ब हम सुनते हैं कि किसी कम पढ़े-लिखे, आम आदमी ने घरेलू हिंसा की, अपनी पत्नी या सहकर्मियों के साथ बदसलूकी की, राह चलते लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया तो हमे उतना आश्चर्य नहीं होता, पर जब यही काम कोई डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या बड़ा अधिकारी करता है तो लोगों को बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसा क्यों? मुझे लगता है हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए और क्यों नहीं होना चाहिए चलिए इसके कारणों की पड़ताल करते हैं। हमारी शिक्षा व्यक्ति का एकतरफा विकास करने पर ही जोर देती है। समेकित, एकीकृत, समंवित, संपूर्ण विकास इसके उद्देश्यों में शामिल नहीं रहा है। इसकी बातें स्कूलों के प्रवेश पत्र, विज्ञापनों और पत्रिकाओं में होती है, पर जमीनी हकीकत एक अलग कहानी कहती है। जब शिक्षा समेकित विकास की बात भी करती है, तो वह विविध क्षेत्रों में प्रतिभा विकसित करने की बात करती है। वह छात्र को कई अलग-अलग गतिविधियों में शामिल कर रखने को ही उनका समेकित विकास मान बैठती है। वह छात्र के कुछ होने से ज्यादा उसके कुछ अधिक करने और अधिक बनने पर जोर देती है, और यह एक बच्चे में गहरे तनाव का कारण भी बन सकता है। हमारी शिक्षा बौद्धिक स्तर या इंटेलीजेंट कोशेंट पर अधिक जोर देती है। कोई मनोवैज्ञानिक या मन की गतिविधियों में एक सामान्य रुचि रखने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि बुद्धि या विचारणा समूचे मस्तिष्क के एक बहुत ही सीमित क्षेत्र में होने वाली होने वाली घटना है। 

विचार और सोच पर जोर देने वाली शिक्षाएँ लिखित शब्द को ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत मानने वाली शिक्षा ऐन्द्रिक बोध को कमजोर और भोथरा कर देती है और यह एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारे सामने एक असंवेदनशील पीढ़ी निर्मित हुए जा रही है और हम इसके कारणों की तह तक नहीं जा पा रहे। जहां पुस्तक से मिलने वाला शाब्दिक ज्ञान कीमती हो जाएगा, वहां उसी अनुपात में संवेदनशीलता घटेगी। संवेदनशीलता का संबंध है संवेदनाओं, इंद्रियों की सक्रियता से। जब विचार और बौद्धिकता पर अधिक जोर दिया जाएगा, वहां इंद्रियों की क्षमता घटनी ही है। 

