बसे मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है, तभी से भारत अपनी शिक्षा और दर्शन के लिए जाना जाता है। शिक्षा और ज्ञान के बल पर ही भारत ने प्राचीनकाल में संसार के एक बड़े हिस्से का पथ प्रदर्शन किया। भारत जैसे प्राचीन और सुदीर्घ परंपराओं वाले जनतंत्रीय देश के लिए आज भी शिक्षा के मार्गदर्शी उद्देश्यों के निर्माण के लिए अतीत की खिड़की प्रकाश का स्रोत है। 

प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता और विश्वासमूलक धार्मिक भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का उद्देश्य रहा है। शिक्षा आरंभ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना, फिर शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात:काल और सायंकाल ईश्वर की महिमा का गुणगान करना तथा गुरुकुल में रहते हुए धार्मिक अनुष्ठानों आदि के माध्यम से बच्चों के मन में पवित्रता और चित्त की एकनिष्ठता उत्पन्न करते हुए चिंतन परक आध्यात्मिक दृष्टि विकसित की जाती रही है। इसी तरह साहित्यिक और और कौशल परक सभी प्रकार की शिक्षा का उद्देश्य बालक को समाजोपयोगी सदस्य बनाना था। चरित्र निर्माण भारतीय शिक्षा का दूसरा अहम उद्देश्य रहा है। भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढ़ना ही शिक्षा नहीं है, वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। 

इसीलिए कहा गया कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। इसी तरह बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बताया गया। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्मसम्मान की भावना विकसित करना आवश्यक माना गया है। इसलिए प्रत्येक बालक में इस गुण को विकसित करने के लिए आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मनियंत्रण और विवेक व निर्णय क्षमता आदि को विकसित करने पर जोर दिया जाता रहा है। शिक्षा का चौथा मकसद नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना रहा है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं। इसीलिए गुरुकुल में शिष्य छात्रों को माता-पिता, पत्नी व पुत्र-पुत्री यानी परिवार के अलावा समाज के प्रति भी कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती रही, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें। सामाजिक कुशलता और सुख की उन्नति करना, राष्ट्रीय संपति तथा संस्कृति का संरक्षण व विस्तार प्राचीन भारतीय शिक्षा परंपरा के मूल में हम पाते हैं। प्राचीन काल में अपने विचार और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए शिक्षा को उत्तम साधन माना गया है। हम चाहें तो परंपरा प्रसूत शिक्षा के इन उद्देश्यों और मूल्यों से आज भी बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं। 

साभार : डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट


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