वर्तमान व्यवस्था और प्रक्रिया को देखकर लगता है कि बेसिक शिक्षा परिषद के विद्यालयों में शिक्षा की गिरती गुणवत्ता के लिए केवल अध्यापक ही जिम्मेदार है और अध्यापक को केवल डंडे के जोर पर ही सुधारा जा सकता है। शिक्षा विभाग इसी अवधारणा को सच मानते हुए समय समय पर सघन निरीक्षण अभियान चलाकर इस स्थिति के लिए जिम्मेदार अध्यापकों की धरपकड़ करता है और उन्हें दण्डित करता है। कई जनपद के जिलाधिकारी वाकायदा सघन निरीक्षण अभियान चलाकर ऐसे कामचोर और लापरवाह अध्यापकों पर सामूहिक कार्यवाही कर शिक्षा को सुधारने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इन कार्यवाही की मीडिया में ख़बरें प्रकाशित होने से आम जनमानस की धारणा बन गयी है कि सरकारी अध्यापक अपने कर्तव्यों के प्रति कामचोर है।
ताज्जुब की बात यह भी है कि बेसिक शिक्षा विभाग और जिला प्रशासन द्वारा वर्षों से अध्यापकों पर नकेल कसने और उन्हें दण्डित करने के बाबजूद अभी तक ना तो शिक्षा व्यवस्था सुधरी और ना ही इसकी कोई उम्मीद दिखती है। शासन स्तर पर होने वाली ज्यादातर बैठकों में उपस्थित अधिकारी, शिक्षा की समीक्षा में गिरती स्थिति के लिए अध्यापकों को दोषी मानते हुए इन अध्यापकों पर नियंत्रण की प्रभावी योजनाओं के लिए तरह तरह के प्रस्ताव देते है जिन्हें मानते हुए हर माह कोई ना कोई सुधार मॉडल लागू किया जाता है। पर कभी भी इस बात की समीक्षा नहीं हुई कि हर बार ये मॉडल असफल क्यों हो जाते हैं?
शिक्षा की इस निराशाजनक स्थिति के बीच प्रत्येक जनपद में कुछ ऐसे भी विद्यालय है जिन्होंने अपने परिवेश में स्थित ग्रामीण क्षेत्र के निजी विद्यालयों को पीछे छोड़ दिया है और जिनकी चर्चा कर शिक्षाधिकारी भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं पर कभी इन विद्यालयों के इस रूप में विकसित होने के लिए स्वयं कोई विशेष प्रयास करते नजर नहीं आते है, हाँ इतना जरूर है कि किसी अध्यापक के व्यक्तिगत प्रयास से किसी विद्यालय के आदर्श रूप में विकसित होने पर जनपद के शिक्षाधिकारी उसका अवलोकन अपने वरिष्ठ को कराकर श्रेय लेने से नहीं चूकते हैं।
ताज्जुब की बात यह भी है कि बेसिक शिक्षा विभाग और जिला प्रशासन द्वारा वर्षों से अध्यापकों पर नकेल कसने और उन्हें दण्डित करने के बाबजूद अभी तक ना तो शिक्षा व्यवस्था सुधरी और ना ही इसकी कोई उम्मीद दिखती है। शासन स्तर पर होने वाली ज्यादातर बैठकों में उपस्थित अधिकारी, शिक्षा की समीक्षा में गिरती स्थिति के लिए अध्यापकों को दोषी मानते हुए इन अध्यापकों पर नियंत्रण की प्रभावी योजनाओं के लिए तरह तरह के प्रस्ताव देते है जिन्हें मानते हुए हर माह कोई ना कोई सुधार मॉडल लागू किया जाता है। पर कभी भी इस बात की समीक्षा नहीं हुई कि हर बार ये मॉडल असफल क्यों हो जाते हैं?
