प्राथमिक शिक्षा का माध्यम क्या हो। बच्चों को किस भाषा के जरिए शिक्षा की दुनिया में प्रवेश कराया जाए कि उनके आगे का सफर सुगम हो। ये सवाल लंबे अरसे से शिक्षाविदों के लिए विमर्श का विषय रहा है। यद्यपि भारत बहुभाषी देश है, यहां क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ स्थानीय बोलियां भी सहायक नदियों की तरह निरंतर प्रवाहमय हैं। गुलामी के दो सौ सालों के कारण, लार्ड मैकाले द्वारा लाई गई शिक्षा पद्धति के कारण यहां अंग्रेजी इस कदर गहरे पैठ गई है कि अब उसे एक अनिवार्य अंग बना लेने में ही समझदारी है। क्योंकि अंग्रेजी का जितना विरोध किया गया, संघर्ष उतना बढ़ता गया, फिर भी अंग्रेजी का विकल्प तैयार नहीं हो सका। अंग्रेजी, क्षेत्रीय भाषाएं और राजभाषा हिंदी इस त्रिकोण में प्राथमिक शिक्षा उलझ कर रह गई और उसका प्रमेय इति सिद्धम के साथ समाप्त नहीं हो पाया है। यूं तो बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो बच्चे को पहला पाठ मां से मिलता है, इसलिए शिक्षा का पहला अध्याय अगर वह मातृभाषा में ग्रहण करे तो उसके लिए वह सुखद स्थिति होती है। बहुत से शिक्षाविदों का भी यही मानना है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। रूस, फ्रांस, जर्मनी, जापान, चीन जैसे विकसित देशों में उनकी अपनी भाषा में शिक्षा दी जा रही है और अंग्रेजी के बिना उनका काम हर क्षेत्र में अच्छे से चल रहा है। लेकिन इन देशों में और भारत में बुनियादी फर्क यह है कि वहां भारत की तरह कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी की स्थिति नहीं है। विभिन्न समुदायों, धर्मों, जातियों और भाषाओं के लोगों से मिलकर भारत की मुकम्मल तस्वीर बनती है। ऐसे में यहां एक ही भाषा को सब पर थोपना गलत होगा।हिंदी राजभाषा है और अंग्रेजी मजबूरी में अनिवार्य भाषा है, इसके बाद बचती हैं क्षेत्रीय भाषाएं। जो जिस प्रदेश का निवासी है, वहां की भाषा जाने व समझे, यह आदर्श स्थिति है। 
दक्षिण भारत के राज्य हों या उड़ीसा, बंगाल और पूर्वोत्तर के प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा जैसे पश्चिमी राज्य हों या पंजाब, जम्मू-कश्मीर आदि उत्तर क्षेत्र के प्रदेश, हर राज्य की अपनी भाषा, बोलियां हैं और वहां के मूल निवासी उन्हें व्यवहार में सहज अपनाए हुए भी हैं। लेकिन जो लोग वहां के मूल बाशिंदे नहीं हैं और रोजगार या अन्य कारणों से वहां बसे हुए हैं, उनके लिए उस प्रदेश विशेष की भाषा को सीखना थोड़ा कठिन होता है। बोलना फिर भी आसान है, लेकिन उस भाषा में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने में कठिनाई आना, बच्चे पर अनावश्यक बोझ पड़ना स्वाभाविक है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में क्षेत्रीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता को खारिज कर दिया है। 

गौरतलब है कि कर्नाटक सरकार ने 1994 में दो आदेश पारित किए थे, जिसमें कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था। सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी। जुलाई 2015 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने इस मसले को संविधान पीठ के विचार के लिए उपयुक्त माना था। 6 मई 2016 को प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि सरकार को भाषायी अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। 

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एके पटनायक, न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय, न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति एफएमआई कलीफुल्ला शामिल हैं। निर्णय के लेखक न्यायमूर्ति एके पटनायक ने कहा संविधान के अनुच्छेद 19 1(ए) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और इसी में यह अधिकार भी निहित है कि बच्चा प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए भाषा का चयन करने हेतु स्वतंत्र है। बच्चा अगर प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ग्रहण करेगा तो वह उसके लिए लाभकारी होगा, केवल अपने इस विचार के कारण राज्य सरकार उस पर भाषा की पाबंदी नहीं लगा सकती। इसलिए अदालत बच्चे या उसकी ओर से उसके अभिभावक को यह अधिकार देती है कि वह प्राथमिक शिक्षा के लिए भाषा का चयन करने के लिए स्वतंत्र है।आज कल विचारों की अभिव्यक्ति को लेकर बड़ा विवाद हो रहा है। सीधे शब्दों में समझा जाए तो यद्यपि यह कहा जा सकता है कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी तरह की पाबंदी किसी नागरिक के व्यक्तित्व विकास में बाधक बन सकती है और यह देश के दूरगामी हित में नहीं होगा। भाषा का सवाल संकुचित दायरों को छोड़कर व्यापक विमर्श की मांग करता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को इसी परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। कोई भाषा जबरदस्ती किसी पर थोपी जाए तो उससे समस्या और उलझेगी। नई भाषाएं सीखना हमेशा स्वागतेय है और बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। लेकिन इस तरह से नहीं कि वे भाषा से बिदकने लगें। मानव सभ्यता के विकास में भाषा जोड़ने का माध्यम रही है, उसे अलगाव पैदा करने का जरिया नहीं बनने देना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी से तात्पर्य यह कभी नहीं माना जा सकता जो एक सीमा से बाहर हो, जिससे किसी देश या व्यक्ति विशेष के सम्मान को ठेस पहुंचे।

लेखक
दीपक मिश्र राजू 
dm9450286407@gmail.com 



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