्टम छात्र के असीमित कल्पनाशीलता वाले मन को अपने काबू में रखना चाहता है ताकि वह इस व्यवस्था के प्रतिकूल चिंतन ना कर सके पर इससे भविष्य में कुछ नया होने की संभावनाएं ख़त्म हो जाती हैं। राज्य उन्हें अपनी मंशा के अनुरूप इतिहास रटवाकर उन्हें वैसा ही बनने को बाध्य करना चाहता है जैसे लोग पहले हो चुके हैं वह केवल व्यक्ति विशेष या क्षेत्र विशेष के इतिहास और भूगोल को पढ़ाने के लिए अध्यापक को बाध्य करता है। जबकि छात्र अपनी प्रकृति के बारे में पढ़कर उसके साथ खेलकर आगे बढ़ना चाहता है। ज्यादातर छात्रों को कला क्राफ्ट खेलकूद में ज्यादा रूचि होती है पर सिस्टम इन्हें सीमित रखकर इतिहास भूगोल गणित और विज्ञान सिखाने के निर्देश देता है।
     यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि अच्छी शिक्षा के लिए स्कूल ही एक मात्र उपाय नहीं है । 12 साल की उम्र तक विद्यालय ना जाने बाले विवेकानंद जी ने पूरी दुनिया को अपने ज्ञान से विस्मित कर दिया। अंगूठा टेक तुलसीदास और कबीरजी पर पीएचडी कर हजारो छात्र डिग्री कॉलेज में व्याख्याता हो गए जबकि ये शायद ही प्रारम्भिक कक्षाओं में पढ़ने गये हो और  अगर इन्हें प्रारंभिक कक्षाओं से ही सभी विषय पढ़ने को बाध्य किया जाता तो हमारा देश इनके गुणों और प्रतिभाओ से बंचित हो जाता। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन को तो उनके विद्यालय ने पढ़ाने से इंकार कर दिया था और वह अपनी माँ की कक्षा में पढ़कर दुनिया में सबसे बड़े वैज्ञानिक बनें।
    एक अध्यापक होने के नाते हमारा यह दायित्व है कि हम बच्चे को पढ़ाने की बजाय उसके सुगमकर्ता बनें और प्रारंभिक कक्षाओं से ही उसकी प्राकृतिक क्षमताओं को पहचान कर उनके विकास में सहायता करें पर हम व्यवस्था की बाध्यताओं के कारण स्वयं ही इन क्षमताओं के दमन का कारण बन जाते हैं। हम सरकार द्वारा जारी आदेशों के पालन को ना सिर्फ बाध्य है वरन बुरी तरह डरे हुए हैं ,ऐसे में हम केवल वह ही पढ़ाना चाहते जिसको पढ़ाने से हमारी नौकरी पर खतरा ना हो। 
    वास्तव में जिस छात्र में प्रारंभिक कक्षा से ही संगीत में रूचि हो तो उसे केवल संगीत की ही शिक्षा दी जाये और अन्य विषय उसके लिए औपचारिकता मात्र कर दिए जाएं ,खेल कौशल रखने वाले छात्रों को स्कूल के प्रारम्भ के घंटे से मैदान और खेल प्रशिक्षक के साथ खेलते हुए ही विद्यालय का दिन ख़त्म करने की अनुमति मिले पर इसके उलट हम उसके दिमाग में सभी विषय और सभी तरह की कलाएं घुसाने के लिए प्रयासरत हैं जिससे वह अपने जीवन में किसी भी विधा में पारंगत नहीं हो पाता है इतनी सारी शैक्षणिक विधियों की खोज , विद्यालयों में सुविधा और संसाधन और व्यवस्थित अध्यापन के बाद भी हम पिछले 100 वर्षों दुनिया को कुछ नया नहीं दे सके हम ओलिम्पिक में मैडल के लिए तरस रहे हैं क्योंकि हमने प्रारंभिक कक्षाओं से ही छात्र की प्रतिभा के अनुरूप प्रशिक्षण देना शुरू नहीं किया है हम तो गांव के सरकारी विद्यालय में मजबूत कदकाठी वाले छात्र के दिमाग में गणित के फार्मूला फिट करने में व्यस्त है और शहर के कान्वेंट में पढ़ने बाले मरियल छात्र को प्ले ग्राउंड में रगड़कर खिलाडी बनाने पर आमादा हैं। जब तक लोग शिक्षा के इस मर्म को नहीं समझेंगे तब तक देश और समाज उपलब्धियों से वंचित होता रहेगा।
 
लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन
जनपद-इटावा


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