⁠⁠⁠इंसान सबसे ज्यादा किसी की तलाश में है तो वह है खुशी। बचपन का रस खुशी में ही है, जो शायद आज कहीं खो सा गया है। आज बच्चे किताबों के बोझ तले दबे हुए हैं और जिंदगी एक टाइमटेबल सी बन गई है।जिसमें शायद खुशी के लिए कोई पीरियड नहीं है।शिक्षा में खुशी तभी मिलती है जब स्कूल में खुशी का माहौल हो। एक ऐसा स्कूल जहां शिक्षिका -शिक्षक खुश हो, बच्चे खुश हो और पाठ्यक्रम ,पुस्तक के पाठ, परीक्षा ,अधिकारी ,खेलकूद ,सांस्कृतिक क्रियाएं आदि खुशी पैदा करें। इस समय नामांकन का माहोल चल रहा है ,ऐसे में अगर पहले दिन कोई बच्चा आकर स्कूल में खुशी की अनुभूत नहीं करता तो मान लीजिए कि वह स्कूल खुशी का नहीं है। 
स्कूल ऐसी जगह है जहां बच्चों को खुद दौड़कर आना चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि शिक्षक, खुशहाल वातावरण बनाए। कहते हैं - खुशहाल वातावरण में दी गई शिक्षा स्थाई होती है। शिक्षा से आनंद मिलना चाहिए यह सबसे जरुरी चीज है, जिसे आज हम सब भूल गए हैं। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षक विद्यालय में ऐसा वातावरण बनाए जहां बच्चों को यह न लगे कि वे किसी दूसरे ग्रह पे हैं बल्कि अपने ही दूसरे घर में हैं।  परिषदीय विद्यालयों में संसाधनों की कमियां हैं मगर फिर भी हम इन्हीं सीमित संसाधनों में खुशियां ढूंढ सकते हैं। 
गाने ,नाचने ,नाटक करने ,ड्राइंग, मिट्टी के पेड़ ,मिट्टी की गुड़िया, पेड़ की पत्तियों, कंकड़-पत्थर ,कागज के टुकड़ों से ,रुई धागे ,प्लास्टिक इन सब से हम विभिन्न प्रकार की कला शिल्प के माध्यम से उनका सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।यदि इस प्रकार खेल - खेल में बच्चों को सिखाया जाए तो बच्चे धीरे-धीरे पाठ्यपुस्तक में भी रूचि लेंगे। बच्चे और स्कूल के बीच में एक संबंध होता है, वह जीवंत होता है। बच्चे उसी प्रकार विद्यालय में रहना चाहते हैं जिस प्रकार वे घर पर रहते हैं। खुली आजादी में हर चीज करने की इच्छा और कोई मनाही नहीं बल्कि उन में जिज्ञासा रहती कि हम इस कार्य को कैसे करें इसका क्या आउटकम होगा। लेकिन शिक्षा की सरकारी व्यवस्था ने स्कूल और बच्चों का संबंध बिगाड़ दिया है जीवन से काटकर पाठ्यक्रमों पाठों से प्रगति पत्र और परीक्षाफल से जोड़ दिया है। शिक्षाविदों का ऐसा मानना है कि स्कूल ऐसा हो जो केवल किताब और बच्चों के संबंध के बजाय किताब और जीवन का संबंध बनाएं। आज कई देशों में शिक्षक को व्यवस्था से ऊपर रखा गया है मगर भारत में तो शिक्षक किसी से ऊपर नहीं। विभागीय व्यवस्था के शोषण और अपमान का शिकार है इसलिए शिक्षक मात्रक भौतिक शरीर है जिस की आत्मा व्यवस्था ने मार दी है यही कारण है कि उसने भी पढ़ना-पढ़ाना नया काम करना, खुशी पैदा करना छोड़ दिया है। एक नाखुश, अपमानित ,शोषित ,उपेक्षित शिक्षक स्कूल में खुशी कैसे पैदा कर सकता है? वह रात-दिन तरह तरह के डर में जीता है। इसलिए स्कूल में भी वह खुशी की जगह पर डर ही पैदा करता है। आजकल विद्यालयों में बच्चों को भविष्य के सपने साकार करने के लिए वर्तमान की बलि देकर भविष्य की नींव मजबूत कराई जाती है। आज का पता नहीं पर हम कल की बात करते हैं। किसी प्राथमिक स्कूल का उचित सरोकार एक सीमित अर्थ में बच्चों की शिक्षा नहीं है ना ही उनके लिए भविष्य की तैयारी है बल्कि यह सरोकार उनके वर्तमान जीवन से संबंधित है क्योंकि खुशियां वर्तमान में मिलती है भविष्य में नहीं।

लेखक
सिंह शिवम कुमार राजेंद्र,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय जहुरुद्दीनपुर,
विकास क्षेत्र-सुइथाकलां, 
जनपद-जौनपुर


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