च्च शिक्षा की गुणवत्ता का आकलन शिक्षण-अधिगम, शोध और नियोजन के साथ इस आधार पर भी होना चाहिए कि इसके द्वारा सामाजिक समानता और समावेशन के लिए किस प्रकार के अवसर उपलब्ध कराए गए। स्वतंत्रता के बाद भारत में उच्च शिक्षा के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए गए उनकी दो अंतरनिहित मान्यताएं थीं। प्रथम, उच्च शिक्षा के द्वारा ज्ञान-विज्ञान का प्रसार हो जो एक स्वतंत्र राष्ट्र की मजबूत आधारशिला को तैयार करने वाले मानव संसाधन की पूर्ति कर सके। द्वितीय, उच्च शिक्षा के अभिजनवर्गीय ढांचे के स्थान पर जनोन्मुखी ढांचा विकसित हो, जो भारतीय समाज के वंचित तबकों को मुख्यधारा में शामिल करने का माध्यम बने। वर्तमान आंकड़े उच्च शिक्षा के प्रसार के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। वर्ष 2015-16 में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन दर लगभग 25 प्रतिशत आंकी गई है। परंतु यह सवाल भी विचारणीय है कि उच्च शिक्षा में भागीदारी करने वाले विद्यार्थियों की पृष्ठभूमि क्या है। इस दृष्टि से आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग की भागीदारी क्रमश: 13.9 प्रतिशत, 4.9 प्रतिशत, 33.75 प्रतिशत है। इसी तरह मुस्लिम और गैर मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों की भागीदारी क्रमश: 4.7 प्रतिशत और 1.97 प्रतिशत है तथा महिलाओं की भागीदारी 44 प्रतिशत आंकी गई है। इन प्रमाणों के आलोक में कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा तक पहुंच अभी भी अगड़ी जातियों, पुरुषों और बहुसंख्यकों के पक्ष में है। यदि संस्थानों की प्रकृति और विस्तार के घटक को विवेचना में सम्मिलित करें तो तस्वीर और भी स्पष्ट होती है। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन में उल्लिखित है कि पिछले पांच वषोंर् में न केवल निजी स्वामित्व वाले संस्थानों की संख्या बढ़ी है, बल्कि इन संस्थानों में नामांकन दर में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। राज्य द्वारा इन संस्थानों की निगरानी की जाती है, लेकिन शुल्क आदि के विषय में ये संस्थान स्वतंत्र हैं। स्वाभाविक है कि उच्च शिक्षा के प्रसार में निजी क्षेत्र की भागीदारी ने उच्च शिक्षा की लागत में वृद्धि कर दी है। लागत में वृद्धि एक बड़े तबके को उच्च शिक्षा से वंचित करने का कारण बन जाती है। इसका प्रमाण वे आंकड़ें हैं, जो बताते हैं कि दलित, महिलाओं और पिछड़ों का सर्वाधिक नामांकन कला स्नातक यानी बीए और विज्ञान स्नातक यानी बीएससी जैसे परंपरागत पाठ्यक्रमों में है, जिनकी फीस प्राय: व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की तुलना में कम होती है। अभियांत्रिकी और प्रबंधन जैसे रोजगारोन्मुख पाठ्यक्रम में नामांकन का अधिकांश हिस्सा नगरीय, उच्चवर्गीय पुरुषों का है। इन प्रच्छन्न असमानताओं के मौजूद रहते उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुनिश्चित हो सकती है। उच्च शिक्षा के प्रभाव का आकलन केवल नामांकन के आंकड़ों के आधार पर नहीं किया जा सकता है। नामांकन के उपरांत शिक्षण-अधिगम में भागीदारी और मूल्यांकन में प्रदर्शन भी विचारणीय आयाम हैं। सुमा चिटनिस और सुखदेव थोराट जैसे समाज वैज्ञानिककों ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि वे विद्यार्थी जो वंचित तबकों से आते हैं, जिनके पास उच्च शिक्षा में सहयोग देने वाले सामाजिक संबंधों के जाल का अभाव होता है, उनकी उच्च शिक्षा को छोड़ने की दर अधिक होती है। ऐसे विद्यार्थियों का अकादमिक प्रदर्शन भी अच्छा नहीं होता है। तुर्रा यह कि इन विद्यार्थियों को संबंधित संस्थानों से मनो-सामाजिक सहयोग भी नहीं मिलता है। ये विद्वान उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा सहयोग न मिल पाने का कारण इसकी अभिजनवर्गीय प्रकृति को मानते हैं। पुन: ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के हवाले से कहूं तो उच्च शिक्षा में अध्यापक वर्ग का सामाजिक प्रतिनिधित्व भी इस स्थापना को पुष्ट करता है। इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व क्रमश: 7.5 प्रतिशत, 2.1 प्रतिशत और 25.4 प्रतिशत है। कई बार इन विद्यार्थियों के प्रति गेट कीपिंग की जाती है। इनके उपलब्धि को कमतर आंका जाता है। इनके सबल पक्ष और अभिक्षमता के स्थान पर हीनता को उभारा जाता है। इस तरह उच्च शिक्षा में इनके आगे बढ़ने के अवसरों को परिसीमित कर दिया जाता है। 

