यहसचमुच हैरत की बात है कि स्कूल जाने वाले मासूम
बच्चों को अपने बस्ते काबोझ कम करने
को प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र के चंद्रपुरकस्बे के एक विद्यालय के सातवीं कक्षा के दो छात्रों
की शिकायत है किउन्हें सात-आठ किलो वजन तक की किताबें रोजाना अपने घर
से पांच किलोमीटरचलकर स्कूल की तीन मंजिल की कक्षा तक ले जानी पड़ती
हैं। उन्होंने अपनेबस्ते का
बोझ कम करने को लेकर प्रधानाचार्य से भी कहा, लेकिन उनकी बात परकोई ध्यान नहीं दिया गया। इन बच्चों की शिकायत पर सारे देश को गौर करनाचाहिए, क्योंकि बच्चे सचमुच स्कूली बस्तों के बढ़ते बोझ से त्रस्त हैं।एकसमय शिक्षाविदों के साथ-साथ प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में बनी समिति नेशुरुआती कक्षाओं में बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्त
करने की सलाह दी थी, क्योंकि बच्चों के कधों पर लादे जाने वाले भारी-भरकम
बस्तों के बोझ काउनकी पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता से कोई सीधा संबध नहीं
पाया गया था। समिति नेपाया था कि
बस्ते का बोझ बच्चे की शिक्षा, समझ और उनके
स्वास्थ्य पर बुराप्रभाव डाल रहा है। अब तो यह किसी से छिपा ही नहीं कि
बस्तों के भारी वजनऔर होमवर्क
के बोझ के चलते बच्चों को कई तरह का शारीरिक-मानसिक परेशानियोंसे दो-चार होना पड़ता है। बाल मनोविज्ञान से जुड़े
अध्ययन बताते हैं कि चारसाल से लेकर
12 साल तक की उम्र के बच्चों के व्यक्तित्व का स्वाभाविकविकास होता है। इस अवस्था में बच्चों के विकास के लिए
किताबी ज्ञान कीतुलना में भावनात्मक सहारे की ज्यादा जरूरत होती है।
इसी तरह यह भीसर्वज्ञात तथ्य है कि खेल-खेल में सिखाने की विधि से
बच्चों की प्रतिभाअधिक मुखरित होती है। कुछ समय पहले कई बड़े महानगरों में ऐसोचैम की ओर सेदो हजार बच्चों पर किए गए एक सर्वे से स्पष्ट हुआ था
कि पांच से 12 वर्ष केआयु वर्ग के 82 फीसदी बच्चे बहुत भारी स्कूल बैग ढोते हैं। सर्वे ने
यहभी साफकिया था कि दस साल से कम उम्र के लगभग 58 फीसदी बच्चे हल्के कमरदर्द के शिकार हैं। हड्डी रोग विशेषज्ञ भी मानते हैं कि बच्चों के लगातारबस्तों के बोझ को सहन करने से उनकी कमर की हड्डी
टेढ़ी होने की आशंका रहतीहै। एक मामले में मानवाधिकार आयोग का भी कहना था कि निचली कक्षाओं केबच्चों के बैग का वजन पौने दो किला और बड़ी कक्षाओं
के बच्चों के बैग कावजन साढ़े
तीन किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। स्कूली बच्चों की इसी समस्याको ध्यान में रखते हुए ठाणो नगर निगम ने बच्चों के
बस्तों का बोझ कम करनेकी एक पहल
की थी। निगम ने अपने अधीन चलने वाले तकरीबन ड़ेढ सौ प्राथमिक औरमाध्यमिक विद्यालयों में पहली और दूसरी कक्षा में
पढ़ने वाले बच्चों के लिएसभी की डेस्क में एक लॉकर की व्यवस्था की थी ताकि बच्चों को लादने सेछुटकारा मिल जाए। इस फैसले के तहत स्कूल की छुट्टी के
बाद बच्चा अपना बस्तास्कूल में