शिक्षा की इस निराशाजनक स्थिति के बीच प्रत्येक जनपद में कुछ ऐसे भी विद्यालय है जिन्होंने अपने परिवेश में स्थित ग्रामीण क्षेत्र के निजी विद्यालयों को पीछे छोड़ दिया है और जिनकी चर्चा कर शिक्षाधिकारी भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं पर कभी इन विद्यालयों के इस रूप में विकसित होने के लिए स्वयं कोई विशेष प्रयास करते नजर नहीं आते है, हाँ इतना जरूर है कि किसी अध्यापक के व्यक्तिगत प्रयास से किसी विद्यालय के आदर्श रूप में विकसित होने पर जनपद के शिक्षाधिकारी उसका अवलोकन अपने वरिष्ठ को कराकर श्रेय लेने से नहीं चूकते हैं।
आखिर क्यों ,भयग्रस्त माहौल बनाने के बाद भी अधिकांश विद्यालय अभी भी न्यूनतम अधिगम स्तर तक अर्जित नहीं कर पाए जबकि पिछले एक दशक में हजारों की संख्या में अध्यापकों पर दंडात्मक कार्यवाही हो चुकी है। तो क्या हमें यह स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि दंड शिक्षा सुधार के लिए प्रभावी हथियार नहीं है। अगर हम पिछले एक दशक की सभी दंडात्मक कार्यवाहियों का अवलोकन करें तो 99 प्रतिशत से अधिक कार्यवाहियाँ जिला स्तर पर निपटा ली गयी और जिन शिक्षकों पर कार्यवाही हुयी वे पहले से अधिक लापरवाह हो गए क्योंकि अब उन्हें पता है कि दंडात्मक कार्यवाही के पीछे क्या मंशा होती है और इसे किस तरह निपटाया जा सकता है ऐसे अध्यापक शिक्षक समाज में एक नकारात्मक विचारधारा के वाहक बन जाते हैं।
पिछले कुछ माह पूर्व शासन पर इस मुद्दे पर वार्त्ता हुई कि उन विद्यालयों का अवलोकन किया जाए जो अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ हैं और यह पता लगाया जाए कि उन्होंने क्या कार्ययोजना अपनाई जिससे यह परिवर्तन हुआ। अब यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि अध्यापक के व्यक्तिगत प्रयासों से ही शिक्षा में परिवर्तन संभव है तो शासन द्वारा विद्यालय के लिए प्रतिमाह जबरदस्ती थोपी गयी योजनाओं का औचित्य क्या है। हालांकि विश्व के अधिकांश शिक्षाविद मानते हैं कि किसी विद्यालय का प्रबंधन केवल वहां के प्रधानाध्यापक और शिक्षकों की कार्यकुशलता पर ही निर्भर है कोई भी सरकार शिक्षा को अपने हित के लिए नियमों के बंधन में नहीं जकड सकती है।
पिछले 2 वर्षों से सोशल मीडिया की बजह से प्राथमिक शिक्षा में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है अध्यापक फेसबुक और व्हाट्स एप्प पर बने समूहों के जरिये अपने नवाचार और कार्यों को वायरल करते हैं और बदले में उन्हें ढेर सारा प्रोत्साहन मिलता है। कम रचनात्मक अध्यापकों को घर बैठे नए आईडिया मिलते हैं जिन्हें वह अपने विद्यालयों में लागू करते हैं। नए युवा अध्यापकों ने अपने बेहतर प्रबंधन और नवाचार की दम पर कई ऐसे विद्यालय बनाए हैं जिन्हें देश के नामी समाचार चैनल अपने कार्यक्रम में आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपने निजी पैसे को भी लगाकर बदलाव की बयार चलाने वाले साथी केवल प्रोत्साहन और प्रशंसा के भूखे दिखते हैं। तो क्या हम यह मान ले कि दंड से प्रोत्साहन ज्यादा कारगर व्यवस्था है। अगर नवाचारी अध्यापकों की माने तो विद्यालय में सकारात्मक परिवर्तन के लिए दंड के साथ पुरुस्कार का संतुलन आवश्यक है। दंड से व्यक्ति उद्दंड होता है और उसका चिंतन दंड से बच निकलने के रास्ते पर ही चलता रहता है। प्रोत्साहन से व्यक्ति की सोच सकारात्मक होने लगती है और उसके कृत्य रचनात्मक होते जाते हैं।
वर्तमान में शासन स्तर पर शिक्षा सुधार का एक मात्र उपाय दंड ही निर्धारित है जबकि शिक्षा विशेषज्ञों के अनुसार इसका उपाय सहयोग और प्रोत्साहन ही है स्कूल मॉनिटरिंग में डाटा संकलन और कार्यवाही प्रेषण की बजाय निरीक्षणकर्ता को विद्यालय में कमजोर व्यवस्था और पठन पाठन के कारणों को खोजकर, उसके लिए तुरंत निलंबन और वेतन काटने जैसी कार्यवाही की बजाय, उनके समाधान की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। विद्यालय में साफ सफाई के लिए प्रधानाध्यापक को निलंबित करने की बजाय निरीक्षणकर्ता सफाई ना होने के कारण भी जानने की कोशिश करे। विद्यालय में मूलभूत सुविधाएं कैसे जुटाई जाए इसके लिए स्वयं भी विद्यालय परिवार की मदद करे। हालाँकि शासन ने डाइट स्तर पर सह समंवयक की नियुक्ति कर इसका प्रयास किया था पर उसी शासन ने इन्हें अपना बाबू बनाकर इनका दायित्व सूचना संप्रेषक के रूप में निर्धारित कर दिया और इनका चयन डाइट पर होने के बाबजूद ये सभी जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के बंधुआ क्लर्क बन गए।
