वर्तमान में औपचारिक विद्यालयी शिक्षा एक अति
आवश्यक आवश्यकता बन चुकी है। व्यक्ति और प्रकारांतर से समाज के लिए इसकी
महत्ता, उपादेयता और भूमिका सर्वजन स्वीकार्य हैं। इन्हीं भूमिकाओं के कारण
भारतीय संविधान भी औपचारिक विद्यालयी शिक्षा को भारत के नागरिकों के मूल
अधिकार के रूप में मान्यता देता है। इस मूल अधिकार को सुनिश्चित करने के
लिए राज्य द्वारा हर संभव प्रयास भी किया जा रहा है। इसके उलट सच्चाई है कि
औपचारिक विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में हम निजी क्षेत्रों पर
अधिक विश्वास करते हैं। शोध और आंकड़े भी बताते हैं कि वर्तमान में सरकारी
विद्यालयों में वही बच्चे जा रहे हैं, जिनके अभिभावक निजी विद्यालयों की
फीस वहन क्षमता नहीं रखते हैं। बड़े शहरों और कस्बों के साथ ही गांवों में
भी निजी विद्यालय स्थापित हो चुके हैं। बड़े नगरों में फ्रेंचाइजी के आधार
पर ब्रैंड बन चुके निजी विद्यालयों की श्रृंखला है तो छोटे और दूरदराज के
क्षेत्रों में कान्वेंट स्कूल, पब्लिक स्कूल, इंग्लिश मीडियम स्कूल आदि की
संज्ञाओं से युक्त संस्थाओं को देखा जा सकता है। स्थापना यह है कि बच्चों
की विद्यालयी शिक्षा के लिए हमारी पहली प्राथमिकता निजी विद्यालय हैं।
प्रबंधकीय गुणों से युक्त निजी उद्यमी की भांति ये संस्थान जनता की इस
अकुलाहट और आतुरता को भुनाने में सफल रहे हैं। इसकी सफलता का आकलन इस तथ्य
के आधार पर किया जा सकता है कि सरकारी विद्यालयों के समानांतर ही निजी
विद्यालयों का भी व्यापक जाल है।
निजी विद्यालय और सरकारी विद्यालयों की तुलना कीजिए। विद्यालयी शिक्षा की संरचना, अवधि, पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षक की योग्यता, न्यूनतम आधारभूत संसाधनों की उपलब्धता आदि लगभग समान होते हुए भी निजी विद्यालयों ने एक ऐसा आभामंडल विकसित कर लिया है, जिसमें हमें केवल गुण ही गुण दिखाई देता है। हम विद्यार्थी यानी ग्राहक को ऐसे ज्ञान से संपन्न करेंगे कि वह भविष्य में सफल हो जाए। हमारे पास इनके सवांर्गीण विकास के लिए उत्पादों का पूरा पैकेज है, जो नाना प्रकार की क्षमताओं, कुशलताओं और रुचियों के संवर्धन लिए आवश्यक है। ये ऐसे ही गुण हैं, जिन्हें निजी विद्यालयों द्वारा प्रचारित किया गया है और जिन्हें विकल्पों के सापेक्ष आकलन के बिना हमने सत्य मान लिया है। यही नहीं यदि किसी विद्यार्थी के पास कोई क्षमता विशेष या गुण विशेष नहीं है तो इन संस्थाओं के पास इनके विकास के नाम पर उपाचारात्मक और निर्देशात्मक उपायों का विकल्प भी है, लेकिन इस सेवा के लिए अतिरिक्त धनराशि चुकानी होगी। इन गुणों से हमारे पाल्य वंचित न हो जाए, इस भय से अभिभावक प्रत्येक गुण की आर्थिक कीमत चुकाने को तत्पर हो जाते हैं।
हम अभिभावक इस आर्थिक कीमत को
पाल्य के सफल भविष्य को सुनिश्चित करने हेतु वर्तमान में निवेश मानकर
स्वीकार कर लेते हैं। अंतत: एक ओर बच्चे अधिगम बोझ तले दबे जा रहे हैं तो
दूसरी ओर अभिभावकों की जेबें ढीली हो रही हैं। विद्यालयी शिक्षा की लागत
में वृद्धि का विश्लेषण आवश्यक है। निचले पायदान पर खड़े हर व्यक्ति के लिए
ऊंचे पायदानों पर खड़ा व्यक्ति आदर्श है। इस आदर्श का अनुकरण करने और समकक्ष
पहुंचना, उसके जीवन का प्रयोजनमूलक लक्ष्य है। इस प्रयोजनमूलक लक्ष्य की
प्राप्ति में सबसे मारक उपकरण शिक्षा को सिद्ध कर दिया गया है। निजी
विद्यालयों ने इसी उपकरण पर कब्जा करके आम आदमी के सपनों का मूल्य तय कर
दिया है। एक सुपर मॉल और सुविधा संपन्न निजी विद्यालय में कोई खास अंतर
