योग शब्द की उत्पत्ति के मूल में संस्कृत भाषा का शब्द युज है, जिसका अर्थ है जोड़ना या संगठित करना। इस दृष्टि से योग वह क्रिया है, जो व्यक्ति को समग्रता में जोड़ता है ताकि व्यक्ति का व्यक्तित्व संगठित और संतुलित बन सके, रह सके। योग के दर्शन एवं अभ्यास के संदर्भ में पतंजलि ने अपने चर्चित किताब ‘‘योग सूत्रा’ में काफी विस्तार से लिखा है और यदि पतंजलि को व्यक्त करे तो यह कहना उचित होगा कि योग मन, चित्त, विचार एवं मस्तिष्क के संशोधन एवं परिमार्जन का साध है। योग आसन या कुछ सामान्य शारीरिक क्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यापक है एवं मन मस्तिष्क जैसे आंतरिक कारकों से सीधे संबंधित है। गीता कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग के रूप में योग को तीन भागों में विभाजित तो करती ही है, साथ ही इसकी व्यापकता का भी बोध कराता है। यदि हम आम जन को योग से परिचित कराना चाहे तो हम कह सकते हैं कि योग आसन, प्राणायाम, ध्यान एवं श्वांस को नियंत्रित करने की विधि है, जिसकी मदद से शरीर, मन एवं मस्तिष्क को संतुलित किया जा सकता है। योग व्यक्तित्व के सारे आयामों को प्रभावित करता है। यह व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, भावनात्मक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं का एक साथ एवं समग्रता में विकास करता है। आदि योगी के रूप में भगवान कृष्ण् को सभी जानते हैं, लोग यह भी जानते हैं कि योग को प्रचलित करने में पतंजलि की अहम भूमिका है। गुरुकुल प्रणाली के समय योग आश्रम-जीवन और शिक्षा का अभिन्न हिस्सा हुआ करता था। काल-क्रम में जीवन-शैली में बदलाव की वजह से योग जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा, किंतु इसकी उपयोगिता हर युग में स्वयं-सिद्ध ही रही है। आधुनिक काल में योग को गति एवं दिशा देने के कई प्रयास हुए और कई योग-गुरु प्रकट हुए। परमहंस योगानंद, आचार्य श्री राम शर्मा, श्री श्री रविशंकर जैसे विभूतियों ने आधुनिक काल में योग को प्रचलित किया, मगर योग को जीवन का हिस्सा बनाकर घर-घर एवं जन-जन तक पहुंचाकर इसे एक सामाजिक आंदोलन का रूप देने में बाबा रामदेव का प्रयास अद्भुत है। आज भी योग को प्रचलित करने में योग-आश्रम, मुंगेर (बिहार), योगदा आश्रम (रांची) शांति-कुंज एवं पतंजलि योग पीठ (हरिद्वार) जैसे आश्रम प्रत्यनशील हैं। विश्व स्वास्थय संगठन का अवसाद पर आया रिपोर्ट यह दर्शाता है कि आज का विश्व कितना अस्वस्थ है। अवसाद की दृष्टि से अधिकतम युवा जनसंख्या वाले देश भारत की स्थिति सबसे खराब है। भौतिक विकास के फलस्वरूप आज मानव शारीरिक, मानसिक एवं सांवेगिक समस्याओं से ग्रस्त है। साथ ही भ्रष्टाचार, गला-काट बेईमानी, फरेब आदि जैसी सामाजिक बुराईयों से परेशान भी है। आधुनिक जीवन प्रणाली को अपनाकर जितनी समस्याएं मानव ने उत्पन्न की है उनमें से अधिकांश का समाधन योग शिक्षा और योग-पद्धति अपनाने से संभव है। शरीर संबंधी कष्ट हो या मानसिक अशांति या फिर भयावह अवसाद की स्थिति डाक्टर यह वैद्य योग को आज दवा के रूप में अपनाने की सलाह दे रहे हैं। 

योग को विद्यालय से विश्वविद्यालय तक के शिक्षा कार्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना आवश्यक है। योग की सैद्धांतिक जानकारी योग के क्षेत्र में अकादमिक कार्य करने वालों के लिए आवश्यक हो, किंतु इसका प्रयोग प्रत्येक आम-जन के साथ-साथ हर स्तर के अधिगमकत्र्ता द्वारा आवश्यक रूप से किया जाए ताकि उनका तन-मन स्वस्थ हो और एकाग्रचित होकर पूरे मनोयोग से वे अध्ययन कर सके। योग शिक्षा की दृष्टि से दो स्तर पर काम करने की जरूरत है। पहला, योग के क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त कर शिक्षण एवं शोध कार्य करने के लिए मानव संसाधन तैयार करना और दूसरा, योग को प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा स्तर तक जीवन और दिनचर्या का हिस्सा बनाना। साथ ही योग्य शिक्षकों की नियुक्ति करना एवं उनको प्रभावी ढंग से प्रशिक्षित करना। 

अवसाद, भ्रष्टाचार एवं कई अमानवीय प्रवृत्ति से ग्रस्त विश्व और युवा-जनसंख्या वाले देश भारत के मानव-संपदा के उचित विकास के लिए योग से उत्तम कोई दवा नहीं हो सकती क्योंकि यह मानव के शारीरिक, भावात्मक, नैतिक, सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष का संतुलित और स्वाभाविक पोषण करती है। मानव संपदा के विकास से बड़ा विकास का कोई स्वरूप नहीं हो सकता और योग-शिक्षा से सस्ती और इसके अतिरिक्त मानव विकास की कोई सटीक युक्ति नहीं हो सकती।

लेखक
डॉ0 ललित कुमार 
 

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