आजकल बोर्ड
परीक्षाओं के रिजल्ट चर्चा में हैं। सीबीएसई के हाईस्कूल और इंटरमीडिएट, दोनों के परिणाम आ गए हैं और कुछ
राज्यों के नतीजे भी निकले हैं। कुछ
राज्य बोर्डों के नतीजे विवाद का विषय भी बन गए हैं, जिनकी खिल्ली उड़ाई जा रही है। पिछले दो दशकों से
जितनी उठापटक शिक्षा के क्षेत्र में
होती आई है, उतनी
शायद किसी और क्षेत्र में नहीं हुई। माध्यमिक स्तर पर तो क्या पढ़ाया जाए, कैसे पढ़ाया जाए, इम्तहान कैसे लिया जाए, यही तय नहीं हो पा रहा है। केंद्र में जो भी सरकार
आती है, वह इस पर
अपने तरीके से प्रयोग करने
लगती है। यूपीए सरकार ने 2010 में
दसवीं का बोर्ड हटा दिया। यह कहकर कि कच्ची
उम्र में बच्चों पर बहुत ज्यादा दबाव रहता है। लेकिन एक साल बाद उसी सरकार ने बोर्ड को स्वैच्छिक
बनाकर वापस ला दिया। यानी कोई चाहे तो
बोर्ड में बैठे, न चाहे न
बैठे। अब सीबीएसई 2018 से दसवीं
की बोर्ड परीक्षा को फिर
से अनिवार्य करने जा रहा है। सरकार का तर्क है कि इससे गुणवत्ता वापस आएगी।
गुणवत्ता कैसे आती है और यह असल में है क्या, यह हर गवर्नमेंट अपने-अपने तरीके से तय करती है। मौजूदा केंद्र सरकार की चिंता है कि इतिहास सही ढंग से नहीं पढ़ाया जा रहा। वह चाहे तो इतिहास का सिलेबस पूरा ही बदल दे, लेकिन क्या इससे शिक्षा की दशा सुधर जाएगी/ क्या स्कूलों में विज्ञान और गणित पढ़ाने के लिए अच्छे शिक्षक हैं/ क्या सभी स्कूलों में ठीक-ठाक प्रयोगशालाएं हैं/ वह सब छोड़िए, क्या सभी स्कूलों में बच्चे और शिक्षक पहुंच रहे हैं/ कुछ राज्य सरकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर के पास शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के नाम पर लोगों को मास्टर या दरोगा बनाने का रास्ता ही बचा है। यानी रोजगार देने के नाम पर शिक्षक बनाए जा रहे हैं, योग्यता की परवाह किसे है?
स्कूलों का
इंफ्रास्ट्रक्चर प्रायः नदारद है, और जहाँ
है भी वहाँ कम
से कम राज्य बोर्डों से पढ़ाई करने की कोई वजह बच्चों के पास नहीं बची है। सरकार पूरे देश में एक कर
प्रणाली के लिए जैसी गंभीरता जीएसटी को
लेकर दिखा रही है, वही
गंभीरता उसे देश में एक शिक्षा प्रणाली लागू करने को लेकर भी दिखानी चाहिए।
साभार:- नवभारत टाइम्स
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