कॉलेज में एमए के आखिरी वर्ष में पढ़ने वाली उस छात्रा के आंसू थम ही नहीं पा रहे थे। उसकी समस्या यह थी कि उसके एक वरिष्ठ शिक्षक उसकी बात ही नहीं सुन रहे थे। उसे एक अध्याय का कोई खास हिस्सा समझने में दिक्कत आ रही थी और शिक्षक अपनी कक्षा में आ ही नहीं रहे थे। इतना ही नहीं, वह उसी छात्रा के व्यवहार को कक्षा में न जाने का कारण बता रहे थे। वह छात्रा रोते-रोते बताए जा रही थी कि इस वजह से वह चार रातों से सो भी नहीं पाई है और बहुत अधिक तनाव में है। गौर से देखें तो इसके दो पहलू हैं- पहला तो है ज्ञान और सूचना को लेकर शिक्षक का अहंकार और दूसरा है कक्षा से बाहर शिक्षक और छात्र के बीच मैत्रीपूर्ण संवाद का अभाव। पुस्तक और शिक्षक केंद्रित शिक्षा, ज्ञान व सूचना का संवर्धन और महिमामंडन और इसके परिणामस्वरूप शिक्षक के व्यवहार में उपजने वाला एक अनावश्यक अहंकार। इसने शिक्षा को एक बोझ बना डाला है। 

यह स्पष्ट है कि बगैर स्नेह और मैत्री भाव के किसी को शिक्षक बनने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सही शिक्षा सिर्फ चार दीवारों के बीच मृत कुर्सियों और मेजों के साथ शिक्षक और छात्र के बीच एक दूरी कायम रखते हुए ज्ञान और सूचनाओं के संप्रेषण तक ही सीमित नहीं रह सकती। उसे कक्षा से बाहर छात्र और शिक्षक के बीच जीवन की समस्याओं पर एक सार्थक संवाद के जरिए भी संप्रेषित किया जाना चाहिए। यह तभी मुमकिन होगा जब शिक्षा शुद्ध रूप से पुस्तक और शिक्षक केंद्रित न रहे, जीवन और छात्र पर केंद्रित हो। यदि शिक्षक और छात्र के बीच स्वस्थ संबंध हैं, स्नेह और सम्मान है तो फिर पढ़ना-लिखना, विषय को समझना, यह सबकुछ इस सही संबंध का एक सह उत्पाद मात्र होगा। उसके लिए थोड़ा प्रयास ही काफी होगा और छात्रों को विषयों के बोझ के अलावा अपने आपसी संबंधों में उपजती पीड़ा पर समय और ऊर्जा व्यर्थ नहीं करनी पड़ेगी। 

