पढ़ाई के लिए विदेश जाने की विवशता, इसके कारणों की तह तक जाना है जरूरी


किसी भी समाज एवं राष्ट्र का भावी चित्र एवं चरित्र गढ़ने का कार्य शिक्षा ही करती है। शिक्षा के बल पर ही राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति एवं युगीन स्वप्नों को साकार किया जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के क्रियान्वयन के प्रयासों ने शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त जड़ता एवं यथास्थितिवाद को दूर करने में योगदान दिया है। इन प्रयासों ने नवीन सुधारों एवं संभावनाओं को गति प्रदान की है।


इन सुधारात्मक प्रयासों का ही परिणाम है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत की वैश्विक स्थिति में सुधार देखने को मिल रहा है। इस वर्ष टाइम्स हायर एजुकेशन (टीएचई) रैंकिंग में भारत के रिकार्ड 91 विश्वविद्यालयों को जगह मिली है। इस रैंकिंग में इतनी बड़ी संख्या में भारतीय संस्थानों को स्थान मिलने के पश्चात तय है कि हमारी गुणवत्तापरक उच्च शिक्षा की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता में और वृद्धि होगी। यह भी हर्ष एवं गर्व का विषय है कि भारत अब अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय रैंकिंग में चौथा सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाला देश है। यहां तक कि चीन भी भारत से पीछे है, जिसके 86 संस्थानों को इस सूची में स्थान मिल पाया है।


भारत में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले संस्थानों में अन्ना विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, शूलिनी जैव प्रौद्योगिकी और प्रबंधन विज्ञान विश्वविद्यालय, आइआइटी-गुवाहाटी, आइआइटी-धनबाद आदि शामिल हैं। भारत के संस्थानों में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस, बेंगलुरु को सबसे ऊंची रैंकिंग हासिल हुई है। ध्यान रहे कि शीर्ष सभी आइआइटी ने लगातार चौथे वर्ष इस रैंकिंग का बहिष्कार किया था, अन्यथा यह संख्या 91 से कहीं अधिक होती।


टाइम्स रैंकिंग के 20वें वर्ष में 108 देशों और क्षेत्रों के 1,904 विश्वविद्यालयों को रैंकिंग प्रदान की गई। उल्लेखनीय है कि द वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग ने शिक्षण, अनुसंधान, ज्ञान हस्तांतरण और अंतरराष्ट्रीयकरण के उनके मुख्य ध्येय को पूरा करने वाले 18 संकेतकों के आधार पर संस्थानों का मूल्यांकन किया था। इन्हें पांच श्रेणियों शिक्षण, अनुसंधान गुणवत्ता, अनुसंधान परिवेश, अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण और उद्योग में बांटा गया था।


भारत के 91 विश्वविद्यालयों को उक्त रैंकिंग में स्थान मिलना निश्चित ही गौरवपूर्ण उपलब्धि है, परंतु इतने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। आवश्यकता ऐसे प्रयासों की है, जिससे हमारे लाखों विद्यार्थियों को अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और चीन जैसे देशों में पढ़ने न जाना पड़े। इस कारण हजारों करोड़ की विदेशी मुद्रा खर्च होती है। विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017 से 2022 के दौरान पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या 30 लाख से भी अधिक रही। हर वर्ष विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या लगभग दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है।


आश्चर्यजनक रूप से भारत से कम विकसित देशों में भी भारतीय छात्र अध्ययन हेतु जा रहे हैं। विभिन्न कंसल्टेंसी एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय छात्रों द्वारा विदेश में उच्च शिक्षा पर किए जाने वाले व्यय का कुल भार 2024 तक छह लाख करोड़ से भी अधिक पहुंचने का अनुमान है। अकेले पंजाब के लगभग 3.4 लाख युवा वर्तमान में कनाडा में अध्ययन वीजा पर हैं, जो कनाडा की अर्थव्यवस्था में सालाना लगभग 68,000 करोड़ रुपये का योगदान देते हैं। भारत-कनाडा के बीच बढ़ते तनाव के कारण अब कनाडा जाने की इच्छा रखने वाले भारतीय छात्र वैकल्पिक गंतव्य तलाश रहे हैं। हम यह भी कतई नहीं भूल सकते कि यूक्रेन पढ़ने गए भारतीय छात्रों को वहां युद्ध के दौरान कितनी परेशानी उठानी पड़ी थी।


प्रश्न उठता है कि इतनी बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेश में अध्ययन के लिए क्यों जाना चाहते हैं? आर्थिक सुधारों के कारण भारत में मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा है और इस वर्ग को विदेश जाकर पढ़ने के बहाने वहां बसने की संभावनाएं तलाशने में भी कोई गुरेज नहीं। बड़ी आबादी के लिए भारत में शैक्षिक अवसर भी सीमित हैं। देश के प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए होने वाली कठिन परीक्षा, अंतहीन प्रतिस्पर्द्धा, जटिल प्रक्रिया भी विदेशी विश्वविद्यालयों की ओर छात्रों के रुख करने का एक कारण है। अनेक विद्यार्थियों एवं अभिभावकों के मतानुसार हम विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित जैसे विषयों में विदेशी विश्वविद्यालयों से पीछे हैं।


वर्ष 2021-22 में इंजीनियरिंग की करीब 34 प्रतिशत सीटें खाली थीं। यहां तक कि आइआइटी, एनआइटी एवं आइआइआइटी में भी पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रमों में 7,000 और पीएचडी पाठ्यक्रमों में 3,000 से अधिक सीटें खाली थीं। इन सीटों के खाली रहने का प्रमुख कारण तमाम संस्थानों में उन्नत, अद्यतन एवं उच्च प्रतिस्पर्द्धा वाले भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का अभाव है। अधिकांश शोधार्थियों की दृष्टि में भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध एवं अनुसंधान के लिए अनुकूल माहौल एवं आवश्यक संसाधनों का अभाव है। कार्यसंस्कृति, नवाचार और प्रयोगशाला आदि की दृष्टि से वे विदेशी विश्वविद्यालयों को बेहतर पाते हैं।


निःसंदेह ज्ञान की समृद्ध परंपरा के वाहक भारतीय विद्यार्थियों एवं अध्यापकों की लगन, निष्ठा, योग्यता और समर्पण में कोई कमी नहीं है। यदि व्यवस्थागत स्तर पर कमियां दूर कर दी जाएं तो केवल भारतीय ही क्यों, दुनिया भर के विद्यार्थियों को भारत के विश्वविद्यालयों में अध्ययन हेतु आकर्षित किया जा सकता है। हमें यह कार्य प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए, क्योंकि कई बार विदेश पढ़ने गए हमारे छात्र कठिनाई में घिर जाते हैं।


✍️ लेखक :  प्रणय कुमार
(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)

Post a Comment

 
Top