प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश विचार के स्तर पर भी और वास्तविक धरातल पर भी करते है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद इटावा के साथी श्री अवनीन्द्र जादौन जी से! स्वभाव से सौम्य, अपनी बात कहने में सु-स्पष्ट और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षक श्री अवनीन्द्र जादौन जी का 'आपकी बात' में स्वागत है।
इस आलेख में उन्होने शिक्षा के अधिकार को क्रियान्वयन और जवाबदेही के मामले पर कटघरे पर खड़ा किया है। हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष श्री अवनीन्द्र जादौन जी का आलेख प्रस्तुत है।
बिना जवाबदेही और जिम्मेदारी के हुआ शिक्षा का अधिकार अधिनियम लाचार
शिक्षा अधिकार अधिनियम का ड्राफ्ट तैयार होते समय देश के शिक्षाविदों
में शिक्षा के लिए एक नयी आशा का संचार हो रहा था और देश एक बदलाव की
उम्मीद के सपने संजोने लगा था 2005 से तैयार होते होते 2009 में ये अधिकार
लगभग पूरे देश में लागू हो गया। शुरुआती दिनों में तो लोगो को ये उम्मीद
थी कि इस कानून से देश भर की शिक्षा व्यवस्था में बहुत क्रांतिकारी
परिवर्तन हो जायेगा पर धीरे धीरे समय बीतने के साथ ही लोगों की आशाओं पर
पानी फिरने लगा। इस कानून के लागू होते समय कुछ लचीलापन अपनाते हुए राज्यों
को व्यवस्था एवं मुलभुत आवश्यकताएं जुटाने के लिए 5 साल का समय दिया गया
था।
शिक्षा अधिकार कानून लागु होने के 6 साल बाद भी प्राथमिक सरकारी स्कूल की बदहाल सूरत ,शिक्षा के लिए राज्यों के दृष्टिकोण और कानून की दुर्दशा वयां करने को पर्याप्त है। आजादी से अब तक लगभग 50 शिक्षा आयोगों के गठन और इन आयोगों की संस्तुतियां अपनाये जाने के बाद भी जब शिक्षा के स्तर में अपेक्षित सुधार ना हुआ तो शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 को देश एक परिवर्तन के रूप में देखा गया था पर राज्यों के ढुलमुल राजनैतिक निर्णयों और नौकरशाही के भ्रष्ट और कामचोर रवैया के कारण हम अपने को वही खड़ा पाते हैं जहाँ से 2009 में चले थे। 6 साल बाद भी अधिकांश राज्य ना तो प्रत्येक गाँव में सरकारी स्कूलों को पर्याप्त भौतिक संसाधन उपलब्ध करा सके और ना ही प्रत्येक कक्षा के लिए शिक्षक। प्रत्येक विद्यालय में स्वच्छ पेयजल और पृथक वर्किंग बालक बालिका शौचालय ही उपलब्ध करवा पाने में ही राज्यों की हालत पस्त है।
इन 5 वर्षो में जैसे तैसे केंद्र सरकार द्वारा
सर्व शिक्षा अभियान के तहत उपलब्ध कराये गए धन से एक अल्प सुबिधा युक्त भवन
ही उपलब्ध हो सका है पर चिंता यह भी है कि क्या राज्य सर्व शिक्षा अभियान
के ख़त्म होने बाद नए भवनों का निर्माण कर पाएंगे और अपने पुराने बनाये गए
भवनों की देखरेख कर सकेंगे। प्रत्येक कक्षा कक्ष में पर्याप्त फर्नीचर एक
अच्छा कार्यालय सुसज्जित प्रयोगशालाएं और हरे भरे खेलकूद के मैदान अभी भी
इन स्कूलों के लिए सपना है । यह कानून इन भौतिक सुबिधाओं के राज्यों के
सामने आग्रह सा करता नजर आता है और राज्य भौतिक सुबिधाओं के लिए हाथ फैलाये
नजर आते है ऐसे में केंद्र और राज्य के बीच फण्ड की लड़ाई कई राज्यों में
आम जनता के बीच आ चुकी है।
