राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का दिल्ली में राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार वितरण समारोह में यह कहना कि देश में शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत बड़ी कमी है। जाहिर करता है कि देश के समूचे शिक्षा तंत्र में आजादी के 68 साल बीत जाने के बाद भी खामियां व्याप्त हैं और हर स्तर पर चिंतन-मनन के बाद भी ये दूर होने का नाम  नहीं ले रही हैं। यह निराशाजनक है कि इस दिशा में बंद कमरे में बहुत बात होती है, नीतियां बनती हैं, निर्देश जारी होते हैं, सर्वे रपट जारी होती हैं और अंत में खामियों और नाकामी का ठीकरा शिक्षकों के सिर फोड़कर सब कुछ कागज का पुलिंदा बन जाता है। हमारे नीति-नियंता इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि राष्ट्र और समाज की तरक्की के उनके दावे तब तक कोरे साबित होते रहेंगे, जब तक देश के समूचे शिक्षा तंत्र को जमीनी स्तर पर दुरुस्त करने की कवायद प्राथमिकता से नहीं की जाएगी। कोई देश बीमार शिक्षा व्यवस्था के बलबूते आगे नहीं बढ़ सकता। वहीं, चोरी के सहारे डिग्रियां बटोरने वाला समाज विकास का ठीक-ठीक सपना भी नहीं देख सकता है। बिहार टॉपर्स घोटाले के बाद इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता है कि देश में शिक्षा माफियाओं का तंत्र कितना मजबूत और संगठित है। शिक्षा माफियाओं और सरकारी तंत्र का गठजोड़ शिक्षा व्यवस्था पर पूरी तरह काबिज है। देश में सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की ही हालत नहीं खराब है, बल्कि उच्च शिक्षा में भी हम दुनिया में बहुत पीछे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता और मात्रा दोनों के मामले में हम अपने बराबर के देशों से पीछे हैं। 18 से 23 वर्ष के बीच की कुल आबादी में उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत लोगों का अनुपात भारत में करीब 20 फीसदी के आसपास है। दूसरी ओर, कई देश इस मामले में हमसे बहुत आगे हैं। चीन में यह अनुपात 28 फीसदी, ब्राजील में 36 और जापान में 55 है। गौरतलब है कि टाइम्स हायर एजुकेशन की ओर शिक्षा संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग कर दुनिया के श्रेष्ठ संस्थानों की लिस्ट तैयार की जाती है। भारत का एक भी ऐसा उच्च शिक्षा संस्थान नहीं है, जो दुनिया की टॉप 200 संस्थानों में शामिल हो। आज वक्त बदल रहा है, दुनिया बदल रही है। पचास के दशक के मुकाबले अर्थव्यवस्था, आबादी और शिक्षा की जरूरतें भी उसी हिसाब से विस्तार ले चुकी हैं। लेकिन भारतीय शिक्षा तंत्र में अभी भी जड़ता दिखाई पड़ती है। आज से साढ़े तीन दशक पहले सरकारी स्कूलों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा करता था और वहीं से पढ़े बच्चे आज कई क्षेत्रों में शिखर पर हैं। लेकिन 1980 के दशक के बाद बड़े बदलाव शुरू हुए और राज्य शिक्षा के बजट में कटौती करने लगे। इसी बीच पंचायतीराज ने अंगड़ाई ली और स्कूली शिक्षा का राजनीतिकरण होने लगा, जिसके चलते देश के प्राथमिक स्कूल गांव की राजनीति का केंद्र बनने लगे। दुनिया के दूसरे देशों से सबक लेने के बाद भी तमाम जद्दोजहद से वर्ष 2002 में देश में शिक्षा मौलिक अधिकार बनी और वर्ष 2009 में राइट टु एजुकेशन एक्ट आया। पहली अप्रैल, 2010 को शिक्षा का अधिकार कानून पूरे देश में लागू किया गया था। इसी के साथ ही भारत उन देशों की जमात में शामिल हो गया था, जो अपने देश के बच्चों को निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कानूनन जवाबदेह है। जाहिर है कि भारत ने शिक्षा के अधिकार को लेकर एक लंबा सफर तय किया है और उस समय के विरोधी दलों ने इसके लिए सरकार से कई बार मोर्चा भी लिया था। इसीलिए इससे बुनियादी शिक्षा में बदलाव को लेकर व्यापक उम्मीदें भी जुड़ी थीं, लेकिन इस अधिनियम के लागू होने के छह वर्षों के बाद हमें कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलता है। गौरतलब है कि उस समय यह लक्ष्य रखा गया था कि 31 मार्च 2015 तक देश के 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को बुनियादी  शिक्षा की पहुंच करा दी जाएगी और इस दिशा में आ रही सभी रुकावटों को दूर कर लिया जाएगा। लेकिन आज हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं। यह लक्ष्य हासिल करना तो दूर, देश में आज भी करीब 1.5 लाख स्कूलों की कमी है, इसके कारण ही 17 लाख से अधिक बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। वहीं, पूरी दुनिया में 6 से 11 साल की  उम्र के छह करोड़ बच्चे प्राइमरी स्कूल और साढ़े छह करोड़ सेकंडरी स्कूल नहीं  जाते। बुरूंडी, मोजांबिक, यमन, घाना, जांबिया, मोरक्को, रवांडा, नेपाल, निकारागुआ, वियतनाम और कंबोडिया जैसे 17 देशों ने 2000 और 2012 के बीच स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या आधी से कम कर ली। साल 2000 में इन  सभी देशों में कम से कम 10 लाख और कुल मिलाकर 2 करोड़ 70 लाख बच्चे स्कूल से बाहर थे। लेकिन अब यह संख्या कम होकर 40 लाख के करीब रह गई है। ये देश संसाधनों के साथ हर क्षेत्र में भारत से छोटे हैं। लेकिन भारत जैसे देशों में प्रगति की रफ्तार काफी धीमी है। जानकार इसकी वजह प्राथमिक शिक्षा पर सरकारी खर्च में कमी बताते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010 से 2012 के बीच ही इस खर्च में करीब 17 अरब रुपए की कमी आई थी। 


