प्रैल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने सभी माध्यमिक विद्यालय बोर्ड परीक्षाओं में अंकों की अनावश्यक मॉडरेशन प्रणाली को रोकने के लिए साहसिक कदम उठाए। सच्चाई का सामना करने की यह इच्छा, चाहे वह कितनी भी बदसूरत हो, लेकिन यह स्कूल शिक्षा में सुधार लाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। हालांकि वर्तमान वर्ष के बोर्ड परीक्षार्थियों की परेशानी को समझा जा सकता है, फिर भी यह सही है कि कृत्रिम रूप से बोर्डों द्वारा अंकों को बडे़ पैमाने पर बढ़ाकर वास्तविक गुणात्मक शिक्षा को व्यवस्थित करने की स्थिति को खत्म करना आवश्यक है, जिससे उच्च उपलब्धि का झूठा दिखावा किया जाता है। उदाहरण के लिए पिछले वर्ष सीबीएसई ने बिना किसी स्पष्टीकरण के गणित में प्रत्येक उस छात्र को 95 अंक दे दिए, जिसे वास्तव में 79 से 95 तक अंक मिले थे और दिल्ली के छात्रों के अंग्रेजी के प्राप्तांकों को मनमाने रूप से 12 अंकों की बढ़त दे दी गई। उत्तर प्रदेश में 100 फीसद माडरेशन के उदाहरण हैं। उदाहरणत: रसायन विज्ञान में 28 फीसद अंक पाने वाले छात्र को उनके रिपोर्ट कार्ड में 56 फीसद अंक दिए जाते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को देखते हुए, सीबीएसई व अन्य बोर्डों के निर्णय कि वह माडरेशन प्रणाली यानी आसान/कठिन पेपर में अंकों को सामान करने के वर्षों से चले आ रहे मानक अभ्यास को जारी रखेंगे, लेकिन तिकड़मबाजी व अंकों को बढ़ाने से परहेज करेंगे, से परीक्षा प्रणाली में लोगों का विश्वास बढ़ेगा। बोर्ड के परिणामों की घोषणा का यह समय यह विचार करने के लिए एक उत्कृष्ट अवसर है कि कैसे परिणामों में निहित जानकारी का उपयोग स्कूलों और शिक्षकों को जवाबदेह बनाकर देश में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधारों के लिए किया जा सकता है। सीबीएसई परीक्षा बोर्ड ने 17 मई को घोषणा की कि माता-पिता की सहायता करने के उद्देश्य से वह गुणवत्ता के आधार पर अपने सभी (लगभग 18,000) संबद्ध स्कूलों को ग्रेड देगा। इस महत्वपूर्ण विचार को समझने के लिए बोर्ड की सराहना की जा सकती है कि जानकारी साझा करने से माता-पिता को स्कूलों को जवाबदेह रखने के लिए सशक्त बनाया जाएगा।

 स्कूली गुणवत्ता के बारे में माता-पिता को जानकारी प्रदान करना शैक्षणिक रूप से उन्नत देशों में शिक्षा नीति का एक मुख्य मुद्दा है। हालांकि, सीबीएसई या किसी भी बोर्ड द्वारा स्वयं स्कूलों को ग्रेड देना जानकारी प्रदान करने का एक बोझिल व अक्षम तरीका है। अन्य देश केवल छात्रों के वास्तविक बोर्ड परीक्षा अंकों के आधार पर स्कूलों की वार्षिक रैंकिंग प्रकाशित करते हैं। स्कूलों में छात्रों के प्रदर्शन के बारे में ऐसी संस्थागत जानकारी के अभाव में माता-पिता के पास स्कूलों की गुणवत्ता के बारे में जानने के लिए सुनी-सुनाई बातों या स्कूलों की बाहरी रूप से दिखने वाली भौतिक सुविधाओं के आधार पर निर्णय लेने का विकल्प ही रह जाता है, जो अपर्याप्त और कभी-कभी भ्रामक संकेतक हैं। 

