मीडिया और समाज की नज़र में पिछले कुछ समय से शिक्षकों की छवि बिगड़ी या यूं कहें कि बिगाड़ी जा रही है। शिक्षा का अधिकार कानून RTE -2009 आने के बाद से वास्तव में हमारा शिक्षा जगत कई आमूल-चूल परिवर्तनों का गवाह बना है।  इस बीच कई ऐसी उपलब्धियाँ भी हासिल की गयी है जिसे नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता पर असल में हुआ क्या है? किसे याद है ये सब? हम सभी को मिल कर इसकी पड़ताल करनी चाहिए।  हमें उन कारणों को जांचना चाहिए, चिन्हित करना चाहिए।  इसके अतिरिक्त और भी मुद्दों के लिए हमेशा की तरह हम सभी को मिलकर इन्हें चुनना, बुनना और निर्धारित करना चाहिए।





मित्रों यह गिरावट का दौर है पतनशील समाज में हर चीज का पतन हो रहा है चाहे वह समाज हो या फिर नैतिकता। गिरावट के दौर में एक और रस्साकसी सी चल रही है कि प्रत्येक परिवेश को दूषित बताया और दिखाया भी जाए। 'कुत्ते ने आदमी को काटा' टाइप की घटनाओं को प्रतिदिन की सुर्खियाँ बता / दिखा कर प्रतिदिन मीडिया ट्रायल की इस कारपोरेट बीमारी ने हम शिक्षकों को भी घायल किया है। हमारी छवि और हमारे लिए घोषित उच्च सामाजिक मानदंडों से खीचकर ज़मीन पर ला पटकने की एक सस्ती और दरम्यानी कोशिश चल रही है। जोकि ना ही सकारात्मक है और ना ही तथ्यपरक।

इन परिस्थितियों में हम शिक्षक विशेषकर प्राथमिक शिक्षक करें तो क्या करें? मुझे लगता कि जहाँ एक और अपना चिंतन और आत्ममंथन करने की जरुरत है वहीं प्रतिकार करने की भी विनम्र कोशिश शुरू की जानी चाहिए जिससे हमारी सफलताओं को भी विफलताओं के साथ मीडिया में स्थान मिल सके। कोशिश करें कि  इस मुद्दे पर हम सब एक साथ बैठे ........... गहन चर्चा करें .......... जहाँ आत्ममंथन भी हो और हो कुछ प्रतिकार भी!
शिक्षक-बालक अभिवावक और समाज के सम्बन्ध सदा से पावन और पवित्र रहे है और रहने भी चाहिए क्यों कि ये ही सामाजिक स्थिरता और विकास का आधार है। लेकिन पिछले कुछ समय से इन्ही पर चोट की गयी है वो भी बेहद जल्दबाजी में और काफी हद तक जानबूझ कर। बिना इन सबके दूरगामी परिणामो को सोचे समझे अगर शिक्षक अपना मत या तर्क व्यक्त नहीं कर रहा है या स्वयं को साबित नहीं कर रहा है, तो इसका मतलब ये कतई नहीं है कि उसकी छवि खलनायक सी ही प्रस्तुत की जाये?

इस परिवर्तन की बेला में शिक्षकों को स्वयं ही सिद्ध करना पड़ेगा कि वह सिर्फ स्याह पहलू ही नहीं है कई उपलब्धियां और तमाम सुखद पक्ष भी है! अखबारों की सुर्खियों में हमारे सुखद आंकड़े तो गायब है फिर समाज ने भी वही सच मान लिया है। क्या सिर्फ यही सच है? इन पर पहले ही चर्चा होनी चाहिए थी। फिर भी कुछ देर नहीं हुयी है शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी, कही से भी ! अब जरूरी है, अपरिहार्य है, नहीं तो यह निश्चित जानिये कि ये अवश्यसंभावी है कि स्थितियां प्रतिकूल होंगी।  केवल एक उदाहरण देकर अपनी  बात  समाप्त करूंगा।

जैसा कि हम सब सुनते / देखते आये हैं कि अभिवावक पहले की तुलना में अपनी बच्चियों को आजकल बड़ी संख्या में स्कूल पढ़ने भेज रहे है। क्या इन सबका श्रेय सिर्फ बालिकाओ के अलग शौचालयों को जाता है? या सिर्फ मध्यान्ह भोजन को जाता है?  असल में ये श्रेय अध्यापको के उस जमीनी विश्वास को जाता है जो उन्होंने हवा में नहीं कमाया है। ऐसी बहुत सी बाते और उदाहरण है जिन पर हमें चर्चा करनी चाहिए!

चिंतनशील शिक्षक समाज की उपस्थिति में ऐसी अनेकों विस्तृत चर्चायेँ  की जानी चाहिए। मुझे विश्वास  है कि ऐसे सद्प्रयासों से ही हम आज के दोराहे से निकालने के रास्ते पा सकेंगे?


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  1. सही कहा आपने जिस विसंगतियों के बीच प्राइमरी के शिक्षक अपने कर्तव्यों को निभाते हैं उन्हें अनदेखा नही किया जाना चाहिए ,बल्कि हम शिक्षकों की छवि और प्रयासों को धूमिल करने की कुत्सित मानसिकता को विफल करने की जिम्मेदारी भी विकट है ,बिना आत्मचिंतन और प्रतिकार के ऐसा होना असंभव है,

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