ही रखकर घर खाली हाथ जाने लगा था। एक अहम बात यह रही कि वहांकक्षाओं में पढ़ाई और सीखने की गतिविधियों को आपसी बातचीत
पर आधारित बनाएजाने की तैयारी भी की गई। इससे पहले सेंट्रल एडवाइजरी
बोर्ड ऑफएजुकेशनने कहा था कि दूसरी क्लास के बच्चों के बस्ते स्कूल में ही रहने चाहिए। इसीतरह केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी साल 2009 में जो दिशा-निर्देश दिए थेउनके अनुसार पहली और दूसरी कक्षा में बस्ते का वजन दो
किलोग्राम, तीसरी औरचौथी कक्षा के लिए तीन किलोग्राम, पांचवी और छठवीं कक्षा के लिए चारकिलोग्राम और सातवीं एवं आठवीं कक्षा के लिए यह वजन छह किलोग्राम रखने कीबात थी। शायद ये निर्देश कागजी ही साबित हुए, क्योंकि स्कूली बच्चों केबस्ते का वजन कम होता नहीं दिखता। यह अफसोस की बात
रही है कि खुदमहाराष्ट्र सरकार उस पहल को आगे नहीं बढ़ा सकी जो
ठाणे नगर निगम ने बस्तोंका बोझ कम
करने के सिलसिले में की थी। यदि महाराष्ट्र सरकार ने इस पहल कोअपना लिया होता तो शायद आज अन्य राज्य भी उसका पालन कर
रहे होते। आज स्थितियह है कि
देश भर में लाखों बच्चों को भारी बस्ता ढोना पड़ रहा है। इनमेंतमाम वे नामी स्कूल हैं जो कथित तौर पर पठन-पाठन के
आधुनिक तरीके अपनाए हुएहैं।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि राज्य सरकारें और
स्कूलों नेबस्तों के बोझ के मामले में मानव संसाधन विकास
मंत्रलय के निर्देशों पर भीध्यान नहीं दिया। इस मंत्रलय ने 2010-2011 में बस्तों का वजन निर्धारितकरने के बारे में दिशा निर्देश दिए थे। हमारे नीति-नियंताओं और साथ हीस्कूल संचालकों को यह समझना होगा कि अगर पहली या
दूसरी कक्षा के बच्चों केस्वभाव को समङो बिना उन पर पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाएगा तो उनकी स्वाभाविकविकास की प्रक्रिया बाधित हो जाएगी। बच्चों पर
किताबों का यह भार केवलभौतिक ही
नहीं होता, बल्कि यह उनके मानसिक विकास को भी अवरुद्ध करता है।स्कूली बस्तों के रूप में पाठ्यक्रम का भारी-भरकम बोझ
बच्चों की सहजता सेकुछ नवीन
सीखने अथवा ग्रहण करने की नैसर्गिक क्षमता को भी समाप्त कर देताहै।
समस्या यह है कि स्कूल संचालकों के फरमान के आगे
बच्चे तमाम किताबेंपढ़ने और
उन्हें ढोने को बाध्य हैं। अभिभावक भी उन्हें क्रय करने को मजबूरहैं। इसी कारण कभी-कभी स्कूल संचालकों और अभिभावकों
के बीच टकराव भी देखनेको मिलता
है। बच्चों में सीखने की क्षमता के सहज विकास के लिए कम उम्र केबच्चों के साथ बहुत संवेदनशील तरीके से पेश आने की
जरूरत है। यह तभी संभवहै जब
बच्चों की शुरुआती कक्षाओं में उनकी पढ़ाई-लिखाई को बहुत हल्का कियाजाए और साथ ही उन्हें खेल-आधारित बनाया जाए। ऐसा न
होने पर बच्चों पर अधिककिताबों का
बोझ उन्हें तमाम शारीरिक और मानसिक समस्याओं की ओर ले जाएगा।देश और समाज को समय रहते बचपन की मासूमियत बचाने की
दिशा में ठोस कदम उठाएजाने की
जरूरत है।
लेखक
डॉ0 विशेष गुप्ता
(लेखक बाल कल्याण समिति के प्रमुख एवं समाजशास्त्र केप्रोफेसर हैं)
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