शिक्षकों की अनुपस्थिति का एक अध्ययन बताता है कि ढाई फीसदी शिक्षक ही अपनी कक्षा से नदारद रहते हैं।

जॉली ग्रांट हवाई अड्डे पर उतरकर करीब पांच घंटे पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए हम चिन्यालीसौड़ पहुंचे। शाम हो चुकी थी। करीब 50 शिक्षकों का एक समूह इस बहस में उलझा था कि बच्चों को गणित के स्थानीय मान की गुत्थी सुलझाने में कैसी-कैसी मुश्किलें आती हैं। उन्होंने अपने वे अनुभव भी साझा किए, जो बच्चों को समझाने में कारगर साबित हुए थे। अंत में मुझे अपनी बात रखने को कहा गया। वे चाहते थे कि मैं ‘टीचर ऐब्सेंस स्टडी’ यानी शिक्षकों की अनुपस्थिति से जुड़े अध्ययन पर अपनी बात रखूं, जिसे हमने अप्रैल में प्रकाशित किया था। अध्ययन का लब्बोलुआब यही है कि स्कूलों में करीब 2.5 फीसदी शिक्षक ही अनुपस्थित रहते हैं। यह उस धारणा से बिल्कुल उलट है, जो 25 से 50 फीसदी शिक्षकों के नियमित रूप से अनुपस्थित रहने की बात करती है। इस शोध के लिए कई अन्य रिपोर्टो का भी अध्ययन किया गया, जिसमें विश्व बैंक का वह अध्ययन भी शामिल है, जिसका शीर्षक था, द फिस्कल कॉस्ट ऑफ वीक गवर्नेस : एविडेंस फ्रॉम टीचर ऐब्सेंस इन इंडिया। ये सभी रिपोर्टें स्कूलों में शिक्षकों की महज ढाई से पांच फीसदी अनुपस्थिति की ही बात करती हैं। इस अध्ययन का निष्कर्ष शिक्षकों के बारे में प्रचलित उस धारणा को तोड़ता है, जो उन्हें बदनाम करती है। किसी गैर-शिक्षक ने इस सच को समझने की शायद ही कोई कोशिश की हो। एक शिक्षक ने हमें स्थानीय अखबार की एक खबर दिखाई, जिसका शीर्षक था- ‘सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट के निरीक्षण में स्कूलों से गायब मिले 54 शिक्षक’। इस सनसनीखेज शीर्षक से मेल खाते तमाम तथ्य भी खबर में भरे गए थे, जो दुर्भाग्य से भ्रामक थे। मगर यह बताने की जहमत नहीं उठाई गई कि 53 शिक्षकों की नामौजूदगी का कारण उन्हें सरकार द्वारा प्रशिक्षण पर भेजा जाना था। इस मसले पर गढ़वाल का यह अखबार गुणवत्ता के मामले में द इकोनॉमिस्ट से बहुत अलग नहीं है। ब्रिटिश साप्ताहिक द इकोनॉमिस्ट ने भारतीय स्कूलों पर एक संपादकीय और इससे जुड़ी एक खबर पिछले ही हफ्ते प्रकाशित की है। औसत विश्लेषण के साथ ही इसमें बगुला भगत बनने की कोशिश भी की गई है। इसमें सार्वजनिक शिक्षा को सुधारने की बात तो कहीं नहीं है, लेकिन गारंटी देने वाली निजी शिक्षा-व्यवस्था की वकालत जरूर है। ऐसा कहते हुए यह भी नहीं सोचा गया कि शिक्षा का अधिकार देकर भारत पहले से ही गारंटी देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम चला रहा है और यह भी कि पिछले एक दशक में निजी स्कूलों में दाखिला बढ़ने के बाद भी उनके बच्चों में सीखने के स्तर में गिरावट आई है। बहरहाल, उस हफ्ते मैं उत्तरकाशी, मनेरी, बरकोट, नौगांव और पुरोला में लगभग 300 शिक्षकों से मिला। ये वे शिक्षक हैं, जो नियमित तौर पर आपस में मिलते हैं, ताकि एक-दूसरे से कुछ नया सीख सकें और स्वयं को और ज्यादा बेहतर शिक्षक के रूप में प्रस्तुत कर सकें। अगले हफ्ते ही मैं राजस्थान गया और वहां करीब 200 शिक्षकों से मिला। उनके साथ होने वाली बातें भी कमोबेश वैसी ही थीं, जैसी कि उत्तरकाशी आदि में सुनने को मिली थीं।

मेरा मानना है कि देश भर के शिक्षकों का यही दर्द है। शिक्षक इस बदनामी के साथ जीने को अभिशप्त हैं, जबकि सच यह है कि वे अपने कर्तव्य को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं, और वह भी अमूमन बहुत कठिन परिस्थितियों में। कमजोर को निशाना बनाना आसान है, और शिक्षकों के साथ हम यही कर रहे हैं। शिक्षा में सुधार तभी संभव है, जब हम कक्षाओं में शैक्षणिक अभ्यास को प्रोत्साहित करें और स्कूली संस्कृति को सुधारें। यह सुधार पूरी तरह से शिक्षकों पर निर्भर है और यह काम शर्मसार करके, डराकर या धमकाकर नहीं हो सकता। भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षण एक रचनात्मक कर्म है। हमें शिक्षकों को उनकी अपनी क्षमताओं के साथ ‘बदलाव को उत्सुक नेतृत्व’ की भावना पनपने के अवसर देने होंगे। इसके लिए माहौल बनाने के लिए निवेश के साथ शिक्षकों का सहयोग करना होगा। 

देश के करीब 88 लाख शिक्षकों में ज्यादातर इस भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं, अगर उनसे सहयोग किया जाए, तो तस्वीर और बेहतर हो सकती है। मगर मुश्किल यह है कि हममें से कई लोग धारणाओं में उलझे हुए हैं, जिसे हम बदलना नहीं चाहते।

लेखक 

अनुराग बेहर
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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