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसका अनुभव आप रोजमर्रा की जिंदगी में कर सकते हैं। आप जब लगातार कुछ सोचते हुए किसी खूबसूरत पार्क से होकर गुजरते हैं तब आप वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को देख तक नहीं पाते क्योंकि आपका मन व्यस्त रहता है अपने विचारों में।आई क्यू के साथ एक भावनात्मक स्तर भी होता है जिसे इमोशनल कोशेंट या ई क्यू कहते हैं। क्या हम सिर्फ बुद्धि के संवर्धन पर जोर दे रहे हैं? क्या बच्चों के भावनात्मक विकासए उनके आपसी संबंधों, घरेलू रिश्तों वगैरह को पूरी तरह अनदेखा नहीं कर रहे? विचार और भावना के बीच संतुलन बनाते हुए शिक्षा कैसे दी जा सकती है, इसपर विचार करना बहुत जरूरी है। अक्सर हम या तो पूरी तरह बौद्धिक हो जाते हैं, या पूरी तरह भावुक और इस तरह का जीवन हमारे लिए कई बाधाएं खड़ी करता है। इनके बीच का मध्यम मार्ग कैसे प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही अपनाया जाए, इसपर विचार करना ही पड़ेगा। इससे जुड़ा दूसरा मुद्दा है गलत मूल्यों के सम्प्रेषण का। एक अच्छा पेशा हो, उसमें अच्छी कमाई हो और एक इंसान समाज में आराम का जीवन बिता सके, ये सही है, ये सब कामना के क्षेत्र में नहीं, मूलभूत जरूरतों के क्षेत्र में आता है। बुनियादी सुरक्षा देह, मन और मस्तिष्क के लिए जरूरी है और इसके बगैर अस्तित्व ही संभव नहीं पर यदि कुछ लोग बहुत अधिक सफल होना चाहते हैं और उनका बिलकुल भी ख्याल नहीं रखते जो तथाकथित रूप से ‘असफल’ हैं तो इसका मतलब हम एक लगातार एक ग्रुण समाज की ओर बढ़ रहे हैं, प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों को खाद पानी दे रहे हैं। एक बहुत ही ज्यादा पढ़ी लिखी और संवेदनशील पश्चिमी महिला के साथ हाल ही में हुई बातचीत याद आती है। उसने कहा कि मैं जीवन में बहुत सफल हो सकती हूं, धन और शोहरत कमा सकती हूं, पर मुझे अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार है और मेरी बहन ज्यादा प्रतिभाशाली नहीं, और न ही सामान्य अर्थ में ज्यादा शिक्षित है, तो मैं सोचती हूँ कि मैं सफल हो जाऊं तो उसे बहुत दु:ख होगा! ऐसी उदात्त भावना सबमें होगी यह अपेक्षा करना अवास्तविक होगा पर यह तो सच है कि जब हम सफलता के पीछे भागते हैं तो उन लोगों का ख्याल नहीं करते जो इस व्यवस्था के कारण असफल रह जाते हैं। वे बेहतर इंसान हैं, पर उनमे प्रतिभा नहीं, या जो प्रतिभा है, वह समाज के मूल्यों के हिसाब से ज्यादा महत्व नहीं रखती। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या शिक्षा का उद्देश्य सफल होना है और वह भी समाज के मूल्यों के हिसाब से? दस्युओं के किसी गिरोह में सबसे ज्यादा मार-काट करने वाला, सबसे अधिक धन लूटने वाला ही सबसे अधिक सफल माना जाएगा। तो क्या हमारे मूल्य दस्युओं के गिरोह के मूल्यों जैसे हैं? क्या हम समझ और शालीनता, स्नेह और करुणा की तुलना में सफलता को ज्यादा महत्व देते हैं? और अगर देते हैं, तो इसे स्वीकारें तो, क्योंकि चीजों को जस का तस देखने में ही यह संभावना निहित है कि हम उन्हें बदल पाएंगें। उन्हें महिमामंडित करके या उनकी निंदा करके नहीं। जाने अनजाने में हमारी शिक्षा व्यवस्था सफलता की उपासना पर जोर दे रही है। कोई सफल होने के साथ धनी हो तो उसे बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता है। 

स्कूलों में बड़े समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में कलेक्टर को या आयुक्त को बुलाया जाता है या कोई क्रिकेटर मिल सके, फिर तो क्या बात है! इससे बच्चों को यह साफ संदेश मिलता है कि उन्हें बड़े होकर वैसा ही बनना है। ऐसे समारोहों में किसी स्कूल के बहुत ही ईमानदार या समर्पित शिक्षक को क्यों नहीं बुलाया जा सकता? या किसी बच्चे से ही इन कार्यक्रमों का उद्घाटन वगैरह क्यों नहीं करवाया जा सकता? एक भूखे-प्यासे, वंचित समाज में सफलता की पूजा आपत्तिजनक इसलिए भी है क्योंकि इसे हासिल करने के अवसर सब के पास नहीं। जिस परिवारों में पहले से ही लोग उच्च पदों पर हैं, उनके बच्चों के लिए बेहतर अवसर होते हैं और वे दूसरे बच्चों की तुलना में ज्यादा आगे निकलने की संभावना रखते हैं, भले ही दूसरे बच्चे ज्यादा मेहनती हों, ज्यादा प्रतिभावान हों। 

