हजारों स्टूडेंट्स प्राइवेट कॉलेजों में एडमिशन के लिए मोटी फीस चुकाते हैं, लेकिन जॉब मार्केट में वहां की डिग्रियों की कोई वैल्यू न होने पर उन्हें बड़ा झटका लगता है।
हायर एजुकेशन के एक बड़े प्राइवेट इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर की डेस्क पर एक स्टूडेंट की ग्रेड शीट पड़ी है और उसके अभिभावक सवाल कर रहे हैं कि ग्रेड्स इतने कम क्यों हैं। डायरेक्टर छात्र के कड़ी मेहनत न करने जैसी बातें करते हैं, लेकिन अभिभावक बीच में ही बरस पड़ते हैं, ‘क्या हमने फीस नहीं दी थी/ ग्रेड में गड़बड़ आपने कैसे कर दी/’ शिक्षा को बाजार के हवाले करने और उसे एक कमोडिटी बना देने का यह एक भद्दा पहलू है।
बाजार आदमी की हर समस्या का हल नहीं है। हालांकि हमारी जिंदगी में मार्केट इस कदर घुस आया है कि हम नैतिकता जैसे पहलुओं पर सवाल भी नहीं करते। शिक्षा संस्थानों को कंपनियों की तरह चलाया जा रहा है और तमाम मैनेजमेंट टेक्नीक्स के जरिए उन्हें प्रॉफिटेबल बनाने पर जोर है। सिद्धांत कहता है कि बाजार की होड़ में उतरने के बाद कोई भी उद्यम अपने संसाधन बेहतर करने, नए तरीके अपनाने और कस्टमर की जरूरतों का खयाल रखने पर ही टिका रह सकता है। हालांकि छात्रों और उनके पैरेंट्स को कस्टमर्स में बदलने के साथ शिक्षा को एक सर्विस के रूप में डिलीवर करने का नजरिया बदल जाता है। शिक्षा को ऐसी कमोडिटी की तरह देखा जाने लगा है, जिसका मकसद नौकरी पाना भर रह गया है। ऐसी क्वॉलिफिकेशन की ‘डिमांड’ के चलते ही इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की कुकुरमुत्तों जैसी कतार दिखने लगी है। इस मार्केट में केवल एक बात मायने रखती है कि कोर्स पूरा करने पर जॉब मिलेगी या नहीं। एजुकेशन को कमोडिटी में बदलने से प्रदर्शन के कई मानक सामने आते हैं। शिक्षा संस्थान पास पर्सेंटेज, प्लेसमेंट ट्रैक रिकॉर्ड और स्टूडेंट अप्रूवल रेटिंग्स आदि के जरिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं। इन पैमानों से फिर शिक्षकों और प्रशासकों के प्रदर्शन की दिशा तय की जाने लगती है। दरअसल बुनियादी तौर पर जो चीजें गुणात्मक तरीके से तय होनी चाहिए, उन्हें मात्रात्मक तौर पर यानी आंकड़ों में पेश करने की अपनी सीमाएं हैं और इसकी तसदीक IIPM जैसे संस्थानों के हाथों ठगे गए हजारों लोग कर सकते हैं। 
पैरेंट्स और स्टूडेंट्स को ‘कस्टमर’ मान लेने से असर यह पड़ता है कि ग्रेड्स में ढिलाई बरती जाती है, शिक्षकों की नजर स्टूडेंट्स से मिलने वाली रेटिंग्स पर रहती है, परीक्षाएं आसान हो जाती हैं, पाठ्यक्रम सामान्य हो जाता है और छात्रों को अपना स्तर सुधारने की सलाह भी पुचकारने के अंदाज में दी जाने लगती है। जिस नाराज अभिभावक की बात शुरुआत में की गई है, वह ऐसा कस्टमर है, जो चुकाई गई फीस पर सर्विस की डिमांड कर रहा है। 

हजारों युवा अपने गांवों से शहरों में आकर ऐसी डिग्री ले रहे हैं, जिनसे उन्हें जॉब्स नहीं मिल रहीं। मिल भी रही हो तो आखिर 50 लाख रुपये देकर डेंटिस्ट्री का पांच साल का कोर्स करने के बाद 15,000 रुपये महीने की जॉब पाने में क्या फायदा है/ दरअसल शिक्षा को बाजार के हवाले कर इसे कमोडिटी में बदल देने का मॉडल अपने आप में एक घोटाला है क्योंकि इसमें कस्टमर को चूस लिया जाता है, लेकिन बदले में उसे कुछ खास नहीं मिलता। शिक्षा के बाजारीकरण की विफलता स्पष्ट है। 

माइकेल सैंडेल (व्हाट मनी कैन नॉट बाय, द मॉरल लिमिट्स ऑफ मार्केट्स) ने बहुत पहले कहा था कि सिविल सोसायटी की हर समस्या का हल मार्केट के पास नहीं है। उन्होंने कहा था कि जिन गुड्स का लेनदेन हो रहा हो, अगर उनमें बदलाव न हो तो मार्केट्स की क्षमता पर भरोसा किया जा सकता है, लेकिन अगर बाजारीकरण से इस पर प्रभाव पड़ने लगे तो उन नैतिक मूल्यों का क्षरण होने लगता है, जो हमारे लिए जरूरी है।

लेखिका 
उमा शशिकांत 
(लेखिका सेंटर फॉर इनवेस्टमेंट एजुकेशन एंड लर्निंग की CMD हैं) 

    
                                                              

Post a Comment

 
Top