जिले में विभिन्न स्कूलों के वास्तविक शैक्षिक परिणामों को माता-पिता के साथ साझा करने से विभिन्न स्कूलों में माता-पिता को आकर्षित करने के लिए स्पर्धा का भाव आएगा, जिससे स्कूलों के प्रयासों में बढ़ोतरी होगी। जब तक यह सार्वजनिक ज्ञान नहीं है कि जिले का कोई स्कूल अपने साथियों की अपेक्षा कैसा प्रदर्शन कर रहा है, तब तक उसके प्रबंधन में शिक्षण-शिक्षण मानकों के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। माध्यमिक परीक्षा के आंकड़ों में नीति निर्माताओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण जानकारी भी शामिल है और इसका इस्तेमाल उच्च व निम्न स्तर का प्रदर्शन करने वाले विद्यालयों, उनकी भौगोलिक परिस्थितियों, सामाजिक-आर्थिक समूहों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है। कई देश स्कूल प्रदर्शन डेटा प्रकाशित कर रहे हैं। यूके के प्रत्येक स्कूल के शैक्षिक प्रदर्शन के बारे में तथ्यात्मक आंकड़ों के उदारीकरण के इतिहास से पता चलता है कि शुरू में केवल मीडिया ने स्कूल लीग टेबल के रूप में रैंकिंग को प्रकाशित किया। हालांकि 1990 के दशक के मध्य से यूके सरकार का शिक्षा विभाग अपनी लीग टेबल प्रकाशित कर रहा है। इस अधिकारिक पहल का वैश्विक रूप से स्वागत नहीं किया गया और वेल्स में 2001 में लीग टेबल को समाप्त कर दिया गया। लेकिन लीग टेबल पर रोक लगने के कुछ वर्षों के भीतर उन स्कूलों में छात्रों का प्रदर्शन बुरी तरह गिर गया, जो पहले निम्न प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे, जबकि शीर्ष 25 फीसद स्कूल बेहतर प्रदर्शन करते रहे। कई अध्ययनों से पता चला कि बुरा प्रदर्शन करने वाले स्कूलों पर जब कोई दबाव नहीं रहता तो वह अपने बुरे प्रदर्शन के लिए जवाबदेह नहीं रहते। इसी प्रकार, अमेरिका में स्कूलों द्वारा परफारमेंस डेटा का प्रकाशन नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड अधिनियम, 2001 के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। अनुसंधान अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूलों में टेस्ट डेटा ने स्कूलों को अधिक जवाबदेह बना दिया है। स्कूल लीग टेबल के प्रकाशन के लिए मुख्य प्रतिरोध शिक्षक संघों से आता है जो तर्क देते हैं कि छात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि स्कूल रैंकिंग को प्रभावित करती है, जिससे अमीर स्कूल लीग टेबल में शीर्ष स्थान पाते हैं। हालांकि देश अभी भी स्कूल रैंकिंग प्रकाशित करते हैं। कुछ देश वैल्यू-एडेड रैंकिंग भी जोड़ते हैं जो कि प्रत्येक स्कूल के ‘उपलब्धि के स्तर’ के बजाय ‘उपलब्धि से लाभ’ पर आधारित है तथा जिससे अमीर स्कूलों के पक्ष में पूर्वाग्रह खत्म होगा। शैक्षणिक रैंकिंग की परिभाषा गैर-शैक्षणिक मापदंडों के लिए अवधारणाओं पर आधारित नहीं है जैसे कि विश्वविद्यालय रैंकिंग छात्र-संतोष स्तर, बुनियादी ढांचा, संकाय वेतन स्तर, अंतरराष्ट्रीय का स्तर आदि मानदंडों पर संस्थाओं का अवलोकन करती है। कुछ पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित भारतीय स्कूल रैंकिंग, शैक्षिक प्रतिष्ठा सहित कई मापदंडों पर प्रिंसिपल, शिक्षक और माता-पिता के एक नमूने द्वारा सम्मानित किए गए धारणा के आधार पर संकलित किए जाते हैं, लेकिन 2016 में भट्टाचार्य जी और किंगडन द्वारा आईसीएसई स्कूलों का विश्लेषण दर्शाता है कि धारणा-आधारित व 12वीं की बोर्ड परीक्षा में बच्चों के वास्तविक शैक्षिक प्रदर्शन काफी निम्न स्तर 0.58 है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि शिक्षा नीति निर्माता और परीक्षा बोर्ड परीक्षाओं में स्कूलों के वास्तविक प्रदर्शन पर डेटा प्रकाशित करने के बारे में गंभीरता से विचार करें, ताकि माता-पिता को स्कूल च्वाइस में सहायता मिले, अंतर-विद्यालीय प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिले, स्कूलों की जबावदेही बढे़ और इस प्रकार शिक्षा में गुणवत्ता का संचार हो।

लेखिका
डॉ0 भारती गांधी
(लेखिका सिटी मॉन्टेसरी स्कूल लखनऊ की संस्थापक-निदेशक हैं) 
hosharma12@rediffmail.com 

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