शिक्षा का यह एक आतंरिक संघर्ष है, विषय दुरूह लगते हैं, बढि़या अंक लाने का दबाव है और ऊपर से मानवीय संबंधों की सामान्य दिक्कतें। यह सब सिर्फ इसलिए है, क्योंकि शिक्षक और छात्र संबंधित महसूस नहीं करते। यदि करते भी हैं तो सिर्फ सतही स्तर पर। यहां दिए गए दृष्टांत में मैंने छात्रा को कोई समाधान नहीं सुझाया, न ही मैंने शिक्षक से कोई बात की, बस मैंने उसकी बात को गौर से सुना और अपनी बात पूरी करते-करते ही उसके माथे पर सलवटें कम होने लगीं- उसकी व्यग्रता, आक्रोश, थकान स्वयं कम होने लगे। ऐसी समस्याओं का सबसे अच्छा समाधान है कि आप पहले व्यथित छात्र की बात शांति से सुन लें और यदि उसे पूरे अवधान के साथ सुना जाता है, बीच में उसे कोई फैसला नहीं सुनाया जाता, न ही शिक्षक की आलोचना की जाती है तो छात्र खुद से ही अपनी समस्याओं के अलग- अलग पहलुओं को देख पाता है और उनकी आंतरिकता को भी समझ पाता है। उसे अपनी समस्या में स्वयं का योगदान भी दिखाई पड़ता है और तभी अपनी समस्या को उसकी समग्रता में समझने की तरफ वह अपना पहला कदम उठा चुका होता है। क्या इस तरह के आतंरिक अन्वेषण और शिक्षा में कोई विरोधाभास है? क्या परंपरागत शिक्षा के साथ शिक्षण संस्थानों में इस तरह का अस्तित्वगत संवाद संभव नहीं? क्या शिक्षा को एक सहयात्रा की तरह नहीं देखा जा सकता जिसमें एक स्तर पर तो ज्ञान आवश्यक है, इसलिए शिक्षक की एक खास भूमिका है, पर दूसरी ओर यह भी सच है कि जीवन और मन को समझने के संदर्भ में अक्सर छात्र और शिक्षक एक ही नाव में सवारी कर रहे होते हैं। छात्र के संस्कार उतने गहरे नहीं होते और अनुभवों की मार उसकी सोच को इतना अधिक विकृत नहीं बना चुकी होती है, जितना किसी शिक्षक को। ऐसी स्थिति में क्या अक्सर जीवन की समस्याओं का किसी युवा छात्र के पास एक बेहतर समाधान नहीं होता? हो सकता है, और इसकी संभावना ज्यादा प्रबल भी है, पर पूर्वनिर्मित धारणाओं, पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत अहंकार की वजह से कोई संवाद ही संभव नहीं होता।जब महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म नाम से एक स्कूल खोला था तो उसमें एक बच्चा बड़ा अनुशासनहीन और उपद्रवी था। बार- बार समझाए जाने के बाद भी उसका उपद्रव शांत नहीं होता था। आखिरकार एक दिन हारकर गांधीजी ने उसे छड़ी से मारा। उन्होंने लिखा है कि ऐसा करते वक्त वह भीतर तक कांप उठे। उन्हें तुरंत यह महसूस हुआ कि उन्होंने बच्चे को सही करने के मकसद से नहीं मारा, बल्कि अपना क्रोध व्यक्त करने के लिए ही मारा था। इसके बाद गांधीजी लिखते हैं कि तभी से वह बच्चा मेरा शिक्षक बन गया! क्या किसी छात्र को शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दंड देते समय शिक्षक अपने इरादों पर भी एक नजर रख सकता है? क्या वह यह देख सकता है कि छात्र के साथ उसके संबंध में उसका स्व भी उद्घाटित हो रहा है और उसे समझना भी शिक्षा का एक अहम हिस्सा है? यदि ऐसा नहीं होता तो शिक्षा सिर्फ एक मृत चीज बनकर रह जाती है। यही शिक्षा जन्म देती है पढ़े-लिखे आतंकवादियों को, शिक्षित पर दहेज के भूखे इंजीनियरों को, रिश्वतखोर सरकारी अधिकारियों को और पूरी तरह जाति और धर्म के नाम पर विभाजित एक समाज को। क्योंकि मृत शिक्षा जिसमे सही मूल्यों का संप्रेषण न हो, जिसमें शिक्षक और अभिभावक दोनों बच्चों को गौर से सुन भी न सकें, वह एक ऐसी पीढ़ी को ही तैयार करेगी जो क्रोध और प्रतिस्पर्धा के भाव से पीड़ित होगी जो असंवेदनशील होगी। उनमें ज्यादातर बच्चे वही होंगे जिनके अभिभावक और शिक्षक ने कभी प्यार से उनका हाथ थामकर नहीं कहा होगा कि तुम बोलो मैं सिर्फ सुनता हूँ और मैं वास्तव में तुम्हारा सम्मान करता हूँ, तुमसे स्नेह रखता हूँ। शिक्षा के इन पहलुओं पर गौर करना कितना जरूरी है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं। इन्हें अनदेखा करने के परिणाम स्पष्ट देखे जा सकते हैं और ये परिणाम ही अपनी कहानी खुद कह देते हैं और बता देते हैं कि हमारी चूक कहां हो रही है। शिक्षा के स्वरूप को बदलना इसलिए बहुत जरूरी हो जाता है। विषय के साथ-साथ पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले के बारे में भी सीखने की जरूरत है। ये सभी एक ही गति का हिस्सा हैं- शिक्षक, शिक्षा और शिष्य। इन्हें अलग करने का अर्थ है समेकित शिक्षा की मूलभूत समझ को कमजोर करना। इनके आपसी संबंध एक गहरी समझ पर आधारित होने चाहिए, उनमें भरपूर स्नेह और सम्मान होना चाहिए। शिक्षा कोई लक्ष्योन्मुख यात्रा नहीं। यह एक बिंदु से चलकर दूसरे पूर्वनिर्धारित बिंदु तक जाने की प्रक्रिया भर नहीं। इसकी पूरी संभावना है कि वास्तविक सीख प्रारंभिक और अंतिम बिंदु के साथ ही बीच के मार्ग में भी हो। यह समूचे मार्ग के प्रत्येक बिंदु पर है।
 
लेखक
चैतन्य नागर
chaitanyanagar@gmail.com

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