उनके आर्थिक और सामाजिक दबाव उन्हें उन्हीं कामों तक सीमित रखते हैं जिनसे उनका जीवन चल भर सके। बहुत ऊंचे सपने देखना उनके लिए वर्जित है। वंचित तबकों तक पहुंचते पहुंचते पानी सूख जाता है, समृद्धि और सफलता की नदियां कही ऊंचाई पर ही रुक जाया करती हैं।गांधी जी हृदय के संवर्धन की बात करते थे। ई क्यू पर महत्व देते थे। यह बात उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शिक्षा के क्षेत्र में किए गए प्रयोगों के दौरान ही कही थी। 

बौद्धिक ताकत, सफलताएँ प्रतिष्ठा और आर्थिक समृद्धि प्राप्त करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता और शिक्षक को प्राथमिक स्तर से ही यह बात समझनी और समझानी होगी। इससे उसमे अपना आत्म सम्मान भी बढ़ेगा क्योंकि अभी भी हमारे समाज में शिक्षक को एक निरीह प्राणी, एक आवश्यक बुराई के रूप में देखा जाता है। अक्सर लोग यही समझते हैं कि जब कोई किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता तो वह शिक्षक बन जाता है। शिक्षक को समाज की समूची तस्वीर बच्चों के सामने रखनी चाहिए। यह सिखाना चाहिए कि सफलता और धन ही जीवन का अकेला मकसद नहीं हो सकता। खासकर ऐसे समाज में जहां सबके लिए यह उपलब्ध न हो वहां तो बिलकुल भी नहीं। बच्चों को यह बताना जरूरी है के जीवन में काम और अर्थ के साथ धर्म और मोक्ष का भी स्थान है। 

यह भी जरूरी है कि इन मूल्यों को परंपरागत अर्थ में व्याख्यायित न किया जाए, बल्कि उन्हें आज के संदर्भ में, आधुनिक परिस्थितियों में स्पष्ट किया जाए। बच्चों को संसार के उन अरबपतियों के भी उदाहरण दिए जाने चाहिए जिन्होंने जीवन के आखिर में खुदकुशी कर ली। धन और प्रसिद्धि के निहितार्थ उनकी समग्रता में समझाने चाहिए। बर्नार्ड शॉ ने इस संबंध में बहुत अच्छी बात कही थी एक धनी व्यक्ति और कोई नहीं, बस एक पैसे वाला गरीब इंसान होता है। सही शिक्षा में धन और सफलता के बखान करने के अलावा आतंरिक समृद्धि, सृजनशीलता, समझ, तार्किक सोच और स्नेह से भरे एक हृदय की आवश्यकता बच्चों को किसी भी तरह समझाई जानी चाहिए। इसमें शिक्षक की स्वयं की शिक्षा भी शामिल है क्योंकि यह सब वह ईमानदारी के साथ तभी बता सकता है जब वह खुद भी उन मूल्यों को थोड़ा बहुत जीता हो। इस दिशा में माता-पिता की भी विराट जिम्मेदारी है। घर पर ऐसी बातें ही नहीं की जाएं जिसने बच्चों के मन पर इस तरह के झूठे मूल्य अंकित हो जाएं कि उन्हें धन और शोहरत के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देना है। समेकित विकास का सौंदर्य ही इस बात में है कि उसमे देह, बुद्धि, धन और प्रेम के साथ-साथ गहरे प्रश्न पूछने की क्षमता विकसित हो। अंधाधुंध धन कमाने के अलावा सुरुचिपूर्ण साहित्य, कला, संगीत वगैरह के प्रति भी बच्चे का ध्यान आकर्षित किया जाए। अपने दैहिक स्वास्थ्य के बारे में भी वह उतना ही सजग हो सके। सर्वांगीण विकास इसी में निहित है।

लेखक
चैतन्य नागर
chaitanyanagar@gmail.com

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