विश्व शिक्षक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अमृतत्व का
उपदेशक बनकर भारतवर्ष में जन्म लिए। उन्होंने विश्व के जनसमुदाय से कहा कि
प्रेम ज्ञान के ग्रंथ को खोलने से नहीं, बल्कि हृदय ग्रंथि को खोलने से
होता है और वही आदमी छोटे-छोटे जीव-जंतुओं से लेकर बड़े से बड़े प्राणियों के
प्रति दया भाव रख सकता है। अन्यथा किसी और के लिए यह संभव नहीं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही आदर्शवादी
रहा है। उनका मानना था कि किसी भी देश और समाज की उन्नति और अवनति, उस देश
के प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित शिक्षा पर निर्भर करता है। गांधीजी के
अनुसार शिक्षा का उद्देश्य महज साक्षर होना नहीं बल्कि शिक्षा का उद्देश्य
आर्थिक आवश्यकता की पूर्त्ति का जरिया होना चाहिए। यह तभी संभव है जब
शिक्षा प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित होगी । गांधीजी वर्तमान शिक्षा
पद्धति से दुखी रहा करते थे। उनका मानना था कि वर्तमान शिक्षा में अध्यापक,
विद्यार्थी को योग्य बनाने के दायित्व से रहित हैं ।
आज के अध्यापक पर विद्यार्थी को योग्य बनाने का भार जितना होना चाहिए, उतना नहीं है। अध्यापक को प्रशिक्षण एवं चयन में हर विद्यार्थी के गुण, शील-चरित्र तथा शिक्षण कार्य के प्रति उसके समर्पण भाव का आंकलन करना चाहिए तथा उसके अनुसार उसकी शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए। मानवीय चरित्र निर्माण के लिए भी शिक्षा में आवश्यक पाठ्यक्रम का विकास होना चाहिए।
वे चाहते थे कि विद्यार्थी के
मस्तिष्क पर किताबों का बोझ कम हो। स्कूल-कालेज के प्रवेश एवं नियुक्तियों
में राजनीतिक हस्तक्षेप न हो। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही राजनीति से
अलग हों। उनके अनुसार वर्तमान शिक्षा में यदि आधारभूत शिक्षादर्शन का
सिद्धांत हो तो विद्यार्थियों के भटकने से काफी हद तक रोका जा सकता है
क्योंकि एक चिंतामुक्त व्यक्ति ही देश का उत्तम नागरिक बनकर अपने परिवार को
सुख, समाज को समृद्धि और राष्ट्र को शांति दे सकता है। उनके अनुसार
सुंदर-स्वस्थ जीवन बिताने के लिए, शिक्षा में योग-शिक्षा का होना अति
आवश्यक है। इससे शरीर, मन और हृदय का सामंजस्य बना रहता है जो किसी भी
राष्ट्र के स्वास्थ्य से सीधा संबंध रखता है। भारतीय चिंतकों, ऋषियों,
मुनियों ने पृथ्वी के आरंभकाल में ही इसकी नीव रख दी थी और कहा था कि यह
शिक्षा समाज की अलग-अलग परंपराओं में रहकर भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
हस्तांतरित होती हुई, देश की एक विशिष्ट पहचान के रूप में बनी रहेगी। दुख
की बात कहिए भारत का स्वर्णिम अतीत और भारतीयों की अदभुत जीवंत अभिव्यक्ति
का पर्याय, यह योगशिक्षा धीरे-धीरे हमारे समाज से बिल्कुल विलुप्त होती चली
गई। कारण गरीबी, बेकारी जो भी हो, गांधीजी ने बुनियादी शिक्षा के
पाठ्यक्रम के अंतर्गत शिल्प जैसे करघे पर सूत कातना, बुनाई करना, लकड़ी,
चमड़े, मिट्टी का काम, पुस्तक कला, मछली पालना, बागवानी, शारीरिक शिक्षा,
बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान अनिवार्य रूप से आधारित किया । उनके अनुसार
शिक्षा जब तक व्यवहारिक नहीं होगी, तब तक शिक्षा अधूरी रहेगी। गांधीजी की
यह आदर्शवादी शिक्षा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति की प्रेरणा देती है। उनका
सोचना था कि बालक की रुचि के अनुसार प्रयोजनवादी शिक्षा जो कि उनके भविष्य
से सीधा जुड़ा होता है, अगर नहीं दी जाती है तो ऐसी शिक्षा सिर्फ साक्षरता
को दर्शाती है। उन्होंने लिखा कि बुनियादी शिक्षा मुफ्त हो, जिससे देश का
बच्चा-बच्चा इससे लाभान्वित हो सके।
साभार : डेली न्यूज नेटवर्क
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