राजस्थान का कोटा शहर, पिछले कुछ वर्षों से इंजीनियरिंग और मेडिकल की स्तरीय पढ़ाई तथा संबंधित प्रतियोगी परीक्षाओं की गुणवत्तापूर्ण तैयारी के लिए पूरे भारत विशेषकर हिंदी पट्टी के छात्रों का चर्चित ठिकाना बना हुआ है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में छात्र, जिनमें कुछ खुद के बड़े सपने और कुछ माता-पिता की ख्वाहिशों को पूरा करने उद्देश्य से इन महंगे कोचिंग संस्थानों और रहने की तमाम निम्न दशाओं के बीच जद्दोजहद करते नजर आते हैं। साथ ही इनके साथ सपनों और उच्च करियर की दिशा में भाग रहे असंख्य छात्रों के हुजूम में टिके रहने का दबाव भी है, जिनमें कई अपनी काबिलियत और रुचि के इतर संघर्ष करते नजर आते हैं। लेकिन, माता-पिता और समाज के नजर में भी जब इंजीनियरिंग और मेडिकल व कोटा की तैयारी सोशल स्टेटस सिंबल बन जाए तो फिर इच्छा और रुचि से इतर तैयारी कर रहे छात्रों पर पड़ने वाले बेजा दबाव की परवाह कौन करता है।दरअसल, यह सिर्फ माता-पिता या छात्र विशेष की गलती भर नहीं है, बल्कि यह समस्या तो वर्तमान की बाजार आधारित शिक्षा व्यवस्था की देन है। नतीजा यह है कि असीम संभावनाओं से भरे इन युवाओं में से अनेकों की कीमती जिंदगियां, जिन्हें एक श्रेष्ठ मानव संसाधन बनकर सफलता की नई इबारत लिखनी चाहिए, अपने पीछे दर्द से भरा एक सुसाइड नोट, घुटती जिंदगी की कहानी कहता एक फंदा और साथ ही अनगिनत सवाल छोड़ जाती है। कोटा की कथित सौ फीसदी सफलता की गारंटी के चकाचौंध के पीछे यही भयावह कहानी पल रही है। बात सिर्फ कोटा शहर की नहीं है, कोचिंग के गढ़ के रूप में उभर रहे नई दिल्ली, इलाहाबाद, पटना और रांची जैसे शहरों की भी है, जहां शार्टकट सफलता का आकर्षण तो है, लेकिन साथ में सपने न पूरा कर पाने की एक कसक भी, जिसके चलते युवा जिंदगियां आत्महत्या के मार्ग पर चलने को विवश हो जाती हैं। अभी, चंद रोज पहले ही हिमाचल की रहने वाली एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली और इस आत्महत्या ने पिछले एक साल के दौरान हुए करीब दो दर्जन आत्महत्याओं पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया है। शिक्षा पर उम्मीदों का पहाड़ खड़ा है, लेकिन जब स्तरहीन शिक्षा के कारण इसकी नींव डगमगाने लगे तो उसका ढहना सुनिश्चित जान पड़ता है।किसी भी राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रगति उसकी युवाशक्ति और सशक्त मानव संसाधन पर निर्भर करती है, जिसका सबसे बड़ा आधार शिक्षा है। बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा किसी भी देश के तमाम आधारभूत संरचना तक जनसाधारण विशेषकर युवावर्ग की पहुंच सुनिश्चित करती है, जिनमें बेहतर समाज, बेहतर राजनीतिक समझ, स्वास्थ्य आदि कई आयाम हैं। बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से आशय शिक्षा में वर्तमान प्रौद्योगिकी, विज्ञान, भाषा-साहित्य और समाज विज्ञान के समावेशपूर्ण उपलब्धता से है, जिससे सांस्कृतिक जुड़ाव के साथ-साथ आधुनिक प्रगतिशील सोच भी विद्यार्थियों में परिलक्षित हो। लेकिन वर्तमान में शिक्षा का जिस तरह बाजारीकरण हुआ है, उसमें उपरोक्त बातों की उम्मीद करना बेमानी-सा लगता है।

दरअसल, इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था में कान्वेंट स्कूल खूब फलफूल रहे हैं, जहां महंगी फीस और अंग्रेजी उच्च करियर तथा सामाजिक रौब की परिचायक बनी हुई है, वहीं सरकारी स्कूल और उसका प्रबंधन करने वाली सरकार मिड-डे-मील, स्कूल बिल्डिंग और इसमें खर्च होने वाले बजट पर अपनी पीठ थपथपाने में ही आत्ममुग्ध हुए जा रही है। कान्वेंट के बच्चे जहां भारी बस्तों और उम्मीदों के बोझ तले दबे जा रहे हैं, वहीं सरकारी स्कूल के बच्चे तंगहाली और व्यवस्था की बदहाली के शिकार हैं। ऐसे में जब एक ही देश और समाज के अंदर दो तरह की व्यवस्था के साथ, अवसर की असामनता परिलक्षित होती है तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों के तहत अच्छी और अनिवार्य शिक्षा का आदर्श बहुत कोरा और खोखला-सा लगता है।ये असमान व्यवस्था और शैक्षिक पिछड़ापन, दरअसल अचानक उभरा मामला नहीं है, बल्कि इसके आधारभूत आयाम तो औपनिवेशिक शासन काल में ही छिपे हैं। 