अभी भी देश के 92 फीसदी स्कूल शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं। केवल 45 फीसदी स्कूल ही प्रति 30 बच्चों पर एक टीचर होने का अनुपात करते हैं। पूरे देश में अभी भी लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदखल हैं। डाइस रिपोर्ट 2013-14 के अनुसार, शिक्षा के अधिकार कानून के मापदंडों को पूरा करने के लिए अभी भी 12 से 14 लाख शिक्षकों की जरूरत है। आरटीई फोरम की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 51.51, छत्तीसगढ़ में 29.98, असम में 11.43, हिमाचल में 9.01, उत्तर प्रदेश में 27.99, पश्चिम बंगाल में 40.50 फीसदी शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं। इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है। प्रथम, डाइस आदि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट शिक्षा में घटती गुणवत्ता की तरफ हमारा ध्यान खींचते हैं। यह बताते हैं कि किस तरह से छठीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा एक और दो के स्तर के भाषाई कौशल व गणित की समझ नहीं है। गैरसरकारी संगठन प्रथम के ऐसे ही एक देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया गया था कि 50 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो वैसे तो पांचवीं कक्षा तक पहुंच गए हैं, लेकिन वे दूसरी कक्षा की किताबों को भी पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। 


संगठन नें बड़ी मेहनत से देश के 575 जिलों के 16 हजार गांवों में तीन लाख परिवारों के बीच ये सर्वेक्षण किया था। रिपोर्ट से यह निचोड़ निकला कि ग्रामीण भारत के आधे बच्चे सामान्य स्तर से तीन कक्षा  नीचे के स्तर पर हैं। एक दूसरी रपट के अनुसार, भारत में कक्षा आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ सकते हैं। राजस्थान में यह आंकड़ा 80 फीसदी और मध्य प्रदेश में 65 फीसदी है। इसी तरह से देश में कक्षा पांच के मात्र 48.1 फीसदी छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढ़ने में सक्षम हैं। अंग्रेजी की बात करें तो आठवीं कक्षा के सिर्फ 46 फीसदी छात्र ही अंग्रेजी की साधारण किताब को पढ़ सकते हैं। राजस्थान में तो आठवीं तक के करीब 77 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जो अंग्रेजी का एक भी हर्फ नहीं पहचान पाते, वहीं मध्य प्रदेश में यह आकड़ा 30 फीसदी है। रिपोर्ट गणित की पढ़ाई के बारे में भी निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ 36 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे हैं, जो सामान्य गुणा-भाग कर सकते हैं। जबकि वर्ष 2007 में ये संख्या 41 प्रतिशत पाई गई थी, मतलब यह कि इस क्षेत्र में हालात खराब हुए हैं। जानकार इसकी बड़ी वजह बताते हैं, देश में शिक्षकों की भारी कमी। 


