जूते उस पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से बाहर हो रहे हैं, जिस प्रणाली ने हमारे बचपन में जूतों की घुसपैठ कराई थी।


ब्रिटेन के डर्बी में फिन्डर्न प्राइमरी स्कूल ने अपने छात्रों से कहा है कि वे कक्षा में जूते नहीं, बल्कि स्लिपर्स अथवा चप्पल पहनकर ही आएं। इस स्कूल की प्रधानाचार्या एम्मा डिटचेनर का यह मानना है कि जूते बिना पहने बच्चे स्कूल में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। कहा जा रहा है कि इससे बच्चे ज्यादा आराम महसूस करते हैं। उन्हें घर जैसा वातावरण महसूस होता है। कक्षा में जूतों का शोर न होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक शांति बनी रहती है। पढ़ने में उनका अधिक मन लगता है, और उनके नंबर या ग्रेड्स भी कहीं बेहतर होते हैं। इससे बच्चों का व्यवहार पूरी तरह बदल जाता है। जूते न पहनने के लिए प्रोत्साहित करने वाला ब्रिटेन का यह अपने-आप में पहला स्कूल है। हालांकि यूरोप के बहुत से देशों में यह तरीका पहले से ही अपनाया जा रहा है। स्केनडिनेविया के देशों में तो इस पर अच्छा-खास जोर है। इंग्लैंड की ही बॉर्नमाउथ यूनिवर्सिटी ने 25 देशों के बच्चों पर दस साल अध्ययन किया, तो पता चला कि जो बच्चे जूते पहनकर नहीं आते, वे कहीं जल्दी स्कूल पहुंचते थे। स्कूल से भागने की भी उन्हें कोई जल्दी नहीं होती थी, और पढ़ने में भी उनका मन अपेक्षाकृत अधिक लगता था। यही नहीं, बच्चों में लड़ने-झगड़ने की आदत भी कम पाई गई। इस अध्ययन के दौरान बॉर्नमाउथ यूनिवर्सिटी के लोग न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के कई स्कूलों में भी गए। लंदन के एक स्कूल का भी उन्होंने अध्ययन किया। वहां बच्चों के जूते न पहनने की आदत को परखा गया।इस अध्ययन को हम जैसे लोग चकित होकर ही देख सकते हैं।

जूते उस पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से बाहर हो रहे हैं, जिस प्रणाली ने हमारे बचपन में जूतों की घुसपैठ कराई थी। एकदम सुबह दिखने वाली प्रेस की हुई साफ ड्रेस, कमर में कसी हुई बेल्ट और पैरों में चढ़े जूते-मोजे इस बात की पहचान थे कि बच्चे किसी अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। मौसम चाहे वसंत का ही क्यों न हो, स्कूल जाने वाली लड़कियां हमेशा नीरस ग्रे रंग की स्कर्ट और सफेद कमीज ही पहनेंगी। देश का मध्यवर्ग ही नहीं, उच्चवर्ग भी शिक्षा की इस नीरसता को दशकों से जी रहा है। बचपन में घर में दादी, मां और पिता का इस बात पर विशेष जोर रहता था कि जूते हर हाल में घर के बाहर ही उतारे जाएं। 

कहा जाता था कि जूतों में हर जगह की गंदगी लगी होती है, इसलिए उन्हें घर के अंदर नहीं लाना चाहिए। हालांकि इसके पीछे की एक सोच यह भी थी कि जूते मृत जानवर के चमड़े से बनते हैं और ऐसी अपवित्र चीज को पवित्र घर में प्रवेश नहीं करने दिया जाना चाहिए। यह ज्ञान अनुभवजन्य था, मगर बिना किसी कथित रिसर्च के कही गई बातों की कोई कीमत नहीं होती। हमारी नजरों में भी नहीं थी। नंगे पैर रहना ग्रामीण जीवन और उसके आगे बेहद अपमानजनक शब्द गंवार होने का प्रतीक था। तब हम सब उनका मजाक यह कहकर उड़ाते थे कि अपना बुढ़िया पुराण अपने पास ही रखो, और जान-बूझकर बाहर पहने जाने वाली चप्पल और जूते लेकर घर भर में इधर-उधर घूमा करते थे। यहां तक कि रसोई को भी नहीं बख्शते थे। मां और दादी चाहे जितना चिल्लाएं, नाराज हों, डांटें, डपटें, गालियां दें, मगर हमारे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी। तब जेहन में जूतों की घर के भीतर-बाहर सुनाई देने वाली खट-खट और उससे उपजती अकड़ बहुत आकर्षित करती थी। तब पढ़े-लिखे होने और माने जाने का यही नजरिया था कि जूते पहनकर कहीं भी जाया जा सकता है। नंगे पैर रहना भी कोई रहना होता है भला? दादी और मां के अलावा हमारे पांव कितने साफ-सुथरे और चमकीले दिखते थे। यह तर्क तो था ही कि जूते पहनकर पैरों के तमाम तरह के इन्फेक्शन से बचा जा सकता है। तब यह भुला दिया गया कि पैरों के जरिये बाहर की जो गंदगी, कीचड़, धूल और मिट्टी हमारे घरों में आती है, वे कितने तरह के रोग बांटती है। हालांकि दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में आज भी जूते घर से बाहर उतारने की परंपरा को लोगों ने बहुत हद तक बनाए रखा है। इस लेखिका ने मुंबई जैसे महानगर और केरल के कोचीन में भी ऐसा होते देखा था कि लोग घर में घुसने से पहले जूते बाहर उतारते हैं। मगर यह सोच अब भी हमारे बच्चों के स्कूलों से कोसों दूर है।

लेखिका
क्षमा शर्मा
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
Enter Your E-MAIL for Free Updates :   

Post a Comment

 
Top