शिक्षा अधिकार अधिनियम समाज में हर वर्ग और अंतिम व्यक्ति तक शिक्षा पहुचाने के लिए केवल निर्देश देता दिखाई पड़ता है पर यह कैसे संभव हो इसका समाधान प्रस्तुत नहीं करता है। हालाँकि विद्यालय प्रबंध समिति की परिकल्पना के साथ वेहतर प्रवंधन की व्यवस्था का एक अच्छा उपाय इस अधिकार में सम्मिलित है पर यह समिति भी अंततः विद्यालय के प्रधानाध्यापक पर ही केंद्रित होती नजर आती है क्योंकि आप बिना आर्थिक लाभ के समाज के किसी भी व्यक्ति /अभिभावक को किसी कार्य के लिए जबाबदेह/वाध्य नहीं कर सकते। विद्यालय प्रबंधन के अन्य कार्य मसलन साफ सफाई ,विद्यालय संपत्ति की सुरक्षा ,विद्यालय में शिक्षणेत्तर गतिविधि,खेलकूद गतिविधियाँ, इत्यादि के सम्बन्ध में यह कानून कोई स्पष्ट निर्देश नहीं देता है जिसके कारण राज्य सरकारें इन व्यवस्थाओं पर कतराती नजर आतीं हैं।
अध्यापक उपलब्धता के सम्बन्ध में 60 छात्रों पर दो अध्यापक का निर्देश कही ना कही शिक्षा अधिकार कानून की लाचारी प्रकट करता है जबकि सबको पता है कि विद्यालय में भले ही 60 छात्र हों पर कक्षा 1 से 5 तक की 5 कक्षाओं के लिए न्यूनतम 5 अध्यापक आवश्यक हैं अध्यापक भर्ती के लिए भी यह कानून राज्यों के समक्ष केवल आग्रह ही करता नजर आता है इसके अतरिक्त विद्यालय की सरकारी संपत्ति की सुरक्षा हेतू चौकीदार, अभिलेखीकरण के लिए लिपिक, खेलकूद के लिए पूर्णकालिक व्यायाम शिक्षक जूनियर हाइस्कूल में विज्ञानं गणित और भाषा (अंग्रेजी,हिंदी,संस्कृत) के लिए अलग अलग शिक्षक की व्यवस्था पर भी यह कानून केवल न्यूनतम की व्यवस्था कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लेता है विद्यालय सञ्चालन के लिए न्यूनतम धनराशि के मामले में भी यह कानून बचता नजर आता है इसीलिए उत्तर प्रदेश जैसे राज्य एक सरकारी विद्यालय के लिए मात्र 5000 रुपये में ही समस्त सुबिधाओं की पूर्ति हेतु दबाब बनाता नजर आता है जबकि निजी विद्यालय इस पर लाखों व्यय करते हैं जो एक विभेदन पैदा करने का प्रमुख कारण है।
शिक्षा अधिकार कानून गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए केवल शिक्षकों को बाध्य करता है जबकि यह एक त्रिधुवी प्रक्रिया है जिसमे अभिभावक को जबाबदेह बनाये विना शतप्रतिशत परिणाम की उम्मीद करना व्यर्थ है। कानून का अर्थ उस व्यवस्था से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति की जबाबदेही तय करना है। ग्रामीण क्षेत्र में छात्रों के पाल्यों के मजदूरी इत्यादि में लगे रहने और पेट पालने के लिए अपने साथ काम पर लगाये जाने से छात्र उपस्थिति पर अंकुश लगाना अध्यापक के वश में नहीं हो सकता है ऐसे में अभिभावक पर बच्चों की उपस्थिति के सम्बन्ध में सख्त वंदिश आवश्यक थी पर कानून में इसे जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया गया।
कानून द्वारा निर्धारित समय सीमा गुजरने के बाद भी राज्यों द्वारा कोई विशेष प्रगति ना कर पाना एक चिंता का विषय है कानून अभी भी राज्यों की सख्त जबाबदेही के स्थान पर केवल अनुरोध इस कानून की कमजोरी दिखाने के लिए पर्याप्त है। अगर अभी इसमें पर्याप्त संशोधन और जबाबदेही नहीं की गयी तो यह कानून भी एक सफ़ेद हांथी ही साबित होगा ।
~ अवनीन्द्र सिंह जादौन
सहायक अध्यापक
जनपद इटावा
महामंत्री, टीचर्स क्लब उत्तर प्रदेश
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