हाल में ही स्त्रीकाल पत्रिका में दो दलित छात्राओं का एक लेख प्रकाशित हुआ था। इन छात्राओं ने अंग्रेजी में दक्षता के अभाव को अपने साथ भेदभाव का कारण बताया था। राज्य द्वारा आरक्षण और छात्रवृत्ति जैसे संसाधन उपलब्ध कराने के प्रयास इन प्रक्रियागत असमानताओं को संबोधित नहीं करते हैं और प्रकारांतर से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में बट्टा लगाते हैं।गुणवत्ता उन्नयन का एक महत्वपूर्ण पक्ष नए ज्ञान का जनन और प्रसार है। इसके लिए शोध की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से भी हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था लचर है। इस व्यवस्था में सर्वाधिक संख्या महाविद्यालयों की है, जिनमें से 60 प्रतिशत महाविद्यालय ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित है। इन महाविद्यालयों में अधिकांशत: स्नातक तक की ही पढ़ाई होती है और इनका शोध कार्यों से कोई सीधा वास्ता नहीं होता है। शोध कार्य में संलग्नता का अभाव शिक्षण को भी परंपरागत बना देता है। 

स्नातक स्तर की उपाधि को सरकारी और निजी सेवाओं में न्यूनतम वांछनीय डिग्री के रूप में परिभाषित किया गया है। इस कारण से अधिकांश विद्यार्थी स्नातक के आगे पढ़ने में रुचि नहीं लेते हैं। यदि उनकी रुचि होती है तो शोध संस्थानों का अभाव उनके आड़े आ जाता है। इस स्थापना के लिए हमें विश्वविद्यालयों के क्षेत्रीय वितरण के आंकड़े को संज्ञान में लेना होगा, जो बताता है कि भारत में कुछ ही श्रेष्ठ संस्थान हैं, जो महानगरों के निकट केंद्रित है और शेष औसत दर्जे के संस्थान हैं, जो इनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। शोध की संस्कृति के अभाव का एक अन्य कारण पाठ्यचर्या और शिक्षण अधिगम प्रक्रियाओं में नवाचार का अभाव है। शिक्षण प्रक्रियाओं के चयानात्मक, परीक्षोन्मुख और पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित होने के कारण सृजनात्मक और आलोचनात्मक चिंतन को शिक्षण-अधिगम में कम स्थान मिलता है। इसी तरह जिन वृत्तिक कुशलताओं और ज्ञान की आवश्यकता विश्वविद्यालय के बाहर उद्योगों में है, उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या में लगभग न के बराबर के समावेश है। इसका प्रमाण उद्योग जगत द्वारा अक्सर व्यक्त की जाने वाली चिंता है, जो बताती है कि कॉलेज ग्रेजुएट्स को अनुप्रयोगात्मक ज्ञान न के बराबर होता है। ऐसी परिस्थितियों में संस्थान में गुणवत्ता के अभाव का भुक्तभोगी विद्यार्थी बन जाता है। गुणवत्ता की तलाश में भटक रही भारतीय उच्च शिक्षा के सामने संकटपूर्ण स्थिति है। अभाव, संघर्ष पूर्ण जीवन और सामाजिक उपेक्षा झेल रहे युवाओं को ऐसा ही परिवेश उच्च शिक्षा संस्थानों में भी मिल रहा है। यह परिवेश एक प्रतिरोध की संस्कृति को तैयार कर रहा है। इस स्थिति में चुनौती यह है कि हम उच्च शिक्षा संस्थानों में ग्रहणशील मन और नवोन्मेषी चेतना का विकास कैसे करें।

लेखक
ऋषभ कुमार मिश्र 
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में सहायक प्रोफेसर हैं)
rishabhrkm@gmail.com 

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