महाराष्ट्र के छोटे से कस्बे चंद्रपुर के एक स्कूल में सातवीं कक्षा के कुछ बच्चों ने जिस तरह भारी बस्ते के बोझ से निजात नहीं दिलाने पर भूख हड़ताल की चेतावनी दी है, उस पर शिक्षा शास्त्रियों से लेकर सरकार तक के कान खड़े हो जाने चाहिए। इन बच्चों ने कहा है कि कॉपी-किताबों से भरे सात-आठ किलोग्राम के भारी बस्ते को स्कूल की तीसरी मंजिल तक लाने-ले जाने में उन्हें काफी तकलीफ होती है। शिक्षा, समाजशास्त्री और डॉक्टर पहले ही इसे लेकर चिंतित थे कि कहीं बस्ते का वजन बच्चों की रीढ़ पर असर तो नहीं डालता है और कहीं इससे उनका विकास तो नहीं रुक जाता है, अब चंद्रपुर के बच्चों ने स्पष्ट कर दिया है कि मौजूदा शिक्षा पद्धति उन्हें बोझ उठाने के लिए कितना मजबूर कर रही है? उल्लेखनीय है कि मुंबई हाई कोर्ट ने इस वर्ष (2016) की शुरुआत में एक समिति की सिफारिश पर बस्ते का वजन कम करने का निर्देश दिया था, स्कूलों की इस मामले में जवाबदेही तय की गई थी, लेकिन हकीकत की जमीन पर इन निर्देशों पर अमल नहीं हुआ। 

असल में, देश के स्कूली बच्चे पिछले करीब दो दशक से बस्तों के वजन और उनसे पैदा होने वाली समस्याओं से जूझ रहे हैं। जैसे-जैसे उनकी कक्षा का स्तर बढ़ता है, उनके स्कूली बस्ते का वजन भी बढ़ता जाता है। हालत यह है कि स्कूली बस्ते का औसत वजन 5-7 किलोग्राम से लेकर 10-12 किलोग्राम तक न्यूनतम पहुंच गया है। यह सब तब हुआ है, जब सीबीएसई जैसे संगठनों ने प्राथमिक से लेकर माध्यमिक कक्षाओं तक के स्कूली बस्तों के वजन का एक निर्धारण कर रखा है। 

सीबीएसई के मुताबिक कक्षा दो के स्कूली बस्ते का वजन अधिकतम दो किलोग्राम, कक्षा चार तक तीन किलोग्राम और कक्षा छह तक अधिकतम चार किलोग्राम होना चाहिए, पर यह वजन असलियत में औसतन क्रमश: पांच किलोग्राम से लेकर 10-12 किलोग्राम न्यूनतम होता है। देखा गया है कि भारी बस्ते के असर से बच्चों में सिरदर्द, रीढ़ की हड्डी में दर्द से लेकर कई अन्य शारीरिक व्याधियां पैदा हो जाती हैं। वर्ष 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सुझाव दिया था कि बस्ते का वजन बच्चे के वजन के दस फीसद से अधिक नहीं होना चाहिए। पर कायदे और सुझाव अपनी जगह हैं, सच्चाई अपनी जगह। आज भी ज्यादातर स्कूली बच्चे 10-15 किलोग्राम तक के बस्तों के साथ स्कूल जाते हैं और इसकी मजबूरियां गिनाते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इससे संबंधित जो आंकड़े जुटाए हैं, उनके अनुसार देश में हरियाणा के बच्चे सबसे ज्यादा वजनी बैग ढोते हैं। इसके बाद गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के स्कूली बैग आते हैं, जिनका वजन इसी क्रम में है। यह स्थिति सरकारी स्कूलों की है। देश के अधिकतर निजी स्कूलों में तो बच्चों को 15 किलो या इससे भी अधिक वजन के बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है। गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में दूसरे राज्यों के मुकाबले स्कूली बच्चों को कम कॉपी-किताबें ढोनी पड़ती हैं। गुजरात में पहली व दूसरी क्लास में 2, तीसरी में 3, चौथी में 4, पांचवीं में 5 और छठवीं, सातवीं व आठवीं में 7 टेक्स्ट बुक (पाठ्यक्रम की किताबें) लानी पड़ती हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी क्लास 6, 7, 8 में 7 टेक्स्टबुक लगती हैं। बढ़ती कक्षा के साथ वजनी होते जाने वाले बस्ते की समस्या से शिक्षाविद और समाजशास्त्री भी चिंतित हैं, इसीलिए वे समय-समय पर इसके बारे में आगाह करते रहे हैं। सीबीएसई और केंद्रीय विद्यालय संगठन स्कूली बैग का वजन कम करने संबंधी सुझाव पहले ही दे चुके हैं। केंद्रीय विद्यालय संगठन ने वर्ष 2009 में जो दिशा-निर्देश दिए थे, उनके अनुसार पहली व दूसरी कक्षा में बैग (किताब-कॉपियों समेत) का वजन 2 किलोग्राम, तीसरी व चौथी के लिए 3 किलोग्राम, पांचवीं व छठी क्लास के लिए 4 किलोग्राम और सातवीं व आठवीं के लिए बस्ते का वजन 6 किलोग्राम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन (सीएबीई) ने भी कहा कि दूसरी कक्षा के बच्चों के बस्ते तो कायदे से स्कूल में ही रहने चाहिए।

लेखिका
मनीषा सिंह


Enter Your E-MAIL for Free Updates :   

Post a Comment

 
Top