विद्या के स्थान पर सानंद विद्या को लाना होगा, जो बच्चों की मासूमियत से मेल बिठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ सकें।


न दिनों परीक्षाफल का मौसम है। हमारे देश में 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे खास महत्व रखते हैं, क्योंकि ये एक ओर स्कूली शिक्षा की दशा का एहसास कराते हैं, तो दूसरी ओर इनसे उच्च शिक्षा के भविष्य की पड़ताल की जा सकती है। 12वीं की परीक्षा संचालित करने के लिए देश में 53 अधिकृत बोर्ड हैं, जिनमें सीबीएसई को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इस वर्ष सीबीएसई का परीक्षाफल 82 प्रतिशत रहा, जबकि पिछले साल 83 प्रतिशत था। इसमें 63 हजार परीक्षार्थियों ने 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक पाए, जबकि 10 हजार ने 95 प्रतिशत अंक पाए हैं।सीबीएसई के नतीजे हर साल बताते हैं कि हमारी स्कूली शिक्षा का यह बोर्ड उस वर्ग के स्कूलों और विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करता है, जो अपेक्षाकृत संपन्न, शिक्षित और सजग परिवार से आते हैं। इन स्कूलों की क्वालिटी अच्छी है और शिक्षक अपने विद्यार्थियों से जुड़ाव व लगाव रखते हैं। इस साल सीबीएसई बोर्ड की 12वीं की परीक्षा टॉप करने वाली रक्षा गोपाल के पिता एक कंपनी के मुख्य वित्त अधिकारी हैं। रक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान में विश्वास नहीं रखतीं। वह ट्रिनिटी म्यूजिक स्कूल, लंदन से पियानो बजाना सीख रही हैं। रक्षा साहित्य पढ़ने की शौकीन हैं, फ्रेंच सीखती हैं और ब्लॉग भी लिखती हैं। सीबीएसई हमारी स्कूली शिक्षा का उजला व ऊर्जावान पहलू है। लेकिन राज्य स्तरीय बोर्डों की तरफ गौर करें, तो पाएँगे कि देश में 12वीं कक्षा के ज्यादातर बच्चे जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं या जैसी शिक्षा पा रहे हैं, वहां सब कुछ ठीक नहीं है। बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की 12वीं के नतीजों से राज्य में स्कूली शिक्षा पर गहराते संकट का आभास होता है। यहां पर कुल परीक्षार्थियों में सिर्फ 34 प्रतिशत उत्तीर्ण हुए हैं। साइंस, आर्ट्स और कॉमर्स में यह प्रतिशत क्रमश: 30, 34 और 74 रहा है। 2016 में भी बिहार बोर्ड के नतीजे सुर्खियों में थे, तब 62 प्रतिशत परीक्षार्थी उत्तीर्ण हुए थे। 2015 में यह प्रतिशत 87 रहा था। इस वर्ष कुल 13 लाख परीक्षार्थियों में से आठ लाख से ज्यादा का फेल होना यह बताता है कि पिछले एक दशक में नकल का सहारा लेकर कैसे लाखों विद्यार्थी पास होते रहे हैं? बिहार के 12वीं के नतीजों से फेल होने वाले लाखों विद्यार्थी और उनके अभिभावक गहरी निराशा में हैं। कई अनुत्तीर्ण बच्चों की आत्महत्या की खबरें भी आ रही हैं। बिहार की तरह पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड द्वारा घोषित 12वीं के नतीजों में भी गिरावट दिखाई दी है। इस साल का परिणाम सिर्फ 62 प्रतिशत रहा, जबकि पिछले साल यह 77 प्रतिशत था। पिछले तीन वर्षो में इस साल के परीक्षा परिणाम सबसे ज्यादा खराब रहे हैं। बिहार और पंजाब के 12वीं के नतीजों पर राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप की होड़ शुरू हो चुकी है, जिसमें अक्सर सतहीपन, अवसरवादिता व नकारात्मकता दिखाई देती हैं। 

सीबीएसई, बिहार व पंजाब बोर्ड के 12वीं कक्षा के नतीजे हमारी स्कूली शिक्षा के गहरे वर्ग-विभाजन को दर्शाते हैं। देश में एक ओर संपन्न व प्रबुद्ध नगरीय मध्यवर्ग तथा उच्च वर्ग के लिए चमचमाते केंद्रीय विद्यालय, पब्लिक स्कूल, बोर्डिग स्कूल व नवोदय विद्यालय हैं, तो दूसरी ओर छोटे शहरों, गांवों और कस्बों के वे सरकारी स्कूल या अनुदानित निजी स्कूल हैं, जहां सभी व्यवस्थाएं ठप हैं और इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता। अगर राज्य सरकार, शिक्षा अधिकारी, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक अपनी जिम्मेदारी से बचते रहेंगे, तो स्कूली शिक्षा को लगातार रसातल में जाने से कौन रोक पाएगा?

केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय व दिल्ली के सरकारी स्कूलों का परीक्षाफल सदैव प्रशंसनीय रहा है। दिल्ली में सरकारी स्कूलों का वर्ष 2017 का पास प्रतिशत निजी स्कूलों से 90 प्रतिशत ज्यादा रहा। क्या बिहार के सरकारी स्कूलों और शत-प्रतिशत अनुदानित स्कूलों से ऐसे नतीजों व जवाबदेही की अपेक्षा नहीं की जा सकती?हमारी स्कूली शिक्षा चुनौतियां विशाल हैं, जिनसे निपटने की संयुक्त जिम्मेदारी केंद्र व राज्य सरकारों की है। स्कूली शिक्षा पर सरकारों का ध्यान पिछले 10 वर्षो में बढ़ा है। देश के माध्यमिक स्कूलों में करीब पांच करोड़ विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिनमें से दो करोड़ कक्षा नौ से 12 के होते हैं तथा शेष तीन करोड़ कक्षा छह से आठ में पढ़ते हैं। फिलहाल माध्यमिक कक्षाओं (नौवीं, 10वीं) में नामांकन अनुपात 60 प्रतिशत और उच्च माध्यमिक कक्षाओं (11वीं, 12वीं) में सिर्फ 38 प्रतिशत है। शिक्षाविदों का कहना है कि हमारी स्कूली शिक्षा की तीन बड़ी चुनौतियां हैं- आम जनता के बड़े वर्गों को स्कूली शिक्षा के अवसर न मिलना, स्कूली शिक्षा में व्याप्त असमानता और अच्छी क्वालिटी की स्कूली शिक्षा सबको न मिलना। देश में मोटे तौर पर तीन तरह के स्कूल हैं- सरकारी स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूल और गैर-सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूल। 10 वर्ष पहले 46 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में, 28 प्रतिशत सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में और 26 प्रतिशत निजी स्कूलों में पढ़ते थे। पिछले दशक में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत कम हुआ है और निजी स्कूलों में पढ़ने वालों का प्रतिशत बढ़ा है। इसका यह अर्थ नहीं कि सभी सरकारी स्कूल खराब और सभी निजी स्कूल अच्छे हैं। 

स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार सिर्फ सांगठनिक परिवर्तनों से नहीं होगा। हिंदीभाषी और अन्य राज्यों में स्कूली शिक्षा में भारी वित्तीय निवेश की जरूरत है, ताकि जरूरी बुनियादी आधुनिक सुविधाएं हर स्कूल को उपलब्ध हों। सूचना-प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रयोग द्वारा पठन-पाठन की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार किए जा सकते हैं। शिक्षकों व विद्यार्थियों को लैपटॉप, टैबलेट देकर उस पारंपरिक शिक्षण प्रणाली को तिलांजलि दी जा सकती है, जो बच्चों को रट्टू तोता बनाती है। यह प्रौद्योगिकी महंगी जरूर है, किंतु इन राज्यों के बच्चों को अन्य राज्यों के बच्चों के समकक्ष बनाने के लिए जरूरी है। साथ ही, सामूहिक नकल के अभिशाप से मुक्ति के लिए शिक्षकों की शिक्षा व प्रशिक्षण में बदलाव की जरूरत है। 

वर्तमान वार्षिक परीक्षा प्रणाली को सूचना-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से सतत व आंतरिक परीक्षा में बदलना होगा, जिससे सामूहिक नकल की आशंकाएं न्यूनतम हो जाएंगी। अब तक चली आ रही ‘रटंत विद्या’ के स्थान पर ‘सानंद विद्या’ को लाना होगा, जो बचपन की मासूमियत के साथ तालमेल बिठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई-लिखाई कर सकें। 

लेखक
हरिवंश चतुर्वेदी
डायरेक्टर, बिमटेक
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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