टीवी या विडियो गेम में पर्वत, समुद्र, जंगल को देखकर वाओ कहने वाले बच्चे अपने बंद घरों से बाहर जाने से कतराने क्यों लगे हैं? क्या वे एक अवास्तविक संसार में रहना ज्यादा पसंद करते हैं? प्रकृति को अपनी इंद्रियों से महसूस करना, सूंघना, छूना, चखना नहीं चाहते? क्या टेक्नोलॉजी हमें सचमुच वास्तविक संसार से भौतिक रूप से अलग दिए दे रही है और प्रत्यक्ष ऐंद्रिक अनुभूति की जगह सोच-विचार और निरर्थक कल्पनाओं ने ले ली है? ये बच्चों की परवरिश और शिक्षा से जुड़े गंभीर मुद्दे हैं। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर नाव में बैठे थे और टिमटिमाते दिए की हल्की रोशनी में सौंदर्यशास्त्र पर किताब पढ़ रहे थे। जब आंखों पर ज्यादा जोर पड़ने लगा तो थक कर एक ओर किताब रख दी और आसमान को देखा। पूर्णिमा के चांद और अगिनत सितारों के साथ रात अपने सौंदर्य के शिखर पर थी, और टैगोर को लगा जैसे समूची सृष्टि ही उनका और उनके सौंदर्यशास्त्र का मखौल उड़ा रही थी। जब सामने प्रकृति अपना सौंदर्य पूरी उदारता के साथ लुटा रही हो, ऐसे में सौंदर्य शास्त्र की मृत पुस्तक में चित्त लगाने को एक विडंबना ही कहा जाएगा।जंगलों और पहाड़ों पर, खुले नीले आसमान के नीचे दौड़ लगाने और खेलने कूदने वाले बच्चे अब कहां गए। जिन शहरों में पार्क हैं, वहां भी बच्चे कम दिखते हैं, डॉक्टरों की सलाह पर टहलने वाले अधेड़ ज्यादा। खुले आकाश और घर के भीतर बंद रहने वाले बच्चों के बीच फासला बढ़ता चला जा रहा है और इसपर अमेरिकी लेखक रिचर्ड लॉव ने गहरा शोध किया है अपनी किताब लास्ट चाइल्ड इन द वुड्स में। कुदरत की कमी से होने वाली ग्रुणता पर उन्होंने बड़े विस्तार के साथ लिखा है इस मशहूर पत्रकार और लेखक ने।नीम की पत्तियां झरने से आज की पीढ़ी का मन उदास क्यों नहीं होता? क्यों किसी गुलाब के गरिमामय सौंदर्य पर वे रीझ नहीं जाते? क्या मशीनों, तारों और चार्जर से बंधा हुआ जीवन हमेशा के लिए अतृप्त नहीं रह जाएगा? जिस कुदरत का हम हिस्सा हैं, उससे ही खुद को काट कर अलग कर देना हमें प्रभावित नहीं कर रहा। वैज्ञानिक और खास तौर पर मन के विशेषज्ञए अवधान के अभाव, मोटापे और अवसाद जैसे संकटों को इसी अजीबो गरीब जीवन शैली से जोड़ कर देख रहे हैं और सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह अभूतपूर्व संकट बच्चों के जीवन में प्रकृति की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं?बच्चों और वयस्कों के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए प्रकृति का साथ कितना जरूरी है इस विषय पर कई लोग नए सिरे से शोध कर रहे हैं। भारतीय मूल के अमेरिकी डॉक्टर दीपक चोपड़ा मूलत: एलॉपथी से एम डी हैं पर उन्होंने पश्चिम में आयुर्वेद को खूब लोकप्रिय बनाया और कई किताबें लिखीं जो लाखों की संख्या में बिकती हैं। दीपक चोपड़ा तो यह तक कहते हैं कि यदि आप कंक्रीट जंगल में रहते हैं तो वहां भी एक वर्ग फुट की जमीन को भी कच्चा ही छोड़ दें और उस जमीन पर कुछ देर खड़े रहें! धरती के साथ देह का सीधा संपर्क किसी भी तरह टूटने न पाए, इस बारे में कई लोग जागरूक भी हो रहे हैं और यह एक बहुत ही सकारात्मक बात है। अमेरिका में बच्चों को जिस दर से अवसाद से मुक्त होने की दवाइयां दी जा रही हैं, वह पिछले पांच सालों में तीन गुना बढ़ चुकी है। हमारे देश में भी खास कर शहरों में ऐसे बच्चों की तादाद बहुत अधिक बढ़ी हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

प्रकृति के साथ संबध के अभाव में ही यदि मानव मन गु्रण हो रहा है तो इसे समझने की गहरी जरूरत है। यह एक ऐसी अवस्था नहीं जिसके लिए हमारे बच्चों को चिकित्सकीय मदद की जरूरत पड़े ही। यह बस एक टूटे हुए रिश्ते को फिर से जोड़ने की बात है। यह काम प्राथमिक शिक्षा और घरेलू स्थितियों, वातावरण में परिवर्तन केे साथ शुरू हो सकता है। बच्चों के स्कूलों में कुछ समय ऐसा निर्धारित किया जाना चाहिए जब वे किसी वृक्ष के साथ, कच्ची जमीन पर कुछ देर के लिए ही सही, शांत बैठ सकें और आस पास आने वाली आवाजों को सुन सकें। शहरों में होने वाले वाहनों के शोरगुल के बीच वे उन आवाजों को भी सुनने की कोशिश करें जो प्रकृति से उपजती है, जैसे चिड़ियों की चहचाहटए या पत्तियों से होकर गुजरने वाली हवा की आवाज। इस तरह के श्रवण और अवलोकन का अभ्यास नियमित रूप से बच्चों को और साथ ही शिक्षकों को, अभिभावकों को भी करना चाहिए। विचार-केंद्रित जीवन और ज्ञान एवं सूचना को बटोरने पर जोर देने वाली शिक्षा की जगह मंद पड़ती ऐंद्रिक जीवंतता और तीव्रता को जगाने की जरूरत है। 

