न तो पॉस्को कानून कुछ कर पा रहा है और न ही बच्चों के  लिए बनीं विशेष अदालतें


पिछले दिनों दिल्ली राज्य विधि सेवा प्राधिकरण ने न्यायालय को बताया कि महानगर की विभिन्न अदालतों में बच्चों से अत्याचार और उनके यौन शोषण के 4,000 से अधिक मामले लंबित पड़े हैं। उच्च न्यायालय में एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह बात भी सामने आई कि वर्ष 2016 के शुरुआती सात महीनों में सिर्फ 449 मामलों का निपटारा हुआ और 83 लोगों पर दोष साबित हुए। याचिका डालने वाले ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ का कहना था कि जिस रफ्तार से ऐसे मामलों में काम हो रहा है, उससे यही लगता है कि इन पर फैसला आने में शायद दस साल का वक्त लग जाए। यह हाल तब है, जब बच्चों के मामले को देखने के लिए न सिर्फ पॉस्को जैसा विशेष कानून है, बल्कि दिल्ली में उनके लिए 11 विशेष अदालतें भी बनी हैं। इसके बावजूद मामले की जांच और चार्जशीट दायर करने में इतनी देरी हो जाती है कि इसका कोई अर्थ नहीं रहता।कुछ समय पहले, जब सूचना के अधिकार के तहत सरकार से जानकारी मांगी गई थी, तब भी ऐसे ही तथ्य सामने आए थे। हम विशेष अदालतों से भले ही बहुत उम्मीद बांधते हों, लेकिन तब यह राज भी खुला कि जो अदालत पॉस्को के मामलों को देख रही है, उसे ही मकोका, सेबी और पुराने टाडा व पोटा के मामले देखने थे। वही हाल सरकारी वकील का था। बच्चों पर अत्याचारों के मामले में विशेष अभियोजक तब तक नियुक्त नहीं किए गए थे और अदालत से संबद्ध अभियोजक को ही वे मामले देखने पड़ रहे थे। फॉरेंसिक लेबोरेटरी से रिपोर्ट पहुंचने में भी लंबा समय बीत जाने की बात पता चली थी। जब यह स्थिति राजधानी में है, तो फिर देश के बाकी हिस्सों में क्या होता होगा, इसका आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है। 

महिला व बाल विकास मंत्रालय का अध्ययन बताता है कि देश में 53 फीसदी बच्चे जीवन में कभी न कभी अत्याचार का शिकार होते हैं। महज छह फीसदी बच्चे ही इसके बारे में शिकायत करते हैं। यानी अधिकतर मामले दबे रह जाते हैं। जब भी बच्चों के उत्पीड़न, खासकर यौन उत्पीड़न की बात आती है, तो अक्सर बच्चों को जागरूक बनाने की बात कही जाती है। यह कहा जाता है कि बच्चों को स्पर्श के नियम बताए जाने चाहिए, ताकि वे उत्पीड़न करने वाले के इरादे को भांप सकें और खुद को बचा सकें या उत्पीड़क की समय रहते शिकायत कर सकें। हालांकि इसे बड़ा व्यक्तिवादी समाधान माना जाता है, लेकिन इसकी भी बड़े स्तर पर कभी कोशिश नहीं होती। अगर हम बच्चों को सुरक्षित बचपन देना चाहते हैं, तो हमें ऐसी कोशिशों से आगे जाकर सोचना होगा। 

अपराधियों को तुरंत सजा देने की पक्की व्यवस्था तो बनानी ही होगी, साथ ही उन सामाजिक बाधाओं को भी दूर करना होगा, जिनके चलते लोग शिकायत करने की बजाय ऐसे उत्पीड़न को नजरअंदाज करना बेहतर मान लेते हैं। 

लेखक 
सुभाष गाताडे
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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