स्कूलों में ‘भारत’ नाम को तरजीह


एनसीईआरटी की कुछ किताबों में भारत को अंधकारमय, विज्ञान और प्रगति से अनभिज्ञ भी बताया गया है। समय के अनुरूप बदलाव किए जाएं, पर बहुत सोच-समझकर।


इन दिनों कोई पहली बार ‘भारत’ और ‘इंडिया’ में विभेद नहीं किया जा रहा। जिस वक्त देश को आजादी मिली थी, तभी यह महसूस किया गया था कि समाज में एक वर्ग ऐसा है, जो कहीं अधिक पढ़ा-लिखा और साधन-संपन्न है। इस वर्ग को संभ्रांत माना गया और ‘इंडिया’ शब्द इसके लिए प्रयोग किया जाने लगा। बेशक तब कुल जनसंख्या में इस वर्ग की हिस्सेदारी महज सात फीसदी थी, जो अब बढ़कर 30 फीसदी तक हो गई है, लेकिन माना यही गया था कि जो अंग्रेजी पढ़ता है, शहरों में रहता है, वह इंडिया है। 


शेष आबादी, यानी जो गांवों में बसती है, आधुनिक और अंग्रेजी परंपरा से दूर है, तुलनात्मक रूप से पिछड़ी है, कम शिक्षित है और शहरीकरण के लाभों से दूर है, वह ‘भारत’ है। इंडिया और भारत का यह अंतर संरचनात्मक था, जिसमें एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग था, तो दूसरा वंचित।


इस अंतर को समाजशास्त्र की किताबों में ही नहीं, साहित्य में भी खूब परिभाषित किया जाता रहा है। विकास को समझाने के क्रम में ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के उदाहरण दिए जाते रहे हैं। मगर इन दिनों जो विभेद किया जा रहा है, उसके राजनीतिक निहितार्थ ज्यादा निकाले जा रहे हैं। 


लोगों का लगता है कि यह पूरा मसला तब शुरू हुआ, जब देश के विपक्षी दलों ने अपने गठबंधन का नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन’ रखा और जब संक्षिप्त में इसे ‘इंडिया’ कहने लगे। इसके बाद से ही इंडिया बनाम भारत पर राजनीति जोर-शोर से होने लगी है, जिसमें पक्ष और विपक्ष, सभी शामिल हो गए हैं।


यह तर्क दिया जा रहा है कि ‘इंडिया’ नाम से गुलामी का एहसास होता है। इसे ब्रिटिश औपनिवेशिक परंपरा का वाहक बताया जा रहा है, और कहा जा रहा है कि हमें अपनी संस्कृति से जुडे़ नाम ही अपनाने चाहिए, यानी ‘भारत’ हमारे लिए ज्यादा मुफीद है। जाहिर है, यहां ‘भारत’ का अर्थ पिछड़ेपन के संदर्भ में नहीं है। 


सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ते हुए इसे राजनीतिक रंग दिया जा रहा है। जबकि, भारत अथवा भारतमाता के क्या निहितार्थ हैं, इसे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में स्पष्ट किया है। उनके मुताबिक, पहाड़, जंगल, नदियां निश्चित तौर पर सभी के लिए प्रिय हैं, लेकिन जो मायने रखता है, वह है भारत के लोग। तो, भारतमाता मूलत भारत के लोग ही हैं, जिनकी तरक्की और खुशहाली मायने रखती है। 


लिहाजा, जब तक आम लोगों को विकास के पायदान पर ऊपर नहीं उठाया जाएगा, तब तक नामकरण की कोई भी कवायद सार्थक नहीं मानी जाएगी। एनसीईआरटी के पास आया नाम बदलने का प्रस्ताव भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। अगर एनसीईआरटी आइजक समिति के इस प्रस्ताव को मान भी लेती है, तब भी इससे आम भारतवासी के उत्थान में शायद ही कोई मदद मिल सकेगी।


किताबों में आवश्यक परिवर्तन को लेकर इस समिति का गठन किया गया था। समिति के प्रमुख सी आई आइजक का कहना है कि एनसीईआरटी की किताबों में भारत को अंधकारमय, विज्ञान और प्रगति से अनभिज्ञ बताया गया है, जिसमें बदलाव किया जाना चाहिए। मगर सरकारी या स्वायत्त संस्थाओं की मजबूरी यह भी है कि उनको खुद को शासन के अधीन ढालना पड़ता है। 


