बच्चा घर की सबसे कमजोर इकाई होता है, उसे गुस्से का शिकार बनाना सबसे आसान होता है।
एक समय में कहा जाता था कि बच्चा अपने माता-पिता के आसपास ही आनंद और
सुकून पाता है। लेकिन आज स्थिति काफी बदल गई है। महानगरों और उनके आसपास के
आम मध्यवर्गीय परिवारों के दोनों माता-पिता नौकरी करते हैं। उनके दफ्तर
जाने का समय तो निश्चित होता है, लौटने का नहीं। काम के घंटे बहुत अधिक हो
गए हैं। हर हाल में टारगेट पूरे करने पड़ते हैं। दफ्तर का काम घर तक भी आ
पहुंचता है। कई बार तो काम के चक्कर में नींद भी पूरी नहीं होती, इसलिए
बड़ी संख्या में युवा अभिभावक अनिद्रा रोग के शिकार भी हो रहे हैं। ये अति
व्यस्त माता-पिता जब घर लौटते हैं, तो पूरे दिन आया के सहारे रहे या क्रेच
में रहे बच्चे इनका टाइम और अटेंशन मांगते हैं। बच्चे भी क्या करें? वे
माता-पिता के लौटने की शिद्दत से बाट जोहते हैं, लेकिन माता-पिता के मन में
दफ्तर के तनाव इस तरह जगह बनाए रहते हैं कि वे दफ्तर , नौकरी, बाहर के
लड़ाई-झगड़े, सबका गुस्सा अपने छोटे बच्चों पर निकालते हैं। बच्चे समझ नहीं
पाते कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया कि इतनी डांट पड़ रही है?
पिछले दिनों एक मां ने बताया था कि वह अपने दोनों बच्चों को बहुत डांटती थी। बात-बात पर उन्हें सजा देती थी। इससे यह हुआ कि बच्चे उसके सामने आते ही कांपने लगते थे। जब उसका ध्यान बच्चों की इस हालत पर गया, तो उसे चिंता हुई। वह दोनों को डॉक्टर के पास ले गई। सारे टेस्ट कराने के बावजूद कोई रोग नहीं निकला। तब वह एक मनोवैज्ञानिक से मिली। डॉक्टर ने बताया कि दरअसल बच्चों की बीमारी उन दोनों के व्यवहार में छिपी है। उन्हें अपने क्रोध को काबू में रखना होगा, जिसे आजकल एंगर मैनेजमेंट कहा जाता है। ऑफिस के गुस्से को बच्चों पर न उतारकर किसी और काम में व्यस्त हो जाया जाए। इससे गुस्सा अपने आप कम हो जाएगा और लगेगा कि अरे बात तो छोटी सी थी, बेकार में इतना गुस्सा आ रहा था। ऐसे अभिभावकों की संख्या इन दिनों काफी बढ़ गई है। वे दफ्तर के तनाव और गुस्से से निपटने के लिए माता-पिता को शिक्षित करने वाले विशेषज्ञों, मनोविज्ञानियों और काउंसलर्स से मिल रहे हैं। इन युवा जोड़ों के लिए कई मनोविज्ञानी और अस्पताल कक्षाएं भी चलाते हैं। उम्मीद है कि इससे बच्चों को कुछ राहत मिलेगी।
संयुक्त परिवार में बच्चे को अगर माता-पिता डांटते थे, तो दादा-दादी सहारा देते थे। इससे बच्चे को लगता था कि उसे बचाने वाला कोई है, मगर आज एकल परिवारों में बच्चों के सामने माता-पिता के अलावा कोई और दूसरा नहीं होता। ऐसे में, जब माता-पिता से भी डर लगने लगे, तो वे कहां जाएं? वैसे भी बच्चे पर गुस्सा उतारना सबसे आसान होता है। वह गुस्से का जवाब गुस्से से नहीं दे सकता। वह उम्र और साधनों के मामले में घर की सबसे कमजोर इकाई होता है। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि गुस्सैल माता-पिता के बच्चे आगे जाकर गुस्सैल ही बनते हैं।
पिछले दिनों एक मां ने बताया था कि वह अपने दोनों बच्चों को बहुत डांटती थी। बात-बात पर उन्हें सजा देती थी। इससे यह हुआ कि बच्चे उसके सामने आते ही कांपने लगते थे। जब उसका ध्यान बच्चों की इस हालत पर गया, तो उसे चिंता हुई। वह दोनों को डॉक्टर के पास ले गई। सारे टेस्ट कराने के बावजूद कोई रोग नहीं निकला। तब वह एक मनोवैज्ञानिक से मिली। डॉक्टर ने बताया कि दरअसल बच्चों की बीमारी उन दोनों के व्यवहार में छिपी है। उन्हें अपने क्रोध को काबू में रखना होगा, जिसे आजकल एंगर मैनेजमेंट कहा जाता है। ऑफिस के गुस्से को बच्चों पर न उतारकर किसी और काम में व्यस्त हो जाया जाए। इससे गुस्सा अपने आप कम हो जाएगा और लगेगा कि अरे बात तो छोटी सी थी, बेकार में इतना गुस्सा आ रहा था। ऐसे अभिभावकों की संख्या इन दिनों काफी बढ़ गई है। वे दफ्तर के तनाव और गुस्से से निपटने के लिए माता-पिता को शिक्षित करने वाले विशेषज्ञों, मनोविज्ञानियों और काउंसलर्स से मिल रहे हैं। इन युवा जोड़ों के लिए कई मनोविज्ञानी और अस्पताल कक्षाएं भी चलाते हैं। उम्मीद है कि इससे बच्चों को कुछ राहत मिलेगी।
लेखिका
क्षमा शर्मा
(ये लेखिका के अपने
विचार हैं)
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