र साल देशभर में लाखों विद्यार्थी 10वीं और 12वीं की परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। उनकी अगली प्राथमिकता होती है अच्छे कॉलेज में दाखिला लेना और अच्छे कॉलेज के लिए चाहिए अच्छे अंक। एक तरफ हमारी सरकार नारा देती है सब पढ़ें-सब बढ़े, शिक्षा पर सबका अधिकार है। लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था की हालत सरकार के इस नारे की हवा निकाल रही है। शिक्षा नीति की हालत ऐसी है कि जिस छात्र के 90 प्रतिशत अंक आए हैं, उन्हें भी भरोसा नहीं है कि अच्छे कॉलेज में दाखिला मिलेगा भी या नहीं। देश के अच्छे शिक्षण संस्थानों की मांग है कि उन्हें अच्छे से अच्छे अंक वाले कुशल छात्र चाहिए। तो सवाल यह कि जब 90 प्रतिशत अंक वाले विद्यार्थियों का नामांकन होना मुश्किल है तो फिर 60-70 फीसदी अंक हासिल करने वाले बच्चे कहां जाएंगे। क्या उनके लिए कोई अच्छी जगह नहीं है। ध्यान रहे, इस 50 से 70 या उससे कम अंक वाले बच्चों में वो गरीब तबके के बच्चे भी आते हैं, जिन्होंने शायद 12वीं तक कभी किसी प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा होगा। जो बिना किसी तामझाम के सरकारी विद्यालयों में पढ़े होते हैं और सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के क्या हालात हैं, इससे हमसभी बखूबी वाकिफ हैं। गौरतलब है कि जहां सीबीएसई जैसे बोर्ड या अन्य निजी शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को दिल खोल नंबर देते हैं, वहीं राज्य स्तर के बोर्ड छात्रों को अंक देने में आनाकानी करते दिखते हैं। सीबीएसई या आईसीएसई जैसे बोर्डों में 90-95 प्रतिशत अंक लाने वालों की भरमार होती है, वहीं राज्यस्तर पर परीक्षा देने वाले अधिकतर बच्चों के लिए इतने अंक लाना किसी सपने से कम नहीं होता। लेकिन ऐसा क्यों है। क्या ये बच्चे इतने अंक नहीं ला सकते। अगर नहीं ला सकते तो फिर उसके पीछे कौन सी शक्तियां जिम्मेवार हैं। क्या इसके लिए वो छात्र स्वयं जिम्मेवार हैं या फिर वो शिक्षक जो मोटी वेतन पाने के बावजूद भी केवल कुर्सियां तोड़ने के लिए स्कूल जाते हैं या फिर वो पूरी शिक्षा व्यवस्था ही, जिसके केंद्र में इन निरीह बच्चों का भविष्य है या फिर मान लिया जाए कि यह महज गरीब-अमीर की एक खाई है, जो हमेशा सरकारी स्कूल के बच्चों को कमतर आंकती है। वजह तो कई हो सकती हैं, परंतु

यह सत्य है कि हम सर्व शिक्षा जैसे अभियान तो चलाते हैं, सब पढ़ें-सब बढ़ें का नारा भी देते हैं, परंतु धरातल पर हकीकत कुछ और होती है।इस संदर्भ में मैं एक और बिंदु पर अवश्य चर्चा करना चाहूंगा। हमारे देश में सरकारी स्कूल राज्य सरकारों के अधीन होते हैं तथा इन स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम मुख्यत: हिंदी या अन्य प्रांतीय भाषाएं होती हैं, जबकि अधिकतर प्राइवेट स्कूल जो सीबीएसई या आईसीएसई जैसे केंद्रीय स्तर के बोडोंर् से मान्यता प्राप्त होते हैं, उन स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होता है। हालांकि, इन बोर्डों में हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा दी सकती है, परंतु आज हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा का केंद्र बनी हुई है, इसलिए अन्य भाषाओं का चयन करने वाले छात्र न के बराबर ही होते हैं। 

यहां मेरा सवाल और विरोध इस बात को लेकर है कि अगर अंग्रेजी ही शिक्षा का आधार और छात्र के भविष्य की जरूरत है तो सरकारी स्कूलों के शिक्षा का माध्यम आज भी हिंदी क्यों है। क्यों देश के अधिकतर राज्यों के बच्चों को पढ़ने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में किताबें उपलब्ध कराई जाती हैं। क्या यह उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है। मैं हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं का विरोधी नहीं, परंतु मेरा यह कहना है कि इन भाषाओं को बचाने या संवारने का बोझ केवल सरकारी स्कूलों के बच्चों पर ही क्यों डाला जाए और वो भी उनके भविष्य को ताख पर रखकर। आज हम इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि इस देश में अंग्रेजी की महत्ता अन्य भाषाओं से कहीं अधिक है। चाहे बात सिविल सर्विस की परीक्षा की हो या किसी निजी कंपनी में नौकरी पाने की, हर जगह अंग्रेजी वाले बाबूओं को अधिक तरजीह दी जाती है। यहां तक की आज भी हमारे देश में इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की पढ़ाई अंग्रेजी में ही कराई जाती है। अधिकतर अच्छी किताबें भी अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। अब जरा सोचिए, जिन बच्चों ने 10वीं व 12वीं तक इन विषयों की एक किताब भी अंग्रेजी में न पढ़ी हो, वो अगर आगे इंजीनियरिंग या डॉक्टरी की पढ़ाई करना चाहें तो क्या वह आसानी से कर पाएगा, शायद नहीं। ऐसी चीजों को देख कर लगता है, मानों यह एक षड़यंत्र है, जिसके तहत गरीब को गरीब और अमीर को अमीर बनाए रखने की सजिश चल रही हो। क्योंकि ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि किसी अमीर का लाड़ला किसी सुविधारहित सरकारी स्कूल में जाए और किसी गरीब की इतनी हैसियत नहीं कि वो प्रतिमाह हजार रुपए खर्च कर के अपने बच्चे को अच्छे इंग्लिश मिडियम कांवेंट में भेज सकें। परिणामस्वरूप,

जब किसी गरीब का बच्चा अच्छी अंग्रेजी जानेगा ही नहीं तो भला वो अंग्रेजी स्कूलों के बच्चों को क्या टक्कर देगा। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस देश की भोली भाली गरीब जनता इसे समझ नहीं पा रही, वर्ना वह केवल मध्याह्न भोजन अभियान से खुश नहीं हो जाती। सब पढ़ें और बढ़ें की इस श्रृंखला में अगली बाधा है हमारे देश में अच्छे कॉलेज की संख्या और उनकी अवस्था की। हर साल हजारों बच्चे अपनी मनपसंद जगह एडमीशन नहीं ले पाते, क्योंकि एक तो हमारी शिक्षा अब बस नंबरों तक आधारित हो कर रह गई है और दूसरे हमारे पास गिने-चुने कॉलेज हैं, जहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलती हो। सरकार की दोहरी नीति इन सबसे उजागर होती है कि आखिर कॉलेज-कॉलेज का यह वर्गभेद क्यों। 

आखिर ऐसे कॉलेज हैं ही क्यों, जहां अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती और क्या सचमुच इन कॉलेजों को अच्छा नहीं बनाया जा सकता या फिर इसमें भी कोई राजनीति ही छिपी है...जरा सोचिए! 

लेखक
विवेकानंद वी विमर्या
vimarya4u@gmail.com


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