भारतीय शिक्षा प्रणाली औपनिवेशिक काल से पहले और इसके दौरान भी आत्मकेंद्रित रही थी, जिसमें गणित, भाषा-साहित्य और दर्शन की शिक्षा विद्यार्थियों को दी जाती थी और ये भी ग्रामीण और नगरीय दोनों ही स्थानों पर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक ही सीमित थी। लेकिन औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेजी हुकूमत को अपना शासन चलाने के लिए पाश्चात्य पद्धति पर आधारित शिक्षाप्राप्त वैसे बाबुओं की जरूरत थी, जो भारतीय समाज व्यवस्था की समझ रखता हुआ अंग्रेजी नीतियों को कार्यान्वित करने में ब्रिटिश हुकूमत की मदद करे। लिहाजा तत्कालीन विधि सलाहकार जॉन मैकाले ने इस दिशा में भारतीय शिक्षा प्रणाली को तोड़कर ऐसी शिक्षा नीति बनाई कि हम भारतीय अपने जड़ से अलग होकर अंग्रेजी व आधुनिक शिक्षा की होड़ के खातिर बेतहाशा पश्चिमीकरण की दौड़ में शामिल हो गए, इस तरह शिक्षा का व्यवसायीकरण प्रारंभ हुआ और कॉन्वेंट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। इन स्कूलों में नवशिक्षित मध्यमवर्गीय परिवारों का वर्चस्व हो गया, क्योंकि अभी भी अधिकांश भारत ग्रामीण परिवेश में कृषि अर्थव्यवस्था पर ही आधारित था, जिनकी पहुंच से बाजार आधारित नई शिक्षा बहुत दूर थी और अभी भी है, लेकिन ये बड़ी नाइंसाफी नहीं थी, बल्कि खामी तो आजादी के बाद आई तमाम सरकारों की नीतियों में रही है, जो अब तक ढंग की सुव्यवस्थित शिक्षा प्रणाली विकसित नहीं कर पाई है। देश की वर्तमान शिक्षा किस गर्त में है, विभिन्न राज्यों से आए आंकड़े जो कि सरकारी प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों के हैं, इसकी सही और शर्मनाक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब 80 फीसदी बच्चों को अपने हिंदी के पाठ्यपुस्तक की पंक्तियों को पढ़ने में दिक्कत है, यही हाल गणित में भी है, 25 से 30 फीसदी बच्चों को पहाड़ा नहीं आता। अब तक शिक्षा व्यवस्था में दोष के तहत कॉन्वेंट स्कूलों को कोसा जाता रहा है, लेकिन सर्वेक्षण यह भी बताता है कि पूरे देश में औसतन केवल 17 से 24 फीसदी बच्चे ही कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं, बाकी बच्चे बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं या यों कहिए कि नामांकित हैं, लेकिन यहां शिक्षा का स्तर क्या है, इसके लिए ज्यादा शब्द खर्चने की जरूरत नहीं है। बिहार में इंटर और मैट्रिक परीक्षा के दौरान नकल कराने के लिए परीक्षार्थियों के अभिभावकों के केंद्रों की खिड़कियों से लटके होने की तस्वीर, बिहार टॉपर घोटाला, झारखंड में उत्तीर्ण प्रतिशत 45 फीसदी और अभी देशभर में जारी ताजा सर्वेक्षण बदहाली की सारी कहानी खुद ही बयान करते हैं। पिछले दिनों झारखंड की राजधानी रांची के प्रसिद्ध बिरसा चौक पर आंदोलनरत गवमेंर्ट पॉलीटेक्निक सिल्ली के छात्र सरकार और नीति निर्माताओं की नीतिगत खामियों और लचर व्यवस्था के कारण ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, जहां उनका भविष्य, टेक्नो इंडिया और झारखंड सरकार के बीच मान्यता संबंधी पेच में उलझकर अंधकारमय हो गया है। आश्चर्य नहीं होगा, यदि इन विद्यार्थियों में से कोई अपनी जिंदगी से हार जाए, लेकिन ये एक विकासशील श्रेणी वाले प्रगतिशील राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है। लेकिन सरकार तंगहाली और बदहाली के बीच खोखली घोषणाओं में आत्ममुग्ध हुए जा रही है। कोटा में लगातार बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं के बीच अब तक सरकार की नींद खुली है, यह विचार करना भी संदिग्ध है।शिक्षा ग्रहण कर देशसेवा का जज्बा रखने वाले दर्जनों छात्रों की मौत, ताजा जारी शैक्षिक सर्वेक्षण, झारखंड, बिहार, यूपी समेत अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों की बदहाली और कान्वेंट स्कूलों में बढ़ता सपनों और उम्मीदों के साथ बस्तों का बोझ इस ओर इशारा कर रहा है कि शिक्षा उत्थान और विकास के लिए है, इसमें काबिलियत आ गई तो धन भी हासिल हो जाएगा, लेकिन ये प्राथमिक नहीं है। इसलिए माता-पिता को अपनी उम्मीदें बच्चों पर थोपने से बचना होगा और उन्हें अपनी काबिलियत के हिसाब से कॅरियर चुनने की आजादी देनी होगी और नीति निर्माताओं को भी शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी और सुधार की दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे। अन्यथा फिर कोई रूबी कुमारी, दर्जनो फंदे, सुसाइड नोट, बढ़ती बेरोजगारी और तनावग्रस्त युवावर्ग सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन निर्माण के लक्ष्य के साथ-साथ श्रेष्ठ भारत के गर्वीले स्वप्न को मुंह चिढ़ाते रहेंगे।

लेखक
सूरज कुमार
suraj.thakur101@yahoo.com



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