देश में स्कूली शिक्षा की मौजूदा दशा कैसी
है, इसका साफ संकेत मानव संसाधन विकास मंत्रालय की उस रिपोर्ट से
मिलता है जो इसी हफ्ते संसद में पेश की गई
है। इस रिपोर्ट के मुताबिक आज भी देश में एक लाख से ज्यादा सरकारी
स्कूल ऐसे हैं
जो एक अकेले शिक्षक के दम पर चल रहे हैं। देश का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां इकलौते शिक्षक वाले ऐसे
स्कूल न हों। यहां तक कि राजधानी दिल्ली
में भी ऐसे 13 स्कूल
बताए गए हैं। सोचा जा सकता है कि इन प्राथमिक
और माध्यमिक स्कूलों में अकेला टीचर अलग-अलग क्लास के बच्चों को
आखिर कैसे और कितना
पढ़ा पाता होगा। प्रशासक और क्लर्क की जिम्मेदारियां निपटाने से लेकर मिड डे मील का बंदोबस्त करने तक, हर तरह के काम देखने का जो दायित्व इस इकलौते टीचर के सिर पर आता है, उन सबको निपटाते हुए वह बच्चों को
पढ़ाने के अपने
मूलभूत काम के लिए कितना वक्त और कितनी ऊर्जा बचा पाता होगा। इसी जमीनी हकीकत के बीच केंद्र की तमाम
सरकारें शिक्षा के अधिकार (आरटीई) पर
जोर देती रही हैं।
गौरतलब है कि आरटीई गाइडलाइंस में साफ तौर पर कहा गया है कि सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में हर 30-35 बच्चों पर एक टीचर होना चाहिए। हालांकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में छात्र-शिक्षक अनुपात का औसत पिछले एक दशक के दौरान काफी सुधरा है। 2005-06 में छात्र- शिक्षक अनुपात प्राइमरी और अपर प्राइमरी में क्रमश: 46:1 और 34:1 था जो 2013-14 में क्रमश: 28:1 और 30:1 हो गया था। लेकिन अहम सवाल यह है कि जब देश के करीब 13 लाख सरकारी स्कूलों में से एक लाख स्कूल इस तरह इकलौते टीचर के भरोसे चल रहे हों तो छात्र-शिक्षक अनुपात के राष्ट्रीय औसत को भला कितनी अहमियत दी जा सकती है।
इस तरह की कई चुनौतियां हैं जो सरकारी
दस्तावेजों में भले
छिप जाती हों, पर
व्यवहार में बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने की राह का रोड़ा बनी हुई हैं। जरूरत इस बात की
है कि सरकार स्कूली शिक्षा के क्षेत्र
की समस्याओं को टुकड़ों में देखने की आदत छोड़े और समग्रता में ऐसी
नीति तैयार
करे जो बच्चों तक स्तरीय शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित कर सके।
साभार:- नवभारत सम्पादकीय
चित्र: साभार गूगल
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