मनुष्यता का एक जरूरी तकाजा है अपने परिवेश से जुड़े रहना और यह विश्वास बनाए
रखना कि मेरे करने से दुनिया में कुछ फर्क पड़ सकता है। तभी दूसरों की और
धरती की आश्वस्ति सुनिश्चित करने में हम अपना सहयोग कर सकेंगे। सशक्त और
सकारात्मक ढंग से दुनिया से रिश्ता स्थापित करने की कोशिश करते समय उस
रिश्ते में जो अर्थ हम डालते हैं। वह हमारी दुनियावी भागीदारी को प्रभावित
करता है। हमारे रिश्ते संवेगों, हमारी शक्ति और कमजोरियों सभी को प्रभावित
करते हैं। आज हमारे पास दूसरों के लिए सदिच्छा, उन पर ध्यान देने के लिए
धैर्य और इसके लिए अपेक्षित समय की कमी पड़ती जा रही है। अपनी इच्छाओं और
आवश्यकताओं के साथ तो जुड़ाव तो सभी को महसूस होता है पर अपने व्यापक
समुदाय के साथ रिश्ता बनाने और संवाद स्थापित करने में गिरावट आ रही है।
दूसरों को शक्ति और सामर्थ्य से संपन्न बनाने के लिए सहयोग, दया, ममता और आदर
का भाव कम होता जा रहा है। धीरे-धीरे लोग अब समाज में सक्रिय भागीदारी से
कतराने लगे हैं और अपना हाथ खींच रहे हैं। ऐसे में यदि लोग सकारात्मक
राजनैतिक या रचनात्मक परिवर्तन न ला पाने की असहायता अनुभव कर रहे हों तो
कोई आश्र्चय नहीं।हमें सोचना होगा कि भविष्य के लिए मेरी क्या आशा है ? मैं
कैसी दुनिया चाहता हूं? क्या मेरे विचार, व्यवहार हम जिस तरह की दुनिया
चाहते हैं, उसके अनुरूप हैं? क्या हम सामुदायिक जीवन के कल्याण या समृद्धि
को प्रोत्साहित कर रहे हैं? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर हमारे अपने वर्तमान
में निहित हैं। एक न्यायसंगत, शांतिपूर्ण और पर्यावरण-संवेद्य दुनिया रचने
के लिए हमें सकारात्मक पहल करनी होगी। तभी सामाजिक चेतना आ सकेगी।
शिक्षा माध्यम है दुनिया में बदलाव लाने का पर आज का पढ़ना पढ़ाना हमारे सामाजिक सरोकारों से न्याय नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए शिक्षा को समाज के साथ इस तरह सकारात्मक ढंग से जुड़ना चाहिए कि वह दुनिया के साथ लगाव को प्रोत्साहित करे और स्वस्थ सामाजिक अभिरुचि विकसित करे। इसके लिए विद्यालय को निजी या व्यक्तिगत उपलब्धि के साथ-साथ सामाजिक स्व के वास्तविकीकरण और सामूहिक उपलब्धि की भी जगह बनानी पड़ेगी।
भारतीय परम्परा में ऋण की अवधारणा
थी। व्यक्ति अपने गुरु, माता-पिता, ऋषि तथा प्राणियों के प्रति जन्म से ही
ऋण के रिश्ते में जीवन जीता था। उसका दायित्व था कि वह इनके प्रति
कर्तव्यों का पालन करे। संबंधों को लेकर इस तरह की सोच एक घने और सुदृढ़
ताने-बाने को प्रस्तुत करता है। इनमें पीढ़ियों के बीच और समकालीन जीवन के
साथ जुड़ने की व्यवस्था की गई थी। इसके लिए ‘‘यज्ञ’ करने की व्यवस्था
प्रतिपादित की गई थी। मनुष्य के जीवन की सार्थकता सिर्फ अपने सुख के लिए ही
नहीं, दूसरों के लिए सुख को बढ़ाने और उनकी पीड़ा कम करने में है। इस तरह
व्यक्ति की सत्ता को परिवार, समुदाय की बड़ी सत्ता में स्थापित किया गया
था। व्यक्ति सामाजिक इकाई का आधार नहीं था। अब व्यक्ति को केंद्र में रख कर
सामाजिकता का नया व्याकरण बन रहा है जिसमें व्यक्ति की सत्ता को ही
प्रमुखता दी जा रही है। उसे हर कीमत पर सामर्थ्यवान बनाना है। स्वाभाविक है
इस स्तर पर अपार संसाधनों की जरूरत होगी और सामाजिकता सहज स्वाभाविक न हो
कर एक तरह का उपभोग्य उत्पाद होगी। आज वृद्ध लोगों की और उन लोगों की जो
किन्हीं कारणों से असमर्थ हैं, उनकी देख-भाल कौन करे, यह प्रश्न खड़ा हो
रहा है और उसके लाभ-हानि का हिसाब लगा कर ही कोई व्यक्ति आगे बढ़ता है, जो
सामाजिकता-पारस्परिकता व्यक्ति के मूल में थी, वह धूमिल हो रही है। वैश्विक स्तर पर देखें तो पारस्परिकता के नए आयाम उभरते नजर आते हैं। आज दुनिया के
सामने कई अहम सवाल मुंह बाए खड़े हैं, जिनकी किसी भी तरह अनदेखी नहीं की
जा सकती। वैश्विक स्तर पर राजनैतिक, सामाजिक और पारिस्थितिक
परस्परनिर्भरता, आतंक, भूख, हिंसा जैसे सवालों से भागने का रास्ता नहीं है।
भविष्य में हमारा जीवन आधारभूत सामाजिक कौशल, दूसरों के लिए योगदान,
सामाजिक संगठन के प्रकार और पारस्परिकता वाली दुनिया में जीने के कौशल पर
ही निर्भर करेगा। हम मूलत: उस समुदाय के हिस्से होते हैं, जिसमें जन्म लेते
हैं और धीरे-धीरे कई समुदायों के हिस्से बन जाते हैं। अत: दुनिया से
जुड़ाव, सामाजिक योगदान, सामुदायिक सेवा और सहायता देने की शिक्षा अब बहुत
जरूरी हो चले हैं।
लेखक
गिरीश्वर मिश्र
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