जिनके जन्मदिवस को हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं, शिक्षकों व छात्रों को दिया गया उनका संदेश:

आप भाग्यशाली हैं कि स्वतंत्र भारत में रह रहे हैं, जिसे अपने विकास के लिए हर उस सक्षम नागरिक की जरूरत है, जो इस देश की सेवा बिना किसी व्यक्तिगत लोभ-लालच से कर सके। मैं जानता हूं कि यह कहना बहुत आसान है कि कर्म ही पुरस्कार है, मगर जो परिश्रम करते हैं, उन्हें इतना जरूर मिलना चाहिए कि वे जीवित रह सकें। और अगर उनका काम संतोषप्रद है, तो उन्हें आरामदेह जीवन मिलना ही चाहिए। हमारी सरकारों (केंद्र व प्रांतीय) को ऐसी प्रक्रियाएं जल्दी ईजाद करनी चाहिए कि सभी प्रतिभाओं को रोजगार मिल सके। अगर हम अपने शिक्षित युवा को रोजगार देने में विफल रहे, तो वे अपना संतुलन खो सकते हैं, उनका विश्वास मौजूदा अर्थव्यवस्था से उठ सकता है। पूर्ण रोजगार व सामाजिक सुरक्षा आज के लोकतंत्र की असली महक है। कलिंग के शिलालेख में अशोक ने लिखा भी है, ‘पूरी प्रजा मेरी संतान है। मैं अपनी संतान के लिए जिस तरह इहलोक व परलोक में सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं की कामना करता हूं, उसी प्रकार मैं अपने समस्त प्रजा के लिए भी यही कामना रखता हूं।’

कोई भी शिक्षक अपने छात्रों को तब तक प्रोत्साहित नहीं कर सकता या उनका सम्मान नहीं पा सकता, जब तक कि वह खुद ज्ञान की सीमाओं का विस्तार करने में रुचि नहीं रखता। छात्रों को पढ़ाना खुद के पढ़ने जैसा ही है। छात्रों को नए-नए सवाल पूछने के लिए उत्साहित करना किसी दुर्लभ उपहार से कम नहीं। एक विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा ऐसे शिक्षकों से ही होती है। 

सरकार ऐसे उपायों पर विचार कर रही है, जिनसे विश्वविद्यालयों की स्थिति बेहतर बन सके। वह स्थितियां बेहतर बनाने और शिक्षकों के वेतन सुधारने में लगी हुई है। मगर वैसे शिक्षकों पर कतई विचार नहीं होना चाहिए, जो अध्यापन पर ध्यान नहीं देते और अपने छात्रों में बौद्धिकता व नैतिकता के विकास को लेकर उदासीन रहते हैं। अकादमिक रुझान से दूर केवल विश्वविद्यालय प्रशासन में सत्ता और रसूख पाने की कामना रखने वाले शिक्षक गुटबाजी व तरह-तरह के षड्यंत्र रचते रहते हैं। गुटबाजी हमारे सार्वजनिक जीवन में एक अभिशाप की तरह है। इसलिए अतिरिक्त सावधानी के साथ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों का चयन होना चाहिए। और एक बार जब उन्हें नियुक्त कर लिया जाए, तो फिर उनकी गरिमा और सुविधाओं का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए।हम विश्वविद्यालयों से भी यह उम्मीद करते हैं कि वे ऐसे नागरिक तैयार करें, जो घृणा, द्वेष, आलस्य, अविश्वास और वर्चस्व की भावना से दूर हों। ये बुराइयां हमारी राष्ट्रीय ताकत को कमजोर बनाती हैं और हमारे कुछ नेता इन्हें आमतौर पर बढ़ाने का ही काम करते हैं। हम अपने देश को वास्तविक लोकतंत्र बनाने का प्रयास करना चाहिए; बिल्कुल एक बड़े परिवार की तरह, जिसके हर सदस्य का व्यक्तित्व बेशक अलग-अलग हो, मगर उनका दिल एक हो। 

लेखक
डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन 
पूर्व राष्ट्रपति

 


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