जिस प्रकार से शिक्षक की गरिमा के प्रतिकूल हवाएँ चल रही हैं। उससे लगता है कि सर्वहारा वर्ग में शीघ्र ही शिक्षक का पद भी सम्मिलित हो जाएगा। शिक्षक के लिए वर्ष में एक दिन सम्मान का और बाकि 364 दिन अपमान के निर्धारित हुए जा रहे हैं। एक बेनाम शिक्षक के इस लेख में वर्तमान के परिषदीय शिक्षक की पीड़ाओं का निचोड़ आप पढ़ सकते हैं-
         5 सितम्बर की शाम है, रोशनी से नहाये स्टेज में झिलमिलाती लड़ियों के बीच परिषदीय शिक्षक श्री शर्मा जी अपने सम्मान के लिए आयोजित इस मंच की चकाचौंध से दंग हैं। जीवन का शायद एकलौता मौका है जब वह अपने सम्मान के मंच पर मौजूद थे। भला हो उनके पैरवीकर्ताओं का, जिन्होंने यह दुर्लभ क्षण उनके हिस्से में दिए थे। शर्मा जी मन ही मन उनको दाद दिए जा रहे थे, तन और मन बल्लियों उछल रहा था कि तभी उनकी नज़र अचानक "साहब" पर पड़ गयी। वह चारों खाने चित्त हो गए और कलेजा मुँह को आ गया। सोचा आज फिर कार्यवाही, उनके सामने मंच पर मै कहाँ आ गया? पसीना शरीर को भिगोने लगा, तभी उनकी तन्द्रा टूटी कि अरे! साहब ने ही तो बुलावा भेजा था। शर्मा जी को कुछ चैन मिला। नज़ारा ऐसा था कि जैसे बकरे को बलि के पहले सम्मानित किया जा रहा हो। शर्मा जी पहली बार सम्मान पाने के बावजूद द्वन्द की दशा में थे। सोच रहे थे कि आज सम्मान, कल क्या फिर से.....अपमान। शर्मा जी की यह द्वन्द दशा अनायास न थी। उन्होंने सेवा के दौरान ऐसे कई मौके देखे थे, जब वह और उनके साथी अपमान के साक्षी बने थे।

          शिक्षक दिवस के मौके पर स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तरों पर गुरुओं के सम्मान की रेस लगी है। डॉ0 राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस के अवसर पर शिक्षकों के योगदान को देखते हुए उनके सम्मान के लिए 5 सितम्बर को अनेक आयोजन हो रहे हैं। समाज और सरकार के इन आयोजनों की मंशा शिक्षकों को सम्मान देना है, पर क्या हमेशा के लिए? अगर नहीं तो फिर एक दिन के सम्मान का मेला आयोजित करने की क्या जरूरत? मेले को लेकर भी कई सवाल उठ रहे है, कुछ प्रायोजित तो कुछ समायोजित बताये जा रहे हैं। 364 दिन अपमान की नीतियों और रीतियों के झंझावात में डुबोने के बदले एक दिन के सम्मान का ढकोसला आखिर क्यों? कुछ शिक्षक नेताओं की चापलूसी की चाशनी में लिपटे इन पुरस्कारों से न तो सम्मान की आहट मिलती दिख रही है और ना ही गुरु की गुरुता की। इस महत्वपूर्ण मौके पर शिक्षकों के मन में यह शंका क्यों उमड़ रही है,
 जरा इसकी नज़ीर देखिये- हर जिले में शिक्षकों को रिमोट कंट्रोल से चलाया जा रहा है, उन्हें पहले से बता दिया गया कि तुमको यह करना है और यह नहीं करना है। इस दिन यह करोगे, उस दिन वह करोगे, अवकाश ऐसे लोगे, नहीं मिले तो शिकायत भी नहीं करोगे। अब लगता है कि शिक्षक को विवेक शून्य घोषित कर दिया गया है। उसके विवेक से स्कूल में कोई चीज नहीं होती।सब कुछ पूर्वनिर्धारित है, परिस्थिति निर्धारित नहीं। अब तो स्कूल समय में वह किसी के साथ न तो बैठ सकता है और न ही बात कर सकता है। अगर निरीक्षण के समय गुरु यह "अपराध" करता पाया गया तो उसकी खैर नहीं।  जब अब शिक्षक विवेक शून्य और रिमोट संचालित हो गया तो फिर सम्मान का क्या औचित्य? ऐसे विवेक विहीन अपराधियों को सम्मान देना भी सम्मान का अपमान होगा, भले ही एक दिन का ही सही। अब ऐसे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं।

         तंत्र भले ही सहारनपुर के निवासी शिक्षक से बलिया में पढ़वा ले, गाजीपुर के टीचर से मेरठ में पढ़वा ले। चाहें RTE या दूसरे नियम कानून भले ही कहें कि प्राथमिक शिक्षा का यथेष्ट प्रयास मातृभाषा में होना चाहिए लेकिन उनकी कोई गलती नहीं है, सारी गलती शिक्षक की है।चाहे बच्चा भले ही माँ के आंचल से निकलकर भोजपुरी, अवधी, बघेली, बृज या खड़ी बोली बोले लेकिन तंत्र दूसरी बोली बोलने वाले शिक्षकों से ही उन्हें पढ़वाएगा। बच्चों की समझ में न आये उनकी बला से।राज्य में कही भी तैनाती हो जायेगी, स्थानांतरण हो जायेगा लेकिन संवर्ग जिला स्तरीय ही रहेगा। इनमे भी टीचर की ही गलती है, क्यों बने बेसिक शिक्षक?