नहीं है। उत्पादों की लंबी फेहरिस्त, विभिन्न उत्पादों का संयोजन, ग्राहक
सेवा का आश्वासन, मनोनुकूल सेवाओं की उपलब्धता आज के निजी विद्यालयों की भी
पहचान बन चुकी है। बाजार के लिए आवश्यक ज्ञान, इस ज्ञान के संप्रेषण और
प्रस्तुति को व्यक्तिगत पूंजी बनाने की दक्षता विकसित करने के वादे के आड़
में पेसिंल से लेकर लंच बॉक्स तक बेचे जा रहे हैं। प्रौद्योगिकी को
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल करने, उन्नत प्रयोगशालाओं की सुविधा
उपलब्ध कराने, खेल के इनडोर और आउटडोर संसाधनों के नाम पर बंटी आर्थिक लागत
का कुल बोझ एक बड़ी आबादी की मासिक आय से अधिक हो जाता है। अखबार की
सुर्खियों की छानबीन करें तो पाएंगे ज्यादातर प्रतिष्ठित निजी विद्यालयों
की फीस पांच से दस हजार रुपए महीने है। विद्यालय के पक्ष में चुकाई जाने
वाली इस धनराशि में अभी पूरक लागतें नहीं जोड़ी गई है। विद्यालयनूकूल
मेंटेनेंस का बोझ, ट्यूशन आदि की लागतों को जोड़ेंगे तो एक पाल्य की
विद्यालयी शिक्षा की लागत क्या होगी। इसकी कल्पना की जा सकती है। गुणवत्ता
की जिस मृग मरीचिका को निजी विद्यालय की छांव में खोजा जा रहा है, उसने कई
मोर्चों पर समस्याएं खड़ी कर दी है। प्रथम, हमने राज्य के प्रयासों और पहलों
को गुणवत्ताहीन मानने की अभिवृत्ति अपना ली है। जबकि यह भी सत्य है कि
सरकार लगातार विद्यालयी शिक्षा के लिए सार्थक पहल कर रही है। सरकार को इस
पहल में तथाकथित सिविल सोसाइटी से जो सहयोग मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल
रहा है, क्योंकि सिविल सोसाइटी तो शिक्षा की सरकारी सेवाओं की उपभोक्ता
नहीं है। द्वितीय, विद्यालयी शिक्षा में निजी क्षेत्र का एकाधिकार हो गया
है। एकाधिकार की स्थिति में वे अपनी वस्तु यानी शिक्षण शुल्क आदि की वृद्धि
के लिए स्वतंत्र हैं। यहां अभिभावकों के निगोसिएशन की संभावना भी न के
बराबर है। स्वयं अभिभावक इस भय से ग्रस्त हैं कि कहीं उनके विरोध से उनके
पाल्य का भविष्य न खराब हो जाए। तृतीय, एक साधारण बच्चे को स्कूल्ड
पर्सनालिटी बनाने के लिए जिन प्रशिक्षण कार्यक्रमों से गुजरना पड़ रहा है वह
उसके लिए बोझ सदृश है। वह विषय शिक्षण, हॉबी क्लासेज, प्रतियोगी परीक्षाओं
के लिए ट्यूशन और पाठ्य सहगामी क्रियाओं में संतुलन बैठाने के लिए खुद को
कोल्हू के बैल की तरह पेरे हुए है। अब निजी विद्यालयों के एकाधिकार को
चुनौती देने का वक्त आ गया है। इसके लिए विद्यालयी प्रक्रियाओं में
अभिभावकों के द्वारा सशक्त हस्तक्षेप अपरिहार्य है। हमें मानना होगा और
विद्यालय प्रबंधन तक संप्रेषित करना होगा कि विद्यालयी प्रक्रियाओं में
अभिभावक और बच्चे भी उतने ही महत्वपूर्ण भागीदार हैं, जितना कि विद्यालय का
प्रबंधन। यदि आपने इन संस्थानों के ग्राहक बनने को अपनी नियति के रूप में
स्वीकार लिया है तो कम से कम सर्तक और जागरूक ग्राहक बनिए। जिस नागरिक
चेतना का प्रदर्शन आप जीवन के अन्य क्षेत्रों में करते हैं, विद्यालय
प्रबंधन के साथ उसी सक्रियता और तत्परता से संवाद कीजिए। इसके साथ ही इस
तथ्य को समझिए कि विद्यालय जीवन का एक लघु अंश हैं, स्वयं जीवन नहीं है।
अपने जीवन की नैसर्गिक गति का एकाधिकार विद्यालय को सौंप कर सुखद भविष्य के
भ्रम में रह सकते हैं, लेकिन एक निर्बाध, तनावमुक्त और बोझरहित भविष्य के
लिए विद्यालयविहीनता के भय को विजित करना होगा।
लेखक
ऋषभ कुमार मिश्र
(लेखक महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में सहायक प्रोफेसर हैं)
rishabhrkm@gmail.com
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