विद्या के स्थान पर सानंद विद्या को लाना होगा, जो बच्चों की मासूमियत से मेल बिठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ सकें।

सीबीएसई, बिहार व पंजाब बोर्ड के 12वीं कक्षा के नतीजे हमारी स्कूली शिक्षा के गहरे वर्ग-विभाजन को दर्शाते हैं। देश में एक ओर संपन्न व प्रबुद्ध नगरीय मध्यवर्ग तथा उच्च वर्ग के लिए चमचमाते केंद्रीय विद्यालय, पब्लिक स्कूल, बोर्डिग स्कूल व नवोदय विद्यालय हैं, तो दूसरी ओर छोटे शहरों, गांवों और कस्बों के वे सरकारी स्कूल या अनुदानित निजी स्कूल हैं, जहां सभी व्यवस्थाएं ठप हैं और इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता। अगर राज्य सरकार, शिक्षा अधिकारी, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक अपनी जिम्मेदारी से बचते रहेंगे, तो स्कूली शिक्षा को लगातार रसातल में जाने से कौन रोक पाएगा?
केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय व
दिल्ली के सरकारी स्कूलों का परीक्षाफल सदैव प्रशंसनीय रहा है। दिल्ली में
सरकारी स्कूलों का वर्ष 2017 का पास प्रतिशत निजी स्कूलों से 90 प्रतिशत
ज्यादा रहा। क्या बिहार के सरकारी स्कूलों और शत-प्रतिशत अनुदानित स्कूलों
से ऐसे नतीजों व जवाबदेही की अपेक्षा नहीं की जा सकती?हमारी स्कूली शिक्षा
चुनौतियां विशाल हैं, जिनसे निपटने की संयुक्त जिम्मेदारी केंद्र व राज्य
सरकारों की है। स्कूली शिक्षा पर सरकारों का ध्यान पिछले 10 वर्षो में बढ़ा
है। देश के माध्यमिक स्कूलों में करीब पांच करोड़ विद्यार्थी पढ़ते हैं,
जिनमें से दो करोड़ कक्षा नौ से 12 के होते हैं तथा शेष तीन करोड़ कक्षा छह
से आठ में पढ़ते हैं। फिलहाल माध्यमिक कक्षाओं (नौवीं, 10वीं) में नामांकन
अनुपात 60 प्रतिशत और उच्च माध्यमिक कक्षाओं (11वीं, 12वीं) में सिर्फ 38
प्रतिशत है। शिक्षाविदों का कहना है कि हमारी स्कूली शिक्षा की तीन बड़ी
चुनौतियां हैं- आम जनता के बड़े वर्गों को स्कूली शिक्षा के अवसर न मिलना,
स्कूली शिक्षा में व्याप्त असमानता और अच्छी क्वालिटी की स्कूली शिक्षा
सबको न मिलना। देश में मोटे तौर पर तीन तरह के स्कूल हैं- सरकारी स्कूल,
सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूल और गैर-सरकारी सहायता प्राप्त निजी
स्कूल। 10 वर्ष पहले 46 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में, 28 प्रतिशत
सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में और 26 प्रतिशत निजी स्कूलों में पढ़ते थे।
पिछले दशक में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत कम हुआ है
और निजी स्कूलों में पढ़ने वालों का प्रतिशत बढ़ा है। इसका यह अर्थ नहीं
कि सभी सरकारी स्कूल खराब और सभी निजी स्कूल अच्छे हैं।
स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार सिर्फ सांगठनिक परिवर्तनों से नहीं होगा। हिंदीभाषी और अन्य राज्यों में स्कूली शिक्षा में भारी वित्तीय निवेश की जरूरत है, ताकि जरूरी बुनियादी आधुनिक सुविधाएं हर स्कूल को उपलब्ध हों। सूचना-प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रयोग द्वारा पठन-पाठन की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार किए जा सकते हैं। शिक्षकों व विद्यार्थियों को लैपटॉप, टैबलेट देकर उस पारंपरिक शिक्षण प्रणाली को तिलांजलि दी जा सकती है, जो बच्चों को रट्टू तोता बनाती है। यह प्रौद्योगिकी महंगी जरूर है, किंतु इन राज्यों के बच्चों को अन्य राज्यों के बच्चों के समकक्ष बनाने के लिए जरूरी है। साथ ही, सामूहिक नकल के अभिशाप से मुक्ति के लिए शिक्षकों की शिक्षा व प्रशिक्षण में बदलाव की जरूरत है।
वर्तमान वार्षिक परीक्षा प्रणाली को
सूचना-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से सतत व आंतरिक परीक्षा में बदलना होगा,
जिससे सामूहिक नकल की आशंकाएं न्यूनतम हो जाएंगी। अब तक चली आ रही ‘रटंत
विद्या’ के स्थान पर ‘सानंद विद्या’ को लाना होगा, जो बचपन की मासूमियत के
साथ तालमेल बिठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई-लिखाई कर सकें।
लेखक
हरिवंश चतुर्वेदी
डायरेक्टर, बिमटेक
(ये
लेखक के अपने विचार हैं)
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