जोड़-घटाव से फुर्सत मिले
तब हो सरकारी स्कूलों में शिक्षण कार्य
मेरे एक गुरुजी थे राम औतार यादव।
प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। समय से स्कूल आ जाते थे। आते ही शिक्षण
कार्य में लग जाते। एक सिंद्धात था कि सरकार वेतन देती है इसलिए उसका कर्ज
उतारे बिना रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं खाऊंगा। अपने साथ एक डंडा लेकर चलते
थे, उस डंडे
में भी उन्होने रस की धारा बहायी थी और उस डंडे का नाम रखा था
दंडरस। क्या मजाल कि अंग्रेजी की एक स्पैलिंग या उच्चारण गलत हो जाए।
उन्हें राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक का पुरस्कार मिला। उनके पढ़ाए तमाम छात्र
आज कई महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठे हुए हैं।
अभी कुछ
दिन पहले की बात है, मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव श्रावस्ती
के एक सरकारी विद्यालय में गए, उस विद्यालय के छात्र हिन्दी भी नहीं पढ़ सके। एक बार वह रायबरेली के
एक स्कूल गए थे और वहां भी छात्र प्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम नहीं
बता पाए थे। इससे यह साफ हो गया कि आज शिक्षकों को वेतन से मतलब है शिक्षण
कार्य से नहीं। कैसे हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था उल्टी दिशा में जा
रही है। अब मुख्यमंत्री अपनी आंखों से सब कुछ देख आए हैं और प्रदेश की जनता
से यह वादा भी किया है कि शिक्षा व्यवस्था में सुधार करके दिखाएंगे।
इसलिए यह बताना जरूरी हो गया है कि आखिर हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था इतनी
अपाहिज क्यों हो गई है। इन्हीं शिक्षा मन्दिरों से देश के बड़े-बड़े नेता व
अधिकारी पढ़कर निकले। स्पष्ट है कि इन शिक्षा के मन्दिरों का पतन हुआ है
पहले यह ऐसे नहीं थे।

जिन
सरकारी प्राइमरी
स्कूलों के बच्चे हिन्दी नहीं पढ़ पाते, उनके शिक्षकों की दिनचर्या समझ लेना जरूरी है। इस समय
शिक्षा की दो दुकानें चल रही हैं। एक तरफ सरकारी विद्यालय है, तो दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल।
सरकारी
स्कूलों में जहां
शिक्षा दूसरे पायदान में पहुंच गई है। वहीं प्राइवेट में इनको व्यवसायिक प्रतिष्ठान में तब्दील कर
दिया गया है। सरकारी शिक्षक स्कूल में पहुंचते ही यह जोड़-घटाव शुरू करते
हैं कि किस बच्चे को ड्रेस दी गई, किसको नहीं, असली बच्चे कितने हैं, फर्जी कितने, जिन फर्जी बच्चों को ड्रेस देना दिखाया जा रहा है, उसमें रुपयों का बंटवारा कैसे हो, किताबें कितने बच्चों को बांटी गई हैं। कुछ अधिकारी इस बात
पर ज्यादा जोर लगाते हैं कि फलां दुकान से कपड़े खरीदे जाए, फलां टेलर से सिलवाया जाए। फिर भोजन
बनना शुरू होता है, जिसे संभ्रान्त भाषा में मिड-डे मिल
कहते हैं। सड़े अनाज से बनाए जाने वाले इस मिड-डे-मील में
भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है।
स्कूल में सौ बच्चे होते है, तो दो सौ दिखाए जाते हैं। बाकी सौ
बच्चों के पैसों का बंदरबांट हो जाता है। मुख्यमंत्री के सामने बच्चों की संख्या के जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वह झूठ का पुलिन्दा
है। वास्तव में यह संख्या दोहरी सदस्यता के बल पर टिकी हुई है। यानी इसमें से
ज्यादातर बच्चे निजी विद्यालयों में जाते हैं लेकिन उन बच्चों के नाम
सरकारी विद्यालयों में भी दर्ज हैं। शिक्षक अभिभावकों से अनुरोध कर लेते
हैं कि वह अपने बच्चे को पढ़ाये भले ही निजी विद्यालयों में लेकिन उसका नाम
सरकारी विद्यालय में भी दर्ज करवा दें। सरकारी स्कूलों में मुफ्त किताबें, मुफ्त ड्रेस, वजीफा मिलता है। जब मन में आता है मिड-डे-मिल भी खा आते
हैं। अभिभावकों के लिए यह फायदे का सौदा है और शिक्षकों के लिए भी। इतनी
दुकानदारी करने के बाद जो समय बचता है, वह सरकार के अन्य कामों में जाता है। इस
समय तमाम शिक्षकों को बीएलओ की जिम्मेदारी दे दी गई है। अब आगामी
विधानसभा चुनाव तक उन्हें काम मिल गया है। स्कूलों में बिना शिक्षक के बच्चे
या तो खेलते है या एक दूसरे को कूटते हैं।
दूसरी
तरफ प्राइवेट विद्यालय है, जो सुबह से देने के बजाय लेने का जोड़ घटाव करते रहते
हैं। बिल्डिंग फीस ,एडमीशन
फीस, फिर परीक्षा शुल्क ली जाती है। समारोह स्कूल
करवाते हैं, पैसे
वसूले जाते है बच्चों
से। फिर इनमें से कई विद्यालय तो पास करवाने के नाम पर भी धन उगाही कर रहे हैं। किस डिवीजन में पास
करवाना है, इसके
लिए अलग पैसा। टीसी तक के पैसे वसूले जाते हैं। लेकिन निजी
विद्यालयों का गुणगान करने वाले क्या यह भूल रहे हैं कि भारत के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक का नाम तक न बता पाने वालों में से कई
बच्चे इन्हीं निजी विद्यालयों से पढ़कर निकले हैं। दुकान बहुत ऊंची है।
चमचमाते कमरे हैं, बच्चे
के गले में टाई, पैर में
जूते मोजे, आकर्षक
ड्रेस, अभिभावकों
को आकर्षित करता है।
दरअसल सरकारी विद्यालयों के निकम्मेपन के
कारण निजी विद्यालयों की तरफ लोगों का आकर्षण और बढ़ा है। इसलिए मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव यदि शिक्षा व्यवस्था को दुरस्त करने जा ही रहे हैं तो उन्हें
सरकारी विद्यालयों पर ही नहीं निजी विद्यालयों को भी कसना होगा। सरकार
छात्रों को ड्रेस दे, मिड-डे-मिल
दे, किताबे
दे, वजीफा
दे, लेकिन
इसके लिए इसका केन्द्र स्कूल को नहीं बनने देना चाहिए। एक निश्चित धनराशि छात्रों के
खाते में जाए, वह यह
तय करें कि उन्हें
अपनी ड्रेस कहां से खरीदनी है,क्या खाना है क्या नहीं। अधिकारी और शिक्षक आखिर दुकानदार क्यों बनना
चाहते हैं। शिक्षकों की पदोन्नति और वेतन बढ़ोत्तरी शिक्षा में उनकी उपलब्धि के
आधार पर तय होनी चाहिए। वरना वेतन बढ़ते रहेंगे और ऐसी पीढ़ी तैयार होती
रहेगी, जिसके
पास सामान्य जानकारियां तक नहीं होंगी।
लेखक
बृजेश
शुक्ल
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