आंकड़ों के मुताबिक, मौजूदा समय में देशभर में 8.32 फीसदी यानी एक लाख 5500 स्कूल ऐसे हैं, जिनमें मात्र एक शिक्षक है। वहीं सरकारी आंकड़े ये भी बताते हैं कि देश मे 7 हजार 966 स्कूल ऐसे भी हैं, जिनमें एक भी शिक्षक नही है। बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं, जहां केवल दो शिक्षक सौ से दो सौ बच्चों को पढ़ाने के अलावा मिड डे मील की देखरेख भी करते हैं। स्कॉलरशिप से लेकर ड्रेस की व्यवस्था करने जैसे स्कूल के बहुत से काम शिक्षकों के ही जिम्मे हैं यानी एक पदनाम वाला मास्टर बाबू, प्रगणक और भवन निर्माता आदि के रूप भी अक्सर नजर आता है। इतना ही नहीं, केंद्र या राज्य सरकार द्वारा संचालित की जाने वाली अनेक योजनाओं, अभियानों या कार्यक्रमों के लिए जब भी कर्मियों के नेटवर्क की जरूरत होती है तो शिक्षकों को लगा दिया जाता है। इसके लिए उन्हें अनेक बैठकों में भी शामिल होना पड़ता है। जनगणना और पल्स पोलियो जैसे स्वास्थ्य कार्यक्रमों से लेकर चुनाव ड्यूटी व डिजास्टर मैनेजमेंट संबंधी विविध प्रकार के कार्यों की जिम्मेदारी भी शिक्षकों को सौंपी जाती है। राजस्थान सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़ कर स्वच्छता अभियान से शिक्षकों को जोड़ते हुए आदेश जारी किया है कि उनके इलाके में जो लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं, उनकी सूची बनाएं। मध्य प्रदेश सरकार भी शिक्षकों से अलग तरीके के काम लेती रहती है और समय पर वेतन न मिलने की शिकायत भी रहती है। इस मामले में उत्तर प्रदेश के हालात कुछ बेहतर हैं। यहां शिक्षकों का वेतन समय पर देने का ख्याल रखा जाता है। बिहार में तो शिक्षकों के वेतन के लाले पड़े रहते हैं। खबरों के मुताबिक, वहां छह महीने का वेतन बकाया है। 


अगर सरकारी स्कूलों में संसाधनों की बात की जाए तो 60 हजार स्कूलों में पेयजल नहीं है। हजारों स्कूल में केवल एक क्लास रूम है, पचास फीसदी से अधिक स्कूलों में बिजली नहीं है। ओलंपिक में स्वर्ण का सपना देखने वाले देश के दस में से चार स्कूलों के पास खेल का मैदान नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि देश के 31 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर पड़े आकड़ों पर नजर डालें तो अभी तक केवल 69 फीसदी विद्यालयों में ही शौचालय की व्यवस्था है। 21 प्रतिशत स्कूल हर मौसम के अनुकूल स्कूल भवन का मानक भी पूरा नहीं करते हैं तो वहीं करीब 13 प्रतिशत विद्यालयों तक हर मौसम में पहुंचने की सुविधा भी नहीं है। ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोक देते हैं, जिससे लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही रुक जाती है और वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। दूसरी ओर केंद्रीय, नवोदय और प्रतिभा विद्यालयों के शिक्षकों के साथ ऐसा नहीं होता। लिहाजा वहां के बच्चों के बारे में ऐसी रिपोर्ट नहीं आती कि सातवीं-आठवीं के बच्चे तीसरी-चौथी का ज्ञान नहीं रखते। वहां सरकार ज्यादा धन खर्च करती है और शिक्षकों की संख्या भी समुचित है। उनके जिम्मे केवल पढ़ाने का काम होता है और किसी तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाया जाता है। लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि भारत के 30 से 40 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। एक अध्ययन ये भी बताता है कि सरकारी स्कूलों में 43.4 प्रतिशत टीचर क्वॉलिफाइड और उच्च शिक्षित होते हैं, जबकि गैरअनुदान प्राप्त प्राइवेट स्कूलों में केवल 2.3 प्रतिशत। फिर भी प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा का स्तर ऊंचा है। जाहिर है कि शिक्षा के अच्छे स्तर का निर्णायक कारण प्राइवेट स्कूलों का कुशल मैनेजमेंट है। इसलिए सरकार बदहाली के लिए शिक्षकों को कोसने के बजाय शिक्षा का माहौल पैदा करे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया और कौशल विकास का नारा तो दिया है, लेकिन सरकारी स्कूलों की बदहाली और पूरे शिक्षा तंत्र की बदहाली बताती है कि सरकार को सबसे पहले ध्यान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर देना होगा। देश की प्राथमिक शिक्षा में सुधार हो, सरकारें इस मुद्दे पर दशकों से विचार कर रही हैं। लेकिन यह सुधार कैसे होगा, इस पर कभी ईमानदारी से नहीं सोचा गया।

लेखक 
शाहिद नकवी
shahidnaqvi1966@gmail.com


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