जब तक जिला प्रशासन अपनी कमी को छुपाने के लिए अपनी अक्षमता का ठीकरा अध्यापकों पर फोड़ता रहेगा और समस्यायों के निदान के सहयोगात्मक तरीके नहीं अपनाएगा तब तक शिक्षा की स्थिति में सुधार की कल्पना व्यर्थ है। विद्यालय प्रवंध समिति के अधिकारों को अतिक्रमित कर और अध्यापकों को आदेशित कर शासन विद्यालय में बच्चे इकट्ठे तो करवा सकता है पर उन्हें शिक्षित नहीं कर सकता है। न्यूनतम व्यवस्था से सरकार शिक्षा के आंकड़े तो तैयार कर सकती है पर लोगों को कुशल नागरिक नहीं बना सकती है। शिक्षा के लिए न सिर्फ अध्यापकों को ही आगे आना होगा वरन विद्यालय से जुडी छोटी से छोटी समस्या के निदान के लिए सिस्टम से जुड़े हर कर्मचारी और अधिकारी को 24*7 सहयोग के लिए तत्पर रहना होगा।
पिछले 2 वर्षों से सोशल मीडिया की बजह से प्राथमिक शिक्षा में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है अध्यापक फेसबुक और व्हाट्स एप्प पर बने समूहों के जरिये अपने नवाचार और कार्यों को वायरल करते हैं और बदले में उन्हें ढेर सारा प्रोत्साहन मिलता है। कम रचनात्मक अध्यापकों को घर बैठे नए आईडिया मिलते हैं जिन्हें वह अपने विद्यालयों में लागू करते हैं। नए युवा अध्यापकों ने अपने बेहतर प्रबंधन और नवाचार की दम पर कई ऐसे विद्यालय बनाए हैं जिन्हें देश के नामी समाचार चैनल अपने कार्यक्रम में आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपने निजी पैसे को भी लगाकर बदलाव की बयार चलाने वाले साथी केवल प्रोत्साहन और प्रशंसा के भूखे दिखते हैं। तो क्या हम यह मान ले कि दंड से प्रोत्साहन ज्यादा कारगर व्यवस्था है। अगर नवाचारी अध्यापकों की माने तो विद्यालय में सकारात्मक परिवर्तन के लिए दंड के साथ पुरुस्कार का संतुलन आवश्यक है। दंड से व्यक्ति उद्दंड होता है और उसका चिंतन दंड से बच निकलने के रास्ते पर ही चलता रहता है। प्रोत्साहन से व्यक्ति की सोच सकारात्मक होने लगती है और उसके कृत्य रचनात्मक होते जाते हैं।
वर्तमान में शासन स्तर पर शिक्षा सुधार का एक मात्र उपाय दंड ही निर्धारित है जबकि शिक्षा विशेषज्ञों के अनुसार इसका उपाय सहयोग और प्रोत्साहन ही है स्कूल मॉनिटरिंग में डाटा संकलन और कार्यवाही प्रेषण की बजाय निरीक्षणकर्ता को विद्यालय में कमजोर व्यवस्था और पठन पाठन के कारणों को खोजकर, उसके लिए तुरंत निलंबन और वेतन काटने जैसी कार्यवाही की बजाय, उनके समाधान की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। विद्यालय में साफ सफाई के लिए प्रधानाध्यापक को निलंबित करने की बजाय निरीक्षणकर्ता सफाई ना होने के कारण भी जानने की कोशिश करे। विद्यालय में मूलभूत सुविधाएं कैसे जुटाई जाए इसके लिए स्वयं भी विद्यालय परिवार की मदद करे। हालाँकि शासन ने डाइट स्तर पर सह समंवयक की नियुक्ति कर इसका प्रयास किया था पर उसी शासन ने इन्हें अपना बाबू बनाकर इनका दायित्व सूचना संप्रेषक के रूप में निर्धारित कर दिया और इनका चयन डाइट पर होने के बाबजूद ये सभी जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के बंधुआ क्लर्क बन गए।
जब तक जिला प्रशासन अपनी कमी को छुपाने के लिए अपनी अक्षमता का ठीकरा अध्यापकों पर फोड़ता रहेगा और समस्यायों के निदान के सहयोगात्मक तरीके नहीं अपनाएगा तब तक शिक्षा की स्थिति में सुधार की कल्पना व्यर्थ है। विद्यालय प्रवंध समिति के अधिकारों को अतिक्रमित कर और अध्यापकों को आदेशित कर शासन विद्यालय में बच्चे इकट्ठे तो करवा सकता है पर उन्हें शिक्षित नहीं कर सकता है। न्यूनतम व्यवस्था से सरकार शिक्षा के आंकड़े तो तैयार कर सकती है पर लोगों को कुशल नागरिक नहीं बना सकती है। शिक्षा के लिए न सिर्फ अध्यापकों को ही आगे आना होगा वरन विद्यालय से जुडी छोटी से छोटी समस्या के निदान के लिए सिस्टम से जुड़े हर कर्मचारी और अधिकारी को 24*7 सहयोग के लिए तत्पर रहना होगा।
लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन
सहायक अध्यापक
महामंत्री टीचर्स क्लब उत्तर प्रदेश
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