बेशक, एनसीईआरटी को भारत नाम ज्यादा जंच रहा हो, पर बहुत से शिक्षाविदों को इंडिया को एकदम से भारत कर देने का विचार बहुत व्यावहारिक नहीं जान पड़ता है। बदलाव ऐसे करना चाहिए कि बच्चों के पठन-पाठन में फायदा हो।


वक्त का तकाजा यही है कि बच्चे आधुनिक शिक्षा से लैस किए जाएं। निस्संदेह, उनको एक हद तक पुरानी बातें बताई जा सकती हैं, क्योंकि उनसे भी हमें कई तरह की शिक्षा मिलती है, लेकिन आज के दौर में वे बहुत ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। हमें वैज्ञानिक शिक्षा की जरूरत है। सूचना प्रौद्योगिकी में नए-नए नवाचार की दरकार है। 


कंप्यूटरीकृत दुनिया को हमें साकार बनाना है। बजाय इसके पुरातन शिक्षा की वकालत की जा रही है। भले ही वेद-पुराण भी ज्ञान के भंडार हैं, लेकिन अपनी कथित जड़ों की ओर लौटने का अब वक्त नहीं रहा। अगर हम पीछे की ओर लौटेंगे, तो जाति-धर्म, पूजा-पाठ, कर्मकांडों की भी वकालत की जाएगी। इनमें मौजूद ज्ञान को अपनाने का भी विशेष आग्रह किया जाएगा। जबकि, दुनिया के तमाम विकसित देश इन सबसे ऊपर उठ चुके हैं। वे आधुनिक शिक्षा के प्रसार को लेकर नई-नई नीतियां बना रहे हैं। हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।


बदलाव के पक्षधरों को तैयार रहना चाहिए, सवाल पूछा जाएगा कि इंडिया को भारत करने से आखिर क्या फायदा होगा? इससे भारत की दशा-दिशा कितनी बदल जाएगी? क्या इससे हमारी पितृ-सत्तात्मक मानसिकता में परिवर्तन आएगा? क्या इससे यहां की गरीबी-भुखमरी कम हो जाएगी? इतना ही नहीं, कल यदि इसी तरह गुरुकुल की पैरोकारी की जाने लगे, तो हमारी क्या नीति रहेगी? मैं यहां नकारात्मक नहीं हो रहा। यह वास्तव में एक वैज्ञानिक भाव है। 


जरूरी है कि हम अपनी ऊर्जा सही जगह खर्च करें। काम तो वही कारगर माना जाएगा, जो लोगों के जीवन-स्तर को बेहतर बनाएगा। आज गरीबी-भुखमरी-बेकारी आदि पर बात ज्यादा होनी चाहिए। जिस शहर में मैं रहता हूं, वहां एक कच्ची बस्ती है जवाहर नगर। वहां कई शौचालय बनाए गए, लेकिन आज वे शायद ही इस्तेमाल के लायक हैं। नतीजतन, वहां से गुजरना मुश्किल हो जाता है। अगर विमर्श ही करना है, तो इन बस्तियों में रहने वाले लोगों की बेहतरी पर चर्चा करनी चाहिए। नाम बदलने के साथ हमें मूलभूत सकारात्मक परिवर्तन की दिशा में भी बढ़ना होगा।


ऐसा नहीं है कि अन्य देशों के नाम नहीं बदले गए हैं। हमारे पड़ोस में ही वर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया गया। सीलोन भी श्रीलंका बन गया। मगर इन सबका भावनात्मक पहलू भी है। राजनीतिक होने के बावजूद भावनात्मक ढंग से नाम बदला गया। यह राजनीति का विषय नहीं है, इससे बचना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि हमें पुरातन भारत को, जिसका उल्लेख समाजशास्त्री करते हैं, आधुनिक व पूरी तरह से विकसित बनाना चाहिए। नाम बदलने की सार्थकता भी तभी है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं)


✍️ लेखक : के एल शर्मा
(शिक्षाविद और राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति)

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