जब हम कुदरत के साथ एक शांत, मौन संवाद में होते हैं, तो अपने आप ही एक खामोशी उतरती है मन में। यह कोई काल्पनिक, छायावादी, आध्यात्मिक अनुभूति नहीं, हम सब ने पर्वतों को देखकर या फिर समंदर के सामने खड़े होकर खुद को अचंभित होते, शांत होते देखा है। जब हम इन जगहों पर बार-बार, भागे भागे जाते हैं तो अचेतन स्तर पर हम उसी मौन की खोज में, अपनी रोजमर्रा की खिच-खिच से दूर होने के लिए ही जाते हैं। यह बात अलग है कि वहां जाकर भी हम आदतन और अधिक उत्तेजनाए और अधिक सुख की तलाश में लग जाएं पर हमारा अचेतन उद्देश्य मौन की खोज ही होता है। बच्चों को इसका महत्व छोटी उम्र से ही बताया जाएए तो इसके कई फायदे होंगें। आक्रामकता आज की सबसे बड़ी समस्याओं में है। प्रकृति के साथ रहने पर यह स्वाभाविक रूप से कम होती है, इसे अनुभव करके ही जाना जा सकता है। एक अव्यवस्थित, चिंतित मन जब अचानक ही जीवन के एक शांत, स्थिर और विराट आयाम के संसंर्ग में आता है तो उसे खुद से इतर भी कुछ दिखता है, और वही क्षण ऐसा होता है जब उसे इसका मूल्य भी समझ में आता है। यह एक बार भी हो जाए, तो मन की अव्यवस्थित अराजक सी दिखने वाली स्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है। प्रकृति के साथ रहने के फायदों के साथ उन बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनके कारण बच्चों को आजकल बाहर भेजना संभव नहीं हो पाता। बाहर असुरक्षा भी है, किसी प्राकृतिक जगह जाना शहर वालों के लिए संभव नहीं भी हो पाता। समय की कमी है और ट्रैफिक बहुत ज्यादा। कोलकाता जैसे शहर में ढाकुरिया लेक तक जाना उपनगरीय इलाकों के लोगों के लिए संभव नहीं भी हो सकता। वैसे ही चेन्नई में थियोसोफिकल सोसाइटी के छह सौ एकड़ में बने पार्क में हर कोई कैसे जाए। वहां अनुमति की जरूरत पड़ती है। ये सभी जगहें तो संभ्रांत लोगों के लिए बनी हैं, बच्चों के लिए नहीं। इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में भी एक कलेक्टर या कमिश्नर टहलने आता है तो वहां प्रहरी और आम लोग भी ज्यादा सतर्क हो जाते हैं। प्रकृति सभी के लिए लिए और उसने गरीब और अमीर के बीच कोई फर्क नहीं किया, पर हमने उसपर एक कीमत का टैग लगा दिया है। प्रकृति की स्नेहपूर्ण अभिव्यक्ति है उसकी सहज, सरल, नि:शुल्क उपलब्धता में। हमने इस कानून को ही बदल दिया और इसे लोगों के लिए ही एक उपभोग की चीज बना डाला! 

आधुनिक जीवन के दबाव के बावजूद प्रकृति की पर्याप्त उपस्थिति कैसे हमारे जीवन में बनी रहे, यह अभिभावकों और शिक्षकों के लिए विचारणीय विषय है। बच्चों पर तो चौतरफा प्रहार हो रहे हैं। एक तो बच्चों का कुदरत से दूर रहना, उसके दुष्परिणाम भुगतना और उसपर पढ़ाई का अनावश्यक दबाव। अच्छे अंकों पर जोर देते ‘मार्क्सवादी’ शिक्षक और माता पिता। काश हमे अहसास होता कि बच्चे को शिक्षा के नाम पर हम किस यातना में झोंक दे रहे हैं। आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल नहीं करने के प्रावधान की समीक्षा करने की सिफारिश की जा रही है। आरटीई (राइट टू एजुकेशन) में यह प्रावधान इसलिए था कि काफी संख्या में बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ रहे थे। अब इसे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव डालने वाला बताया जा रहा है। नीति आयोग का कहना है कि इस प्रावधान के कारण बड़ी कक्षाओं में जाकर भी बच्चों को छोटी कक्षाओं का ज्ञान नहीं हो पाता। 

पर खौफ में जीकर सफल होने से बेहतर है कि हम एक थोड़े कम पढ़े लिखे पर निर्भीक बच्चों के विकास पर जोर दें। नहीं क्या? भय तो पूरे जीवन के लिए बच्चे के मन में जड़ें जमा लेगा और उसके हर संबंध को प्रभावित करेगा। ऐसी स्थिति में सफल और धनी बनकर भी क्या होगा? कुदरत का साथ क्या भय जैसे नकारात्मक भावों से भी मुक्त कर सकता है? वर्ड्सवर्थ जैसे लोग तो यही मानते हैं और इसीलिए कहते हैं: आओ, प्रकाश में आओ, प्रकृति को अपना साथी बनाओ! प्रकृति को कई चिंतक और दार्शनिक एक चिकित्सक और वैद्य की तरह देखते हैं, जो कई मानसिक बीमारियों से हमें मुक्त कर सकती है।

लेखक
चैतन्य नागर
chaitanyanagar@gmail.com

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