कम लम्बाई को अक्षमता या विकृति की तरह देखा जाना कई सामाजिक परेशानियों को जन्म देता है ।
अमोघ की उम्र थी तेरह वर्ष और लंबाई सिर्फ साढ़े तीन फीट। अक्सर साथ के
बच्चे उसका मजाक उड़ाते। बौना कहकर चिढ़ाते। अमोघ हमेशा अपनी कम लंबाई को
लेकर चिंतित रहता था। वह समझ नहीं पाता था कि कैसे लंबाई बढ़ाए। फिर एक दिन
खबर आई कि वह नहीं रहा। किसी ने उसे लंबाई बढ़ाने का दावा करने वाली कोई
गोली दी। गोली खाने के बाद उसे उल्टी हुई और वह चल बसा। बेशक यह नीम हकीम
खतरे जान वाला मामला है, पर साथ ही यह कम लंबाई के लिए उसे समाज से मिल रहे
तानों से भी जुड़ा है। यदि उसकी लंबाई कम रहती, तो क्या फर्क पड़ता? आज
जिंदा तो रहता। मगर समाज में जिंदा रहने के जो नए मानक बना दिए गए हैं, वे
कितने अमानवीय हैं, उसे इस घटना से समझा जा सकता है। लंबाई के इन मानकों
में जो फिट नहीं बैठता, समाज उसकी जिंदगी को अर्थहीन बना देता है। ऐसे में,
कोई जिंदा रहना भी चाहे, तो आसपास के लोग इतना नीचा दिखाएंगे कि वह खुद
जिंदा रहने में आस्था खो दे। कम लंबाई वाले हर बच्चे की कहानी भले ही ऐसी न
हो, पर उसे ऐसे दबावों से गुजरना ही पड़ता है। इसके साथ जुड़ी एक और चीज
है, कि इन दिनों एक-दूसरे को नीचा दिखाना या चिढ़ाना बच्चों के सामने किसी
मूल्य की तरह परोसा जाता है। मेरे पास यह है, तेरे पास तो है नहीं। मेरे
कपड़े तेरे कपड़ों से उजले हैं। महंगा मोबाइल, बड़ी कार, बड़ा घर, मशहूर
स्कूल वगैरह ऐसा बहुत कुछ है, जिससे बच्चों को देखा और आंका जाता है।
‘तेरे कपड़ों पर नील के दाग, छी-छी’- बाजार की स्पर्धा में जो कंपनियां माल बेचने उतरती हैं, वे भी अपने माल को इसी तरह के विज्ञापनों से बेचती हैं। इसे छोड़ दें, तो घरों में भी अक्सर बच्चों को इसी तरह की तुलना की सीख दी जाती है- देखो, उसके कपड़े कितने साफ रहते हैं और तुम एक घंटे में गंदे कर देते हो। देखो, उसकी हैंडराइटिंग कितनी अच्छी है। देखो, उसे कितने अच्छे नंबर आए। अक्सर हम बच्चों को अच्छा या बुरा उन बातों के लिए साबित करने की कोशिश करते हैं, जिनमें उनका अपना कोई बस नहीं। ऐसी ही तुलनाएं जब लोगों की प्राकृतिक भिन्नता या अक्षमता तक पहुंचती हैं, तो कई बार खतरनाक हो जाती हैं।
लंबाई भी ऐसा ही एक मामला है। जो लंबा नहीं है, उसे अक्सर
व्यक्तित्वहीन मान लिया जाता है। ऐसे लोगों का मजाक तो उड़ता ही है, उन्हें
नौकरी वगैरह भी अक्सर आसानी से नहीं मिलती। हर क्षेत्र में ऐसे लोगों को
अपने आप को साबित करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। इस सोच से
उपजे सामाजिक व आर्थिक दबाव लोगों को उन दवाइयों और तरीकों की ओर ले जाते
हैं, जिनमें लंबाई बढ़ाने का दावा किया जाता है। सिर्फ दवाएं ही नहीं,
बाजार में तो इसके लिए सजर्री तक उपलब्ध है, जिसे दवाओं से कहीं ज्यादा
खतरनाक माना जाता है। जबकि यह मामला समाज का है, चिकित्सा विज्ञान का नहीं।
लेखिका
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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