       बिना किताबें दिए, हर कक्षा के लिए बिना टीचर दिए और शिक्षणेत्तर स्टाफ दिए बिना स्कूल को संचालित करने की चुनौती दी जा रही है।स्कूलों में बिजली, पानी और दूसरी मूलभूत सुविधाएं दिए बिना निजी स्कूलों से जंग को भय दिखाकर लड़ाके तैयार किये जा रहे हैं।  बेसिक परिषदीय शिक्षक इस वक़्त समाज के खलनायक बताकर अपने अस्तित्व बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें दुनिया का सबसे कठिन काम मिला है। समाज के निम्न बुद्धिलब्धि, गैर जागरूक अभिभावक, बच्चों की अनियमित उपस्थिति और सैकड़ों गैर शैक्षणिक कार्य। स्कूलों में क्लर्क, चपरासी, मूलभूत सुविधाओं और प्रत्येक क्लास के लिए एक टीचर की नामौजूदगी जैसे कई भूत बेसिक शिक्षकों के पीछे पड़े हैं। सबका दोषी शिक्षक। अपेक्षा की जा रही है कि वह 100 फीसदी छात्रों को प्रतिभायुक्त कर दें। क्या इन हालातों में यह संभव है? संभव है तो अफसर अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाकर क्यों नहीं नज़ीर पेश करते हैं? सच तो यह है कि प्राकृतिक प्रतिभाशाली बच्चों को तो अच्छा बना सकते हैं लेकिन सबको नामुमकिन। विडम्बना देखिये धड़ाधड़ प्राइवेट स्कूल भी खोले जा रहे हैं, उस पर नामांकन और गुणवत्ता बढ़ाने की बात भी कही जा रही है।यह विरोधाभास क्यों? अभी भी ढेर सारे शिक्षक पूर्ण मनोयोग से पढ़ाते हैं और कई बच्चों को अच्छा बनाते है......कुछ गन्दी मछलियां विभाग को गन्दा कर रही हैं....इन मछलियों को निशाने पर लेना चाहिए न कि सभी शिक्षकों को। ठीक वैसे ही जैसे अस्पतालों में डॉक्टर नदारद रहते हैं, तमाम विभागों में निकम्मे कर्मचारी साख पर पलीता लगाते हैं, वैसे ही बेसिक शिक्षा में कुछ प्रतिशत निकम्मे टीचर होंगे लेकिन इनकी नाकामी पर सम्पूर्ण शिक्षा जगत पर अविश्वास और अपमान नहीं होना चाहिए।

       कुछ सवाल हैं, इनके जवाब चाहिए- क्या डॉक्टर जब मरीज सही नहीं कर पाता तो उसे ससपेंड कर दिया जाता है? क्या समय पर बिजली नहीं आने पर अभियंता पर कार्यवाही होती है? क्या सड़क उखड़ने पर PWD के खिलाफ कुछ होता है, सालों से प्यासी जनता और पेयजल की व्यवस्था नहीं होने पर जलनिगम की सेहत पर असर पड़ा? स्कूलों में बिजली, पानी, सफाई और दूसरी सुविधाओं के नहीं होने पर किसी पर कोई कार्यवाही हुई? तो फिर बेसिक शिक्षक ही खलनायक क्यों? चुनाव, सर्वेक्षण, विभिन्न गणनाएं,सत्यापन और दूसरे गैर शैक्षणिक कार्यों के लिए ही कम से कम पीठ थपथपा देते बेचारों की, यकीन है सब खुश हो जाते, क्योकि इनमे सहनशीलता का सर्वोच्च गुण पाया जाता है। इनके हिस्से की शाबाशी चुनाव आयोग और अधिकारी ले जाते हैं।

       शिक्षकों के हिस्से की ख़ुशी लूटकर भी पूर्वाग्रह से ग्रसित ज़िम्मेदारों का दिल नहीं भरता, तब भी वह एसी कमरों में बैठकर परिस्थितियों और प्रधानों से जंग कर रहे शिक्षकों को नियंत्रित करने के लिए नित नए अस्त्र तलाशते और तैयार करते हैं।क्या सारी गलती शिक्षक की है? एक बार ईमानदारी से सोचों।शिक्षकों के काम बिना वसूली और परिक्रमा के होते हैं क्या? फाइलें क्यों रोकी जाती हैं? छात्र शिक्षकों के अनुपात को बिगाड़ने वाले टीचर्स की तैनाती किसने की? स्वयं तो तैनात हुए नहीं होंगे? अब हटाने के नाम पर शोषण की तैयारी!

       वापस मुद्दे पर आते हैं कि परिषदीय शिक्षक शैक्षिक गुणवत्ता से खिलवाड़ करते हैं, कहा जाता है कि टीचर का कौशल सामने वाले रॉ मेटेरियल पर निर्भर है....ज्ञान देने वाले और लेने वाले दोनों क़ाबिल होने चाहिए....अगर दम हो तो सारे प्राइवेट स्कूल बंद कर  समाज के सभी वर्गों को भेजो....जब गुणवत्ता नहीं आये तो बताना... ......चैलेंज। पता है कि बाज़ारीकरण के दौर में यह संभव नहीं है। अब विद्यालय मंदिर ना होकर बाजार बन गए, टीचर कर्मचारी बन गए और सम्मान अपमान बन गया। इस दौर में हम अब एक दिन के सम्मान के हकदार बचे हैं, वह भी दिखावे के लिए। ज़रा सोचो....

लेखक
तंत्र सुधरने की बाट जोहता एक शिक्षक 

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